पांडुरंग एवं एकादशी की महिमा !

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अनुक्रमणिका

 

१. पांडुरंग का कर्नाटक से पंढरपुर आना

१ अ. मूल आदिम (अ-नागर) देवता ‘पंडरिगे’ इस गांव आकर ‘पंढरी का पांडुरंग’ होना

महाराष्ट्र में धर्म को बहुत महत्त्व दिया जाता है । धर्मतेज जागृत करनेवाला पंढरी का विठोबा महाराष्ट्र, आंध्र एवं कर्नाटक राज्यों की सीमा पर है । कुछ लोग कहते हैं, ‘ये धनगरों के देवता हैं । यह मूल ‘आदिम’ (आदिवासी), अ-नागर देवता ही आगे धनगरों के साथ ‘पंडरिगे’ नामक गांव आया और आगे वह ‘पांडुरंग’ हुआ । पंडरिगे नामक गांव ‘पंढरी’हो गया । वहां धनगरों की बस्ती थी; परंतु फिर नागरी बस्ती के कारण आगे इस पंढरी को ‘पंढरपुर’ नाम से संबोधित किया जाने लगा । ऐसी रीति से पंढरी का पंढरपुर हो गया ।

१ आ. कर्नाटक का ‘सांवला विठ्ठलु’ भक्त के प्रेमवश पंढरपुर आना

पुंडलिक के समय पंढरपुर में स्थापित हुई पांडुरंग की यह मूर्ति आगे कर्नाटक के विजयनगर के राजा अपने साम्राज्य ले गए । उन्होेंने उस मूर्ति की स्थापना तुंगभद्रा के तट पर की । उस काल में महाराष्ट्र के पैठण के संत भानुदास (संत एकनाथ महाराजजी के दादाजी) विठ्ठल के बडे भक्त थे । उनका आध्यात्मिक अधिकार बडा था । एक बार भगवान विठ्ठल ने प्रसन्न होकर उन्हें दृष्टांत दिया और बताया ‘‘मैं कर्नाटक में हूं । तुम मुझे पंढरपुर में लेकर मेरी स्थापना करो !’’ विठ्ठल के कहे अनुसार संत भानुदास ने विजयनगर के राजा के पास जाकर विठ्ठल की मूर्ति की मांग की । राजा को भी दृष्टांत हुआ था । इसलिए संत भानुदास का विठ्ठल प्रेम एवं भक्ति देख कर राजा ने वह मूर्ति उन्हें दे दी । संत भानुदास उस मूर्ति को लेकर पंढरपुर आए और उसकी प्रतिष्ठापना की ।

१ इ. शैव एवं वैष्णव, दोनों के ही देवता !

पांडुरंग, ये शैव एवं वैष्णव दोनों के ही देवता हैं । इन्हें शैव एवं वैष्णव दोनों ही भजते हैं । शैव पंथीय पांडुरंग को ‘वीरभद्र’ अर्थात ‘विठ्ठल’ कहते हैं, तो वैष्णव उन्हें ‘गोपालकृष्ण’ कहते हैं । वे विष्णु एवं शिव का अवतार हैं; इसीलिए वे ‘हरिहर’ हैं । ऐसे ये पांडुरंग, भगवान श्रीकृष्ण के ही अवतार हैं ।

१ ई. बौद्ध एवं जैन को भी विठ्ठल ‘अपने भगवान’ लगना

कुछ लोग कहते हैं ‘विठ्ठल भगवान के नौवें अवतार बुद्ध हैं । (आदिशंकराचार्यजी के काल में भारत में कुछ नई धार्मिक प्रवृत्तियों का उदय होकर जैन, बौद्ध इत्यादि धर्मपंथों का उदय हुआ था । महाराष्ट्र में भी बौद्ध धर्म का प्रभाव दिखाई देता है; कारण कोकण किनारपट्टी, घाटमाथा, मराठवाडा में सह्याद्री पर्वतश्रंखलाओं में बुद्ध की कलाकृतियोंवाली गुफाएं दिखाई देती हैं ।)

जैन विठ्ठल को बाविसवां तीर्थंकर नेमीनाथ मानते हैं । नेमीनाथ एवं कृष्ण, ये दोनों ही गोपाल थे । वे यदुकुलोत्पन्न थे । नेमीनाथ भी विठ्ठल समान सांवले वर्ण के थे । नेमीनाथ का चिन्ह शंख, विठ्ठल ने भी धारण किया है । इसलिए इन सभी लक्षणाेंं के कारण जैनों का मत है कि विठ्ठल, दिगंबर नेमीनाथ होंगे ।

परात्पर गुरु पांडे महाराज

 

२. कानडा राजा पंढरीका !

२ अ. विठ्ठल ही ‘दाक्षिणात्यों के श्रीव्यंकटेश, अर्थात तिरुपति बालाजी’ होना

दक्षिण में यही गोपाल ‘श्रीव्यंकटेश ऊर्फ तिरुपती बालाजी’ के नाम से प्रसिद्ध हैं; कारण व्यंकटेश की पत्नी पद्मावती हैं, तो विठ्ठल की पत्नी का भी नाम पद्मावती (पदुबाई) है । व्यंकटेश की पत्नी पद्मावती उनसे रूठकर तिरूयानूर में इमली के वन में रहने चली गईं, तो विठ्ठल की पत्नी रुक्मिणी दिंडीर वन में (इमली के वन में) जाकर बैठ गईं थीं ।

‘विठ्ठल को ‘पांडुरंग’ भी कहते हैं’, इसके साथ ही व्यंकटेश को भी कर्नाटक के पर्वत के स्थलनाम पर ‘वेंगडम्’ संबोधित करते हैं । इसीलिए उसे ‘विठ्ठलेश्वर अथवा व्यंकटेश’ भी कहते हैं ।

२ आ. विठ्ठल एवं तिरुपति में समानता

कुरूबा (‘कुरूबा’ समाज धनगर उपजाति में से एक है ।) एवं धनगर के देवता एकरूप होकर, उससे ‘विठोबा’ की निर्मिति हुई । शिला प्रतिमा से भी जो संपूर्ण मूर्ति बनी, वह इन दोनों जातियों ने अनेक शताब्दियों से उसी रूप में संजोकर रखी होगी । इसीलिए विठ्ठल एवं तिरुपति, इन दोनों मूर्तियों में काफी समानता पाई जाती है । पंढरी का विठोबा दोनों हाथ कमर पर रखकर खडा है, तो कर्नाटक में वह एक हाथ कमर पर और दूसरा हाथ वरद मुद्रा में, इस स्वरूप में अनेक स्थानों पर देखने मिलता है । इसीलिए संतों ने ‘सावळा हो विठ्ठलु कर्नाटकु’ (भजन, मराठी भाषा में), ऐसे उसका वर्णन किया है । संतों ने उसे ‘कानडा’ के नाम से भी पुकारा है । चैतन्य की जिस अनुसंधान से आराधना की जाती है, उस स्वरूप में वह प्रकट होता है ।

जिसका जैसा भक्तिभाव होगा, वैसी उसे भगवान अनुभूति देता है । बंगाल में कोलकाता में मछुआरों की रानी ने मां दक्षिणेश्वरीदेवी की स्थापना की थी । उस मंदिर में उन्होंने श्रीरामकृष्ण परमहंसजी की पुजारी के रूप में नियुक्ति की थी । श्रीरामकृष्ण परमहंस के भक्ति-भाव के कारण देवी उन पर प्रसन्न हो गई और उन्हें दर्शन दिए । अनेकों को लगता है, ‘क्या पत्थर में भगवान होते हैं ?’; इसका उत्तर है ‘भक्ति-भाव से पत्थर भी सजीव हो जाता है ।’, इसे ध्यान में रखना चाहिए ।

 

३. पांडुरंग का मोहक सांवला रंग

३ अ. कृष्ण समान ही अद्वैत का प्रतीक है पांडुरंग का सांवला रंग

पांडुरंग सामान्य जनों के देवता हैं । पांडुरंग का रंग सांवला है और कृष्ण भी सांवला है । काला रंग अद्वैत का है । वृंदावन की गोपियाें कृष्ण से कहती हैं, ‘‘अरे कृष्णा, तू अमावास्या पर जब काला कंबल ओढकर यमुना तट के कदंबवृक्ष पर बैठता है, तब तू हमें दिखाई ही नहीं देता; कारण रात काली, यमुना काली, तू काला और कंबल भी काला ! ऐसे समय पर ये सभी अद्वैत हो जाते हैं ।’’

३ आ. सगुण-निर्गुण रूपी पांडुरंग

संत ज्ञानदेव कहते हैं, ‘तुज सगुण म्हणों कीं निर्गुण रे । सगुण निर्गुण एकु गोविंदु रे ।’ अर्थात वह सगुण है और निर्गुण भी है । उसका सगुण स्वरूप निर्गुण ही है । वह स्वच्छ अर्थात निर्मल है । उसकी इंद्रियां विकाररहित एवं स्वच्छ हैं । वह अंदर-बाहर स्वच्छ है; इसलिए वह ‘पांडुरंग’ है ।

एक बार बचपन में जब संत ज्ञानेश्वर एवं मुक्ताबाई खेल रहे थे, तब मुक्ताबाई ज्ञानदेव से बोली, ‘‘अरे दादा, आप इस पांडुरंग को निर्गुण कहते हैं; परंतु यह तो सगुण स्वरूप में यहां कमर पर हाथ रखकर खडा है ।’’ इस पर संत ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं, ‘‘मुक्ता, मैं तुम्हें गुरुमुख से कहता हूं । अरे, यह निर्गुणी बिंदु ही सगुण में साकार हुई है ।’’

वह निर्गुण ही सगुण स्वरूप में यहां दिखाई दे रहा है । वह श्रमिक, कृषक, सामान्यजन एवं अनाथों का पालनहार है; इसलिए वह (धूप में अपार कष्ट कर) काले रंग का हो गया है । ऐसा यह सगुण-निर्गुण रूपी पांडुरंग है ।

 

४. एकादशी की महिमा

४ अ. आषाढ एवं कार्तिक माह की एकादशी का महत्त्व

किसी भी विशिष्ट वारी को, तिथि को अथवा किसी माह में विशिष्ट देवताओं के स्पंदन पृथ्वीपर अधिक मात्रा में कार्यरत होते हैं । वह काल उस देवता का काल माना जाता है, उदा. शिव का सोमवार, दत्त का गुरुवार, वैसे ही श्रीविष्णु की एकादशी । वर्षभर में २४ बार आनेवाली एकादशी की तुलना में आषाढ एवं कार्तिक माह के शुक्लपक्ष में आनेवाली एकादशी के समय श्रीविष्णु का तत्त्व पृथ्वीवर अधिक मात्रा में आने से श्रीविष्णु से संबंधित ये दो एकादशियों का महत्त्व अधिक है ।

 

५. संत एकनाथ महाराज ने एकादशी के विषय में किया वर्णन

५ अ. ‘एकादशी के समय जो भी उत्सव मनाया जाता है, वह भगवान तक पहुंचता ही है, इसमें संदेह न करें । भगवान कहते हैं, ‘जो एकादशी का व्रत करता है, उनके घर मैं नित्य रहता हूं । एकादशी सर्व पर्वकाल में श्रेष्ठ ही है । एकादशी व्रत करनेवाला सर्व व्रत एवं तीर्थाें का राजा है । वह मेरे परिवार का ही एक सदस्य है । वह मुझे अत्यंत प्रिय है ।’

५ आ. चातुर्मास की सर्व एकादशी तिथियां एवं विविध जयंती यथाशास्त्र करना योग्य है । शयनी, प्रबोधिनी, पवित्रा इत्यादि एकादशी, इसके साथ ही कटिनी, निराजनी, वसंतदमनका रोपणी इत्यादि जयंती के विविध पर्वकाल में नाना प्रकार की पूजा करें । आरती एवं दीपमाला प्रज्वलित करें । मंजीरे एवं मृदंग बजाकर बडा उत्सव करें । बडे उत्साह से शोभायात्रा, पताका, ध्वज इत्यादि सहित नाम का घोष करते हुए पांडुरंग की दर्शनयात्रा के लिए जाएं; कारण इस देवता की यात्रा के लिए जो जाता है, वह मानो भगवान को ही अपने घर ले आता है एवं अपनी प्रिय मूर्ति की प्रतिष्ठापना करता है ।’(साभार : सार्थ श्री एकनाथी भागवत, अध्याय ११, ओवी १२६६ से १२८२)

५ इ. एकनाथ महाराजजी कहते हैं, ‘भागवत के ग्यारहवें स्कंध के ग्यारहवें अध्याय में भगवान के ग्यारह पूजास्थान बताए हैं । सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गाय, वैष्णव, आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, अपनी आत्मा एवं सर्व प्राणिमात्र ऐसे ग्यारह पूजास्थान हैं ।’ (साभार : सार्थ श्री एकनाथी भागवत, अध्याय ११, ओवी १३२८)

 

६. एकादशी में ग्यारह (११) इस अंक का वर्णन

६ अ. ‘अकरावें पूजास्थान की, अर्थात सभी भूतों की पूजा करें’, ऐसा संत एकनाथ ने कहा है । प्रथम १ यह ‘पूज्य’ (भगवंत, परमात्मा) एवं दूसरा १ यह ‘पूजक (आत्मा) है’ पूज्य एवं पूजक दोनों के पास ‘एक ही (१)’ है, अर्थात ऐक्य (एकरूप) हो गया । ११ आकडा १० इंद्रिय एवं १ मन मिलकर देह के भान का प्रतीक है । वह भान सर्व प्राणिमात्र में है; इसीलिए उससे सभी भूतों की पूजा होती है । जो स्वयं के सर्व भोग भगवान को अर्पण करने की भावना रखता है, वही आत्मतत्त्व जानता है । वही सर्वत्र समत्व से है ।’ (साभार : सार्थ श्री एकनाथी भागवत, अध्याय ११, ओवी १४४७ से १४४९)

६ आ. ‘हे यदुश्रेष्ठ उद्धव, सर्व भूतमात्रों की समत्वभाव से पूजा करना, यह मेरी ही पूजा है । उस पूजा से मेरा भक्त अत्यंत प्रेम से मग्न हो जाता है । यह ग्यारह भी पूजा समत्वरूप ही है ।’ (साभार : सार्थ श्री एकनाथी भागवत, अध्याय ११, ओवी १४५५)

६ इ. दस इंद्रियां एवं एक मन संपूर्णरूप से पांडुरंग को अर्पण करना अर्थात ‘एकादशी’ । आषाढी एकादशी एवं कार्तिक एकादशी, इन तिथियों को पंढरपुर की यात्रा होती है । पांडुरंग के दर्शन के लिए वारकरियों को एकादशी करनी है (एक + दस) अर्थात एक मन एवं दस इंद्रियां संपूर्णतः पांडुरंग को अर्पण करना है । इस आकर्षण से ही वह वारकरी इस निश्चित वार को पांडुरंग के पास जाने के लिए निकलता है; इसलिए वह ‘वारी’ एवं ऐसी भावनावश एवं पांडुरंग के प्रति प्रेम के कारण यह वारी नियमितरूप से प्रति वर्ष करनेवाला वह ‘वारकरी !’

संकलक : परात्पर गुरु परशराम माधव पांडे
संदर्भ : सनातनका ग्रंथ (मराठी भाषा में) ‘पंढरीचा पहिला वारकरी (पांडुरंग)’

७. विठ्ठल की उपासना भक्तिभाव से करने के लिए प्रेरित करनेवाला सनातन का ग्रंथ !

अ. पंढरी का प्रथम वारकरी (पांडुरंग)

  • भिमा नदी को चंद्रभागा क्यों संबोधित करते हैं ?
  • विठ्ठल की मूर्ति की महिमा क्या है ?
  • पांडुरंग ईंट पर खडा है, इसका भावार्थ क्या है ?
  • विठ्ठल के नीचे की ईंट का रहस्य क्या है ?
  • आदिशंकराचार्य ने पंढरपुर को ‘महायोग पीठ’ क्यों संबोधित किया है ?
  • पांडुरंग को संतों ने ‘कानडा’; कहकर क्यों पुकारा है ?

आ. लघुग्रंथ

श्री विठ्ठल (उपासनाशास्त्र एवं पंढरपुर की महिमा)
  • विठ्ठलपूजा में तुलसी एवं गोपीचंदन का महत्त्व क्या है ?
  • विठ्ठलोपासमना में मंजीरा-मृदुंग बजाने का क्या कारण है ?
  • विठ्ठलमूर्ति की ‘सूक्ष्म की विशेषताएं’ क्या हैं ?
  • आषाढी एकादशी एवं वारकरी के ‘सूक्ष्म-चित्र’
  • विठ्ठलभक्तों, धर्मरक्षा करना, धर्मपालन ही है !

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