गुरु-शिष्य

‘गुरु-शिष्य परंपरा’ भारत की विशेषता है ! हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है गुरु-शिष्य परंपरा ! वर्तमान में अधिकांश लोगों का दैनिक जीवन भागदौड तथा समस्याओं से ग्रसित है । जीवन में मानसिक शांति एवं आनंद प्राप्त करने के लिए कौन-सी साधना निश्‍चित रूप से कैसे करें, इसका जो यथार्थ ज्ञान कराते हैं, वे हैं गुरु !

गुरु की आवश्यकता क्यों ? गुरु-शिष्य परंपरा क्या है ?

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्र्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्‍वरः ।
गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ३२ ॥

गुरु स्वयं ही ब्रह्मा, श्रीविष्णु तथा महेश्‍वर हैं । वे ही परब्रह्म हैं । ऐसे श्री गुरु को मैं नमस्कार करता हूं । शिष्य के जीवन में गुरु का महत्त्व अनन्यसाधारण है !

शिष्य कैसा होना चाहीए ?

आध्यात्मिक उन्नति हेतु जो गुरु द्वारा बताई साधना करता है, वास्तव में उसे ‘शिष्य’ कहते हैं । शिष्यत्व का महत्त्व यह है कि उसे देवऋण, ऋषिऋण, पितरऋण एवं समाजऋण चुकाने नहीं पडते ।

गुरु-शिष्य परंपरा : शंका – समाधान

अनुचित विचाराेंका खंडन !

यह वास्तविकता है कि गुरु आवश्यक हैं, परंतु कुछ लोग सोचते है की क्या विज्ञानयुग में गुरु आवश्यक हैं ?

जिनके भी मन में यह प्रश्‍न आता है, उनके लिए मेरे कुछ प्रश्‍न है । यदि विज्ञान ही जीवन निर्वाह के लिए समर्थ है, तो मनोकामना पूर्ण करनेवाले मंदिरों में भीड क्यों बढ रही है ? समाज इतना दुःखी क्यों है ? व्यक्ति, परिवार और समाज में इतना तनाव क्यों बढ रहा है ? क्या इसका कभी हमने विचार किया है ? निष्कर्ष के तौर पर जब हम इन प्रश्‍नों का उत्तर ढूंढेंगे, तब हमें हमारी असमर्थता ध्यान में आकर गुरू की आवश्यकता समझ में आएगी ।

सनातन संस्थाके आस्थाकेंद्र ‘प.पू. डॉ. जयंत आठवलेजी’ – द्रष्टा धर्मगुरु एवं राष्ट्रसंत !

सनातन संस्थाके आस्थाकेंद्र ‘प.पू. डॉ. जयंत आठवलेजी’
कलियुग में विशेषतापूर्ण तथा साधकों से सभी अंगों से बनानेवाली सनातन संस्था की एकमात्रद्वितीय गुरु-शिष्य परंपरा !’