क्या गुरु द्वारा बताई साधना करना ही आवश्यक है ?

सद्गुरु के संदर्भ में मन में संदेह उत्पन्न हो, तो क्या करना चाहिए ?

मन का कार्य ही है विचार करना । इस कारण मन में सदैव संकल्प और विकल्प आते रहते हैं । इस कारण जब तक साधना करके मनोलय की स्थिति नहीं आती, तब तक मन में संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है । स्वयं वसिष्ठ मुनि के विषय में एक बार राजा दशरथ के मन में संदेह उत्पन्न हुआ कि उन पर भूत तो नहीं चढ गया ? उस समय उन्होंने अपनी साधना बढाकर उस विकल्प को नष्ट कर दिया ।

 

गुरु की बताई साधना जारी हो और कोई संत हमें
अन्य साधना बताएं, तो वह करनी चाहिए अथवा नहीं ?

गुरु केवल देहधारी शरीर न होते हुए वे एक गुरुतत्त्व से जुडे होते है । इस कारण किसी भी खरे गुरु को हमें देखने से ही हमारी साधना के संदर्भ में पता चल जाता है । यदि हमारी साधना उचित ढंग से जारी हो, तो खरे संत कुछ बोलते नहीं है । और यदि हमे अनुभूति हो कि अपने गुरु ही संतों के मुख से बोल रहे हैं, तो उस संत द्वारा बताई साधना अवश्य करनी चाहिए ।

 

क्या गुरु द्वारा बताई साधना करना ही आवश्यक है ?

एक गुरु ने अपनी एक शिष्या से श्री दत्त की उपासना करने के लिए कहा । बताई गई साधना करने पर उसे कष्ट होने लगा । पश्‍चात एक दूसरे एक संत ने उससे देवी की उपासना करने के लिए कहा । वह उपासना करने पर उसे कोई कष्ट न हुआ, उल्टे लाभ ही हुआ । यहां पर ध्यान में रखने योग्य सूत्र यह है कि किसी पर अनिष्ट शक्ति का प्रभाव हो, तो गुरु की बताई साधना करने से आरंभ में कष्ट हो सकता है; परंतु ऐसे में वही साधना जारी रखने से कष्ट दूर हो सकता है । ऐसी स्थिति में गुरु द्वारा बताई साधना छोडकर अन्य साधना नहीं करनी चाहिए,अपितु कष्ट के संदर्भ में गुरु को बताना चाहिए ।

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