गुरुकृपायोग के अनुसार साधना

जीवनमें आनेवाले दुःखोंका धैर्यपूर्वक सामना करनेकी शक्ति एवं सर्वोच्च स्तरका निरंतर बना रहनेवाला आनंद केवल साधनासे ही प्राप्त होता है । साधना अर्थात् ईश्वरप्राप्ति हेतु किए जानेवाले प्रयास । ‘साधनानाम् अनेकता’ अर्थात् साधना अनेक प्रकारकी होती है । निश्चितरूपसे कौनसी साधना करनी चाहिए, इस संदर्भमें अनेक लोगोंके मनमें भ्रम उत्पन्न होता है । उसपर भी प्रत्येक पंथ एवं संप्रदाय कहता है कि, हमारी ही साधना सर्वश्रेष्ठ है । इससे उनका भ्रम और भी बढ जाता है । ऐसी स्थितिमें निश्चितरूपसे साधना कौनसे मार्गसे करनी चाहिए ?

कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि किसी भी मार्गसे साधना करनेपर भी बिना गुरुकृपाके व्यक्तिको ईश्वरप्राप्ति होना असंभव है । इसीलिए कहा जाता है, ‘गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममङ्गलम् ।’, अर्थात् ‘शिष्यका परममंगल अर्थात् मोक्षप्राप्ति, उसे केवल गुरुकृपासे ही हो सकती है ।’ गुरुकृपाके माध्यमसे ईश्वरप्राप्तिकी दिशामें मार्गक्रमण होनेको ही ‘गुरुकृपायोग’ कहते हैं । ‘गुरुकृपायोग’की विशेषता यह है कि, यह सभी साधनामार्गों को समाहित करनेवाला ईश्वरप्राप्तिका सरल मार्ग है ।

गुरुकृपायोग साधना मार्ग के अंग

१. व्यष्टि साधना (व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति हेतु आवश्यक प्रयत्न)

व्यष्टि साधनाके आठ अंग

१. स्वभावदोष-निर्मूलन एवं गुण-संवर्धन हेतु प्रयत्न करना ।,

२. अहं-निर्मूलन हेतु प्रयत्न करना ।

३. नामजप,

४. भावजागृतिके लिए प्रयास करना,

५. सत्संग,

६. सत्सेवा,

७. सत्‌ हेतु त्याग एवं

८. प्रीति (अन्योंके प्रति निरपेक्ष प्रेम)

 व्यष्टि साधनाके (अष्टांग साधनाके) चरणोंका मानदण्ड साधककी गुणवत्ता पर निर्भर होना

अ १. मानदण्ड १ :

साधकमें अधिक स्वभावदोष और अहं होना : ऐसे साधकको अष्टांग साधनाके आगे दिए हुए चरणोंके अनुसार प्रयत्न करने चाहिए –

१. स्वभावदोष-निर्मूलन एवं गुण-संवर्धन हेतु प्रयत्न करना ।,

२. अहं-निर्मूलन हेतु प्रयत्न करना ।

३. नामजप,

४. भावजागृतिके लिए प्रयास करना,

५. सत्संग,

६. सत्सेवा,

७. सत्‌ हेतु त्याग एवं

८. प्रीति (अन्योंके प्रति निरपेक्ष प्रेम)

अ २. मानदण्ड २ :

साधकमें भक्तिभाव होना : जिस साधककी वृत्ति भक्तिप्रधान होती है, उस साधकको अष्टांग साधनाके आगे दिए हुए चरणोंके अनुसार प्रयत्न करने चाहिए –

१. नामजप,

२. अगले चरणका भक्तिभाव जागृत करनेके लिए किए जानेवाले प्रयत्न,

३. सत्संग,

४. सत्सेवा,

५. स्वभावदोष-निर्मूलन एवं गुण-संवर्धन हेतु प्रयत्न करना

६. अहं-निर्मूलन,

७. सत्‌ हेतु त्याग तथा

८. प्रीति (अन्योंके प्रति निरपेक्ष प्रेम)

२. समष्टी साधना

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१. स्वभावदोष-निर्मूलन

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२. अहं निर्मूलन

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३. नामजप

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४. भावजागृति

५. सत्संग

६. सत्सेवा

७. त्याग

८. प्रीति

गुरुकृपायोग के संदर्भ में लेख

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