गर्भाधान (ऋतुशान्ति) संस्कार (प्रथम संस्कार)

१. महत्त्व

इस संस्कार में विशिष्ट मंत्र एवं होमहवन से देह की शुद्धि कर, अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टिकोण एवं आरोग्य की दृष्टि से समागम करना चाहिए, यह मंत्रों द्वारा सिखाया जाता है । इस कारण सुप्रजा-जनन, कामशक्ति के उचित प्रयोग, कामवासना पर नियंत्रण, रजोदर्शन की अवस्था में समागम न करने से लेकर समागम के समय विविध आसन एवं उच्च आनंदप्राप्ति के विषय में मार्गदर्शन किया जाता है ।

सुप्रजा सिद्धांतानुसार उचित गर्भधारणा की दृष्टि से गर्भधारणा के पूर्व पिंडशुद्धि होना आवश्यक है । कारण, अच्छी बीजशक्ति के कारण ही अच्छी संतति की उत्पत्ति होती है । संत तुकाराम महाराज कहते हैं, शुद्ध बीज के अंतर में, रसीला फल होता है ।

स्त्री ही राष्ट्र की जननी है । वह इस विषय में अधिक जागृत रहे, इस हेतु गर्भाधान संस्कार है ।

– परात्पर गुरु पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

प्रश्‍न : गर्भाधानसंस्कार न करने से क्या रतिसुख प्राप्त नहीं होगा अथवा संतति नहीं होगी ?

उत्तर : संतति होगी; परंतु वह अत्यंत हीन, रुग्ण एवं निकृष्ट होगी ।

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

 

२. मुहूर्त

यह संस्कार विवाह के पश्‍चात प्रथम रजोदर्शन के समय से लेकर (माहवारी के प्रथम दिन से) प्रथम सोलह रात्रि में (ऋतुकाल में) करते हैं । उनमें प्रथम चार, ग्यारहवीं तथा तेरहवीं रात छोडकर शेष दस रातें इस संस्कार के लिए उचित समझी जाती हैं । अनेक बार इसमें चौथे दिन का भी समावेश करने के लिए कहा जाता है । ऐसा कहते हैं कि जिसे पुत्र की कामना है उसे (४-६-८-१०-१२-१४-१६ इन) सम दिनों में और कन्या की कामना करनेवाले को (५-७-९-१५) विषम रात्रि में स्त्री संभोग करना चाहिए । गर्भाधान संस्कार के लिए चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या एवं पूर्णिमा की तिथियां वर्ज्य करनी चाहिए ।

प्रकृति के प्रत्येक पक्ष में कालानुसार परिवर्तन होते रहते हैं । मात्र ब्रह्म स्थिर होता है । इस नियमानुसार स्त्रीबीज फलित होना, पुत्र अथवा कन्या होना इत्यादि बातें भी कालानुसार परिवर्तित होती रहती हैं । इस नियमानुसार निश्‍चित किया गया है कि कौन सी तिथि, दिन एवं नक्षत्र, पुत्र अथवा कन्या होने हेतु पूरक होते हैं ।

 

३. विधि

१. अश्‍वगंधा अथवा दूर्वा रससेवन
२. प्रजापतिपूजन
३. गोदभराई
४. संभोगविधि

गर्भाधानसंस्कार प्रत्येक गर्भधारणा में पुनः करने की आवश्यकता नहीं होती ।

अशुभ काल में यदि रजोदर्शन हो, तो गर्भाधान से पूर्व करने योग्य शांति : रजोदर्शन यदि अशुभ काल में हो, तो वह बडा दोष होता है । इस दोषनिवारण हेतु ऋतुशांति नामक विधि करना पडती है । (इस विधि को भुवनेश्‍वरी शांति कहते हैं ।)

‘इस संस्कार मेें दंपति के घर में तेजस्वी संतति का जन्म हो, यह उद्देश्य है । इस दृष्टि से संयमित जीवन, सात्त्विक आहार एवं भोगविमुक्त विचार आदि सूत्रों की जानकारी दी गई है । इस संस्कार में विशिष्ट मंत्र एवं होम-हवन के द्वारा देह की शुद्धि कर उससे अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टिकोण तथा आरोग्य की दृष्टि से गर्भधारण कैसा हो, यह मंत्रों द्वारा सिखाया जाता है ।

इस संस्कार का उद्देश्य महत्त्वपूर्ण है । उत्तम प्रजा की उत्पत्ति हो । सुप्रजा सिद्धांतानुसार उचित गर्भधारण की दृष्टि से गर्भधारण के पूर्व पिंडशुद्धि हो । उदा. संत तुकाराम महाराज कहते हैं, ‘शुद्ध बीज के अंतर में रसीला फल होता है । ऐसा क्यों ? क्योंकि स्त्री ही राष्ट्र की जननी है । इस विषय में वह अधिक जागृत रहे, इस हेतु गर्भाधान संस्कार है । शारीरिक एवं मानसिक कष्टों में से कुल मिलाकर २ प्रतिशत कष्ट बीजगर्भदोषोें के कारण होते हैं । उनमें से आधे कष्ट शारीरिक एवं आधे मानसिक होते हैं । बीज एवं गर्भ से संबंधित दोष नष्ट कर गर्भाशय शुद्ध किया जाता है ।

* गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी को किसी ने गर्भाधान के विषय में प्रश्‍न पूछा था । उनका उत्तर बहुत सटीक था । उन्होंने कहा, कि गर्भाधानसंस्कार नहीं किया तो संतति होगी; परंतु वह अत्यंत हीन, रुग्ण एवं निकृष्ट होगी । इससे हमें गर्भाधान संस्कार का महत्त्व ध्यान में आता है ।

संदर्भ : सनातन – निर्मित ग्रंथ सोलह संस्कार

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