गुरुसेवा कैसे करनी चाहिए ?

१. मात्र चाकर अथवा दूत समान नहीं

गुरु द्वारा कोई सेवा बताई जाने पर वह करना, यह मात्र चाकर (नौकर) अथवा दूत समान हुआ; परंतु गुरु को जो अभिप्रेत है (अर्थात ‘श्री’ गुरु की इच्छा जानकर), वह करना सद्शिष्य का लक्षण है ।

‘पैलमुनि के पुत्र ‘वेदधर्म’ एक विप्र थे । उनके अनेक शिष्य थे । वे वेदशास्त्रों का अभ्यास करते थे । शिष्यों में ‘दीपक’ नामक एक प्रसिद्ध शिष्य थे । एक दिन वेदधर्म ने अपने सर्व शिष्यों को एकत्रित कर कहा, ‘शिष्यो, सुनो । पूर्वजन्म में किया हुआ मेरा एक कर्म है । सहस्रावधि जन्मों में मैंने महापाप किए हैं । अधिकांश पाप अनुष्ठान से धो दिए हैं; परंतु कुछ रह गए हैं । वे भोगे बिना समाप्त नहीं होंगे । अपने सामर्थ्य से उन पापों की उपेक्षा करूं, तो वे मेरे मोक्ष के आडे आएंगे; इसलिए उन घोर पापों का किसी भी प्रकार से निराकरण करना होगा । मैं भलीभांति जानता हूं, ‘स्वयं के कर्मों को अपनी ही देह से भोगे बिना उनका निराकरण नहीं होगा ।’ यह निश्‍चित है, इसलिए मैं उनका फल भोगने के लिए तैयार हूं । पापों का क्षालन करने के लिए मैं काशी जा रहा हूं । ‘काशी जाने से पाप शीघ्र नष्ट होते हैं’, ऐसा सभी शास्त्रों में कहा गया है । इसलिए तुम मुझे काशी ले चलो। पापों का फल अपनी देह से भोगूंगा, उस समय तुम मेरी देखभाल करना । दीपक ने गुरु से कहा, ‘‘स्वामी आज्ञा करें । मैं सर्वशक्ति से आपकी सेवा करूंगा ।’’ दीपक के वचन सुनकर वेदधर्म बोले, ‘‘उन पापों के कारण मेरा सम्पूर्ण शरीर कुष्ठ से भर जाएगा, मैं लंगडा अंधा-लूला हो जाऊंगा । २१ वर्ष मेरी बहुत देखभाल करनी होगी । यदि तुम्हारा निश्‍चय दृढ है, तो ही यह काम अपने ऊपर लो ।’’ दीपक बोला, ‘‘गुरुदेव, मैं ही २१ वर्ष कुष्ठ बनूंगा, अंधा होकर बडे आनंद से आपके भोग भोगकर पापों का क्षालन करूंगा । मैं आपके पापों का प्रक्षालन करूंगा । स्वामी आज्ञा दें ।’’ ऐसा बोलकर दीपक ने गुरु के चरण स्पर्श किए । दीपक के वचन सुनकर वेदधर्ममुनि संतुष्ट हुए । उन्होंने पापों के लक्षण दीपक को विस्तृत रूप से समझाए और कहा, ‘‘अपने पाप स्वयं ही भोगने पडते हैं, वह बेटा या शिष्य अपने ऊपर नहीं ले सकता । अपनी ही देह से भोगे बिना वे नष्ट नहीं होते, इसलिए अपने पापों को स्वयं ही भोगूंगा । तुम २१ वर्ष मेरी देह की देखभाल करना । तुम बस इतना ही करना । अरे, रोगी की पीडा से कहीं अधिक पीडा उनकी देखभाल करनेवालों को होती है । इसलिए मैं अपनी देह से पाप भोगूंगा, तुम मुझे काशी ले चलो । मैं पापरहित हो जाऊंगा । हे शिष्योत्तम, तुम्हारे कारण मैं शाश्‍वत पदतक पहुंच पाऊंगा ।’’ दीपक ने गुरु से कहा, ‘‘मैं आपको काशी अवश्य ले जाऊंगा । वहां २१ वर्ष आपकी देखभाल करूंगा । आप मुझे साक्षात विश्‍वनाथ समान पूजनीय हैं ।’’

काशी में मणिकर्णिका घाट के उत्तर में कंबलाश्‍वतर तीर्थ के पास गुरु-शिष्य ने निवास किया । मणिकर्णिका में स्नान कर वे दोनों विश्‍वनाथ की पूजा करते थे । वेदधर्म का सम्पूर्ण शरीर कुष्ठरोग से भर गया; उनकी दृष्टि भी चली गई । उन्हें आत्यंतिक यातनाएं होती थीं । दीपक उनकी सेवा भक्तिभाव से करता था । गुरु के कुष्ठरोग के घावों से पीप, कीट पडते एवं खून बहता था । साथ ही उन्हें मिरगी के झटके भी पडने लगे । गुरु को विश्‍वनाथ का रूप मानकर दीपक प्रतिदिन भिक्षा मांगकर लाता एवं भक्तिभाव तथा एकनिष्ठ हो उनकी सेवा करता था । जिन्हें रोग की पीडा होती है, वे लोग साधु हों तो भी क्रूर एवं चिडचिडे बन जाते हैं । उसी प्रकार वेदधर्म भी व्याधिग्रस्त होने के कारण चिडचिडे बन गए थे । दीपक एक बार भिक्षा मांगकर लाया, तो गुरु क्रोधित होकर बोले, ‘‘भिक्षा अल्प लाए !’’ ऐसा बोलकर चिढते हुए भिक्षान्न भूमि पर फेंक दिया; अन्न ग्रहण ही नहीं किया । दूसरे दिन शिष्य बहुत भिक्षान्न लेकर आया तो चिढकर बोले, ‘‘पकवान क्यों नहीं लाए ?’’, कभी-कभी कहते, ‘‘अरे ! तुम अनेक प्रकार के पकवान क्यों नहीं लाते ? मुझे अनेक प्रकार की तरकारियां लाकर दो’’, ऐसा कहकर शिष्य को मारने चले । शिष्य वे सभी पदार्थ लेकर आया; परंतु गुरु ने सर्व व्यर्थ कर दिया और ऊपर से अपशब्द भी कहे । बीच में ही एकाध बार शिष्य को कहते, ‘‘बाबा! तुम ज्ञानी हो । सर्व शिष्यों में तुम चूडामणि जैसे श्रेष्ठ हो । तुम मेरे लिए कितने कष्ट सहते हो !’’ तुरंत यह भी कहते, ‘‘अरे पापी ! मेरा पीप, मांस, विष्ठा, मूत्र बारंबार धोने चाहिए, तुम क्यों नहीं धोते ? अरे, इन मक्खियों को देखो कैसे काट रही हैं ! इन्हें तुम हटाते क्यों नहीं ?’’ जब वह सेवा करने लगता, तो गुरु कहते, ‘‘भिक्षा मांगने क्यों नहीं जाते ?’’ पाप का प्रभाव ही ऐसा होता है कि मनुष्य अपशब्द बोलने लग जाता है।

काशी जैसे तीर्थक्षेत्र में होते हुए भी वह कभी तीर्थयात्रा हेतु नहीं गया । गुरुसेवा छोडकर और कोई तीर्थयात्रा उसे नहीं भाती थी ।

उसके लिए गुरु ही शरीरधारी ब्रह्म हैं, ऐसा मानकर वह गुरु की शरण गया । उसे तीर्थयात्रा, देवदर्शन अथवा स्वयं के उदरनिर्वाह की भी चिंता नहीं रही; वह इतना अनन्य हुआ ।

ऐसी गुरुसेवा से शंकर भगवान दीपक पर प्रसन्न हुए तथा उन्होंने उसे वर मांगने के लिए कहा । दीपक ने भगवान से कहा, ‘‘हे मृत्युंजय, व्योमकेश, मैं अपने गुरु को पूछे बिना वरदान नहीं लेता ।’’ दीपक गुरु के पास गया और नम्रता से बोला, ‘‘आप पर प्रसन्न होकर विश्‍वनाथ स्वयं सम्मुख आए हैं । स्वामी की आज्ञा हो, तो आपकी ‘व्याधि ठीक हो जाए’, ऐसा वर मांगूं ।’ सदाशिव वर दें, तो आप ठीक हो सकते हैं।’’ शिष्य की बात सुनकर गुरु क्रोधित होकर बोले, ‘‘नहीं ! मेरी व्याधि के निमित्त ईश्‍वर को कष्ट मत दो । ‘पातक भोगे बिना उसका निराकरण नहीं होगा, वह दूसरे जन्म में भी बाधक होगा’; ऐसा शास्त्रवचन है । जिसे मोक्ष की अपेक्षा हो, उसे पापरूपी नदी पार करनी पडेगी । वह थोडी बहुत बच जाए, तो मोक्षप्राप्ति में अडचन बन सकती है।’’ शिष्य शंकरजी के पास लौट आया और बोला ‘‘हमें वर नहीं चाहिए । गुरु की इच्छा नहीं है, मैं वर कैसे लूं?’’ शंकरजी को बडा आश्‍चर्य हुआ एवं वे निवार्ण-मंडपक्षेत्र में गए । वहां उन्होंने सभी देवताओं को बुलवाकर श्रीविष्णु के समक्ष यह वृत्तांत सुनाया । वृत्तांत सुनकर श्रीविष्णु ने कहा, ‘‘ये गुरु-शिष्य हैं भी तो कैसे ? उनका निवास कहां है । मुझे स्पष्ट करें।’’ शंकरजी ने कहा ‘‘अनेक दिव्य महर्षि सहस्रों वर्ष तप करते हैं । नाना प्रकार के कष्ट सहन करते हैं; परंतु सदैव वर तो मांगते ही हैं । आग्रहपूर्वक वर दें तो वह दीपक स्वीकार भी नहीं करेगा । उसका मैं कितना वर्णन करूं ? अविद्या का अंधकार दूर करनेवाला वह वास्तविक ‘कुलदीपक’ ही है ।’’ यह सुनकर विष्णु उस गुरु-शिष्य की जोडी को देखने गए । गुरुभक्ति की प्रगाढता उन्होंने देखी । विश्‍वनाथ ने जैसा वर्णन किया था, उससे भी अधिक भक्ति उन्होंने वहां पाई । वे संतुष्ट होकर बोले, ‘‘दीपक मैं तुम्हारी भक्तिसे संतुष्ट हुआ हूं, तुम वर मांगो ।’’ दीपक ने उत्तर दिया, ‘‘भगवान ! ऐसा कौन सा कार्य देखा है, कैसी भक्ति देखकर आप वर दे रहे हैं ? करोडों वर्ष अरण्य में रहकर लोग तप करते हैं, उनसे आप उदासीन रहते हैं, उन्हें वर नहीं देते । मैं तो आपकी भक्ति नहीं करता, न ही आपका नामजप करता हूं, तो आप मुझे वर क्यों दे रहे हैं ?’ दीपक के वचन सुनकर महाविष्णु प्रसन्न हुए तथा उसे विस्तारपूर्वक कहने लगे, ‘‘तुम प्राणपन से गुरु सेवा कर रहे हो; इसीलिए मैं प्रसन्न हूं । तुमने जो गुरुभक्ति की है वह मुझे ही प्राप्त हुई है । जो मनुष्य गुरुभक्त होगा, वह मुझे प्राणरूप ही है । मैं उसके वश में हूं। वह जो भी मांगेगा मैं वह प्रदान करता हूं । जो माता-पिता की सेवा करते हैं, वह सेवा मुझे ही प्राप्त होती है । जो स्त्रियां पति की सेवा करती हैं, वह भी मुझे ही प्राप्त होती है । किसी सज्जन ब्राह्मण, यति, योगी, तपस्वी को लोग नमस्कार करते हैं, वह भी मुझे ही प्राप्त होता है ।’’

यह सुनकर दीपक अत्यधिक नम्रता से विष्णु से बोला, ‘‘हे हृषिकेश, सुनो ! मेरे मन का निश्‍चय इस प्रकार है कि वेद, शास्त्र, मीमांसा सबकुछ मेरे गुरु ही मुझे देनेवाले हैं । सर्व ज्ञान गुरु से ही प्राप्त होना है । त्रयी, अर्थात ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश गुरु के कारण ही वश में होते हैं । इसलिए गुरु ही हमारे देवता हैं । गुरु ही मेरे लिए सर्व देवता, सर्व तीर्थ, गुरु ही सत्य हैं । इसके अतिरिक्त दूसरा कौन सा परमार्थ मैं करूं, आप ही बताएं । सर्व योगी एवं सिद्ध पुरुषों को गुरु के बिना किसी अन्य से ज्ञान प्राप्त नहीं होता और ज्ञान हो जाए, तो ईश्‍वर दूर कैसे रहेंगे ? जो वर मुझे आप देंगे, वही वर मुझे गुरु भी देंगे; तब आपके वर में ऐसा क्या है ? इसीलिए मैं श्री गुरुराज की भक्ति करता हूं ।’’

यह सुनकर विष्णु सन्तुष्ट हुए और बोले, ‘‘तुम कुछ तो मांगो, मैं देने के लिए सिद्ध हूं । तुम्हारे मन में जो है, मांगो । मैं तुम्हारे वश में हूं, तुम जो चाहोगे मैं तुम्हें दूंगा।’’ दीपक ने कहा, ‘‘यदि वर देना चाहते हैं, तो ऐसा करें जिससे ‘मेरे मन में अधिक गुरुभक्ति ही जागृत हो’ तथा मुझे अधिक ज्ञान दे दीजिए । मैं निज रूप में गुरु को पहचान सकूं, ऐसा ज्ञान मुझे दें । मुझे इससे अधिक और कुछ नहीं चाहिए ।’’ इतना बोलकर दीपक विष्णुजी के चरणों में लीन हो गया । विष्णु प्रसन्न होकर बोले, ‘‘मैंने तुम्हें यह वर दिया । तुम मेरे प्राणसखा हो । तुमने गुरु को पहचाना है । गुरु में ही तुम्हें परब्रह्म का साक्षात्कार हुआ है । तुममें जो कुछ लौकिक सुबुद्धि होगी तथा धर्म एवं अधर्म के विवेक से जो विवेक बुद्धि दृढ हुई होगी, उसकी सहायता से तुम अति उत्कृष्ट वाणी से श्री गुरु की स्तुति करो । जब-जब तुम भक्ति से गुरु की स्तुति करोगे, उस समय मुझे समाधान मिलेगा; क्योंकि वह हमारी ही स्तुति होगी । जो लोग वेदपठन उसके प्रत्येक चरण सहित करते हैं, जो वेदांत सूत्रोंका एवं उसके भाष्य का नित्य पठन करते हैं, उनके द्वारा भक्तिभाव से किया गया पठन, वाचन मुझे ही प्राप्त होता है । ‘गुरु ही ब्रह्म हैं’, यही सिद्धांत वेदों में कहा गया है । इसलिए गुरुभक्ति करने पर सभी देवता तुम्हारे वश में होंगे ।’

यदा मम शिवस्यापि ब्रह्मणो ब्राह्मणस्य हि । 

अनुग्रहो भवेन्नॄणां सेव्यते सद्गुरुस्तदा ॥

– गुरुचरित्र, अध्याय २, श्‍लोक ६१

अर्थ : जब मेरी, भगवान शंकर अथवा ब्राह्मण की कृपा मनुष्य पर होती है, तब ही उसके द्वारा गुरुभक्ति संभव होती है । जो वर मैं स्वयं, ईश्‍वर अथवा ब्रह्मदेव देते हैं, उसकी फलप्राप्ति भी गुरु के कारण होती है, अतः गुरु ही त्रिमूर्ति हैं ।’’ ऐसा वर विष्णु ने दीपक को दिया, यह ब्रह्मदेव ने कलियुग से कहा । वर मिलने के पश्‍चात जब दीपक गुरु के पास गया, तो गुरु ने उससे पूछा, ‘‘हे शिष्य, कुलदीपक ! विनायक ने (विनायक विष्णु का एक नाम है) तुम्हें क्या दिया मुझे बताओ; ताकि मेरा मन स्थिर हो ।’’ दीपक ने कहा, ‘‘जब हृषिकेश ने मुझे वर दिया, तो मैंने कहा कि मेरी गुरुभक्ति दृढ हो, जिससे मैं शुद्ध अंतःकरण से दृढ भक्ति करूं । आपके चरणों में मेरी अनन्य दृढभक्ति रहेगी, उन्होंने ऐसा वर दिया ।’’ यह सुनकर गुरु सन्तुष्ट हुए, उन्होंने आशीर्वाद दिया, ‘दीर्घायु होकर तुम काशीपुरी में निवास करोगे । तुम्हें वाक्सिद्धि प्राप्त होगी तथा कुबेर की नवनिधि सदा तुम्हारे पास उपलब्ध होगी (नवनिधि अर्थात महापद्म, पद्म, मकर, शंख, कच्छप, मुकुंद, कुंद, नील एवं खर्व नामक कोष) और भगवान शंकर तुम पर नित्य प्रसन्न रहेंगे । तुम्हारा स्मरण जो करेगा, उसके कष्ट दूर होंगे तथा तुम्हारा स्मरण करते ही वे धनी होकर सुख से रहेंगे ।’’ इस प्रकार गुरु वेदधर्म शिष्य पर प्रसन्न हुए एवं उसी क्षण उनका शरीर दिव्य हुआ । शिष्य की वासना की परीक्षा लेने हेतु ही गुरु लीला से ‘कुष्ठ होकर कष्ट भोग रहा हूं’, ऐसा दिखा रहे थे । वे परम तपस्वी थे एवं पूर्ण पाप रहित थे । लोगों पर उपकार हेतु वे काशी गए थे । – श्री गुरुचरित्र, अध्याय २.

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ “शिष्य”

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