गुरुमंत्र का महत्त्व

गुरुमंत्र देवता का नाम, मंत्र, अंक अथवा शब्द होता है जो गुरु अपने शिष्य को जप करने हेतु देते हैं । गुरुमंत्र के फलस्वरूप शिष्य अपनी आध्यात्मिक उन्नति करता है और अंतत: मोक्ष प्राप्ति करता है । वैसे गुरुमंत्र में जिस देवता का नाम होता है, विशेष रूप से वही उस शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक होता है ।

गुरु मंत्रो मुखे यस्य, तस्य सिद्धि ना अन्यथा,
गुरु लाभात सर्व लाभों, गुरु हिन्स्तु बालिषा ॥

अर्थात – शिवजी कहते हैं पार्वती, जिनके मुख में गुरु मंत्र है, उनको आदि दैविक, आदि भौतिक एवं आध्यात्मिक सर्व लाभ होते हैं । जिनको गुरु दीक्षा मिलती है और माला पर गुरु दीक्षा का मंत्र जप करते हुए सत्कर्म करते हैं, उसका फल हजार गुना हो जाता है । गुरुमंत्र लिए हुए की दुर्गति नहीं होती ।

मूर्तिकार द्वारा निर्मित कोई भी प्रतिमा जबतक मंत्रों के माध्यम से अभिमंत्रित नहीं हो जाती है तबतक वह केवल प्रतिमा ही रहती है । मंत्रों सहित प्राणप्रतिष्ठा के बाद ही वो साक्षात ईश्‍वर के रूप में प्रतिष्ठित और पूजित होती है । ठीक इसी प्रकार गुरु से गुरुमंत्र तथा दीक्षा पाकर हम सत्कर्म पथ पर चलने की योग्यता प्राप्त करते हैं । गुरुमंत्र का महत्त्व हमें समझकर लेना चाहिए । अधिकतर गुरु यही बताते हैं कि शिष्य को कौन-सा नामजप करना चाहिए ।

 

अपने मनोवांछित देवता का जप करने की तुलना में
गुरु के दिए नाम का ही जप करना चाहिए । इसका कारण क्या है ?

१. अपनी प्रगति हेतु कौन-सा नाम लें, यह हमें ज्ञात नहीं होता; गुरु ही वह बताने में सक्षम हैं ।

२. अपने मनोवांछित देवता का नाम लेने से केवल सात्त्विकता बढने में सहायता मिलती है; परंतु गुरुमंत्र द्वारा निर्गुण तक पहुंचा जा सकता है अर्थात त्रिगुणातीत हो सकते हैं तथा अध्यात्म में आगे की प्रगति होती है ।

३. गुरुमंत्र में केवल अक्षर ही नहीं; अपितु ज्ञान, चैतन्य एवं आशीर्वाद भी होते हैं, इसलिए प्रगति शीघ्र होती है । उस चैतन्ययुक्त नाम को सबीजमंत्र अथवा दिव्यमंत्र कहते हैं । उस बीज से फलप्राप्ति हेतु ही साधना करनी आवश्यक है ।

४. गुरु पर श्रद्धा होने के कारण स्वयं अपने द्वारा निर्धारित मंत्र की तुलना में वह अधिक श्रद्धापूर्वक लिया जाता है । उसी प्रकार, गुरु का स्मरण होने के साथ ही नाम जपने का स्मरण होता है, जिससे वह अधिक लिया जाता है ।

५. अपने मनोवांछित देवता का नाम जपने में अल्पाधिक अहं रहता ही है । इसके विपरीत गुरु का दिया नाम जपते समय अहं नहीं रहता ।

इन कारणों से हमारे मनोवांछित जप के स्थान पर हमें गुरुमंत्र का जप करना चाहिए; परंतु गुरु जीवन में नहीं आए हों, तो जिस कुल में हमारा जन्म हुआ, हमें उस कुल की कुलदेवी / कुलदेवता का नामजप करना चाहिए । गुरुद्वारा गुरुमंत्र मिलने के उपरांत भी उस व्यक्ति को गुरुमंत्र जप के साथ आध्यात्मिक प्रगति के लिए सत्सेवा, त्याग तथा सभी से निरपेक्ष प्रेम (प्रीति) करना चाहिए ।

 

गुरुमंत्र में वही भगवान का नाम होता है, तो उसे गुरुमंत्र क्यों कहा जाता है ?

गुरुमंत्र में शब्दों की तुलना में मंत्र देनेवाले संत का आध्यात्मिक अधिकार तथा शिष्य के लिए संकल्प का अधिक महत्त्व होता है । इसके संदर्भ में एक कथा है  –

एक राजा अपने राज्य से दूर एक महात्मा की कीर्ति सुनकर उनके दर्शन के लिए गए और हमेशा प्रसन्न रहने के लिए उन्होंने महात्माजी से गुरुमंत्र देने की प्रार्थना की । महात्मा ने राजा को ‘राम’ का नाम जपने को कहा । महात्मा की बात सुनकर राजा ने कहा, ‘महात्मा जी, मैं इतनी दूर से आपसे मिलने इसलिए नहीं आया कि आप ‘राम’ का जप करने की बात कर मुझे टाल दें । यह काम तो मैं करता ही आया हूं । मुझे कोई असली गुरुमंत्र दीजिए ।’ राजा की शिकायत सुन महात्मा ने मुस्कराकर कहा, ‘असली गुरुमंत्र देने मुझे आपके दरबार में आना पडेगा ।’

कुछ दिनों बाद महात्मा राजा के दरबार पहुंच गए । राजा बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने महात्मा का बहुत आदर-सत्कार किया और महात्मा के लिए अपना सिंहासन छोड दिया । सिंहासन पर बैठते ही महात्मा ने सैनिकों को राजा को बंदी बनाने का आदेश दिया, परंतु सिपाही चुपचाप खडे रहे । महात्मा ने दोबारा आदेश दिया – ‘मैं राजसिंहासन से आदेश देता हूं कि राजा को बंदी बनाकर कारावास में डाल दो ।’

तब भी कोई सिपाही आगे न बढा । अब तक राजा को गुस्सा आ चुका था । उन्होंने नीचे खडे होकर ही आदेश दिया – ‘सिपाहियो, इस महात्मा को कैद कर लो ।’ राजा का कहना था कि सिपाही जंजीर लेकर महात्मा की ओर बढने लगे । तब महात्मा मुस्कराते हुए सिंहासन से नीचे उतर आए । उन्होंने राजा को पास बुलाकर कहा, ‘राजन, तुम्हे विशेष गुरुमंत्र चाहिए था, तो मैंने तुम्हें विशेष गुरुमंत्र देने के लिए ही यह किया । आपने देख लिया कि जो शब्द मैंने कहे, वही शब्द आपने भी कहे; परंतु जहां मेरे शब्दों का सिपाहियों पर कोई प्रभाव नहीं पडा, आपके आदेश का उन्होंने तुरंत पालन किया, क्योंकि आपके शब्दों को राजसत्ता का अधिकार प्राप्त है । राजन, शक्ति शब्दों में नहीं होती, शब्दों के उच्चारण करनेवाले में, उसके पीछे संकल्प करनेवाले में होती है । मंत्र के शब्दों का प्रभाव गुरु की संकल्पशक्ति से बढ जाता है । इस कारण ‘राम’ का जप करने से ही आपको मनोवांछित फल प्राप्त होगा ।

 

 क्या एकबार गुरुमंत्र लेने के पश्‍चात शिष्य की
प्रगति होती है या तब भी उसे प्रयास जारी ही रखने पडते हैं ?

गुरुप्राप्ति और गुरुमंत्र मिलते ही गुरुकृपा आरंभ होती है । अनेक लोग गुरुमंत्र मिलने के पश्‍चात न वह मंत्र ठीक से करते हैं और न गुरु की कृपा प्राप्त करने का प्रयास करते हैं । वे तो इसी भ्रम में रहते हैं कि गुरु देख लेंगे; परंतु जीवन उद्धार का ध्येय रखनेवाले प्रत्येक शिष्य को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसे अखंड बनाए रखने के लिए गुरु द्वारा बताई गई साधना जीवनभर निरंतर करते रहना अनिवार्य है ।

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