हिंदु धर्म
धर्म की व्याख्या
समाजव्यवस्था उत्तम रखना, प्रत्येक प्राणी की ऐहिक और पारलौकिक उन्नति होना, ये बातें जिससे साध्य होती हैं, वह धर्म है’, ऐसी व्याख्या आदि शंकराचार्यजीने की है ।
‘धारणात् इत्याहु धर्मः’ अर्थात जो लोगों को धारण करता है, वह धर्म है, ऐसे भी धर्म की एक व्याख्या है । इसलिए धर्म सभी जडचेतन त्रिलोक को धारण करता है । जिस प्रकार दाहकता अग्नि का और शीतलता जल का धर्म है, वैसे ही गृहस्थधर्म, पत्नी धर्म, आदि भी प्रचलित हैं ।