हिन्दुओ, हिन्दू धर्म की अद्वितीय विशेषताएं समझ लें !

मुसलमान, ईसाई इत्यादि को अपने-अपने पंथों की विशेषताएं भली-भांति ज्ञात होती हैं और वे उनका वर्णन कर सकते हैं । परंतु अधिकांश हिन्दू, अपने हिन्दू धर्म के बारे में ५ मिनट भी नहीं बोल सकते । हिन्दुओ को यदि अपने धर्म की विशेषताएं पता नहीं हैं, तो उनमें धर्माभिमान भी निर्माण नहीं हो सकता है । धर्माभिमान न होने से धर्म की रक्षा करने के लिए हिन्दू तैयार नहीं होते । यह अज्ञान दूर करने के लिए हिन्दू धर्म में आगे दिए सिद्धांत ध्यान में रखें ।

 

१. अनेक देव

यद्यपि परमेश्‍वर एक है, तब भी प्रत्येक व्यक्ति में पंचमहाभूतों के घटक, त्रिगुणों का प्रमाण, संचित और प्रारब्ध कर्म, लिंगदेह के घटकों की मात्रा इत्यादि भिन्न होने से वह कौन-से देवी अथवा देवता की उपासना करने से परमेश्‍वर तक पहुंच सकता है, ये भिन्न-भिन्न हैं । इसलिए हिन्दू धर्म में अनेक देवता हैं । प्राणिमात्र में ही नहीं, अपितु निर्जीव बातों में भी परमेश्‍वर का अस्तित्व होने के कारण हिन्दू धर्म में देवी-देवताओं की संख्या ३३ करोड है । आवश्यक देवता की उपासना करने से साधक की उन्नति शीघ्र हो सकती है और यह केवल हिन्दू धर्म में ही साध्य हो सकता है ।

सदैव कहा जाता है कि तैंतीस कोटि (करोड) देवता होते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि प्रमुख देवता तैंतीस हैं और प्रत्येक देवता के एक कोट गण, दूत आदि हैं । ‘कोटि’ शब्द, ‘करोड’ शब्द का बहुवचन है । (‘कोट’ शब्द का अर्थ है, १ करोड और ‘कोटि’ शब्द का अर्थ है, अनेक करोड ।)

प्रमुख तैंतीस देवता इस प्रकार हैं –

अ. १२ आदित्य, ११ रुद्र, ८ वसु (आठ दिशाओं के स्वामी), १ इन्द्र तथा १ प्रजापति अथवा इन्द्र और प्रजापति के स्थान पर २ विश्वदेव । इस प्रकार, कुल ३३ देवता हुए । इन्द्र और प्रजापति के स्थान पर प्रजापति व षट्कार अथवा वाव्â और ईश्वर ये दो देवता भी तैंतीस करोड देवताओं में गिने जाते है ।

आ. ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश इन तीन प्रमुख देवताओं में से प्रत्येक के ११ करोड देवता होते हैं ।

इ. तैंतीस देवता निम्नलिखित रूपों में हैं – ७ पुरुषदेवता, ७ स्त्रीदेवता, ७ बालदेवता तथा ७ वाहनदेवता । शेष पांच देवता हैं – वायु, अग्नि, वरुण, इन्द्र तथा अर्यमा । इन पांच देवताओं को आकार नहीं होता, ये अमूर्तरूप में ही पूजे जाते हैं । इन्हें ‘अधिभूत देवता’ अथवा ‘अधिदेव’ कहा गया है ।

 

२. हिन्दू धर्म की ऋणकल्पना

प्रत्येक व्यक्ति पर चार ऋण होते हैं ।

१. देवऋण : हमें निर्माण करनेवाले ईश्‍वर का ऋण ।

२. ऋषिऋण : प्राचीन ऋषियों ने ज्ञान-विज्ञान निर्माण किया, ऐसे ऋषियों का ऋण ।

३. पितृऋण : हमें जन्म देनेवालों पितरों का ऋण ।

४. समाजऋण : हमारे संबंध में आनेवाले प्रत्येक ने गुप्त अथवा खुले स्वरूप में हमें कुछ न कुछ दिया ही है । उसे कहते हैं समाजऋण ।

प्रत्येक मनुष्य को ये चारों ऋण चुकाने ही पडते हैं । यह केवल हिन्दू धर्म में ही बताया है ।

 

३. हिन्दू धर्म की आश्रमकल्पना

चार आश्रमकल्पना

ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम, इन चार आश्रमों में से केवल गृहस्थाश्रम में ही व्यक्ति घर में रहता है । अन्य तीन आश्रमों में वह घर से दूर रहता था, इसलिए माया के बंधन से दूर रहने की शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को मिलती थी । इसलिए जहां अन्य धर्मीय राजा मृत्यु तक राज्य छोड नहीं पाते थे, वहीं हिन्दू राजा, राजपुत्र के राज्य संभालने योग्य होते ही उन्हें सिंहासन पर बिठाकर स्वयं वानप्रस्थाश्रम में जंगल में जाकर रहते थे । ऐसा त्याग केवल हिन्दू धर्म ही सिखाता है ।

 

४. हिन्दू धर्म की पुरुषार्थकल्पना

चार पुरुषार्थ हैं –

१. धर्म (शुद्ध आचरण),

२. अर्थ (अच्छे मार्ग से द्रव्य संपादन करना),

३. काम (शारीरिक और मानसिक सुखप्राप्ति)

४. मोक्ष

हिन्दू धर्म के अनुसार इन चारों में से धर्माचरण कर ‘अर्थ’ अर्थात अर्थ (धन) प्राप्ति और कामनापूर्ति करनी चाहिए । पाश्‍चात्य देशों में धर्म और मोक्ष, ये पुरुषार्थ पता ही नहीं हैं । उन्हें केवल अर्थ (फिर चाहे किसी भी प्रकार से द्रव्य प्राप्त करना) और काम (कैसे भी कर कामवासना पूर्ण करना) इतना ही पता है । खेद की बात है कि हिन्दू चार पुरुषार्थ भूलकर पाश्‍चात्यों का अंधानुकरण कर उनकी ही भांति नरक की ओर जा रहे हैं ।

 

५. अधर्माचरण करनेवाले पर प्रतिबंध (दंड)

धर्माचरण करनेवालों को अधर्माचरण करनेवाले लोगों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए । इसका कारण यह है, ‘अन्यों के अधर्माचरण से हमें तो दुःख होगा ही’; परंतु परिणामस्वरूप उस अधर्माचरणी मनुष्य को भी दुःख भोगना पडेगा । अधर्माचरण पर प्रतिबंध न करने से उसके अधर्माचरण का पाप अंशतः हमारे माथे भी लगता है ।

यह प्रतिबंध संभवत: समझा-बुझाकर (साम से) करें; परंतु यदि वह निरुपयोगी हो रहा है तो दंड भी दें । अधार्मिक मनुष्य को दंड देना, हिंसा नहीं है । यहां हिंसा का अर्थ ‘दुःख देना’ नहीं, अपितु ‘हित’ है । अधार्मिक को दंड देते समय उसे दुःख देने का उद्देश्य नहीं होता, अपितु उसका अहित टल जाए और उसे धर्माचरण का उच्च सुख प्राप्त हो, यह होता है ।

हिन्दुओ ने इस सिद्धांत की अनदेखी की,जिसके कारण ही हिन्दुओ की स्थिति आजकल अत्यंत ही दयनीय हो गई है । उसे बदलने के लिए अधर्माचरण के विरुद्ध कृति करना, साधना ही है ।

 

६. मूर्तिपूजा

सामान्य मनुष्य को अमूर्त, निर्गुण परमेश्‍वर की उपासना करना कठिन हो जाता है; इसलिए मूर्तिपूजा करते हैं । सगुण उपासना न करते हुए एकदम निर्गुण की उपासना करना, अर्थात पहली कक्षा के बच्चे का एकदमस्नातक की परीक्षा का अभ्यास करने समान है । इसे टालने के लिए चरण-प्रति-चरण निर्गुण की ओर जाने के लिए सगुण उपासना बताई है और ऐसे चरण-प्रति-चरण जाने से हिन्दू धर्म में सर्वोच्च आध्यात्मिक स्तर के ऋषि और संत निर्माण हुए हैं । उन्होंने सर्वोच्च स्तर का ज्ञान जगत को दिया है और दे रहे हैं ।

 

७. अनेक प्रकार की साधना

अ. अनेक देवी-देवताओं की उपासना : प्रत्येक व्यक्ति की पात्रता भिन्न-भिन्न होती है; इसलिए हिन्दू धर्म में अन्य पंथों समान केवल एक ही मार्ग अथवा किसी एक ही देवता की उपासना नहीं बताई है ।

आ. विविध योगमार्ग : कर्मयोग, ज्ञानयोग, हठयोग, शक्तिपातयोग, ऐसे विविध मार्ग बताए हैं ।

इ. व्यक्तिनुसार बदलनेवाला साधनामार्ग : प्रत्येक रोग पर विविध औषधियां होती हैं; उसी प्रकार जितने व्यक्ति, उतनी प्रकृतियां और उतने ही साधनामार्ग’, यह केवल हिन्दू धर्म में ही है । इसलिए हिन्दू धर्मानुसार साधना कर, सर्वोच्च स्तर कम समय में प्राप्त कर सकते हैं ।

 

८ पुनर्जन्म

मृत्यु के उपरांत जीवन है, उसे सुखदायी करने के लिए क्या करना चाहिए, पुनर्जन्म होता है इत्यादि सर्व जानकारी केवल हिन्दू धर्म में और वह भी सहस्रों वर्षों पूर्व ही बताया गया था । अन्य पंथों को अब तक उसकी भनक भी नहीं है । मनुष्य पूर्वसंचित के अनुसार, अर्थात पूर्वजन्म के कर्म के अनुसार इस जन्म में सुख-दुःख भोगता है । इस जन्म में किए गए पाप-पुण्य का फल अगले जन्म में मिलता है, ऐसा कर्मसिद्धांत है । यह केवल हिन्दू धर्म ही सिखाता है ।

 

९. सदेह मुक्ति

देह में होते हुए भी कोई व्यक्ति परमेश्‍वर से पूर्णरूप से एकरूप हो सकता है, इसकी प्रचीति देनेवाले अत्युच्च स्तर के अनेक ऋषि-मुनि, साधु-संत, महात्मा केवल हिन्दू धर्म में हुए हैं और आज भी हैं ।

 

१०. अनेकता में एकता

हिन्दू धर्म की विशेषता ही यह है – अनेकता में एकता ! समाज तो एकजुट रहता है; परंतु राजनीतिक स्तर पर जाति-समाज-पंथ इनके वोट प्राप्त करने के लिए लोगों में भेदभाव का वातावरण निर्माण किया जाता है । भारत में सभी नागरिकों को एकसमान दर्जा होते हुए भी कोई पिछडा है, कोई अल्पसंख्यक है, कोई शोषित है, यह कहकर उनके वोट बटोरने का कार्य किया जाता है । भारत में पिछले 72 वर्ष से अधिक कालावधि से सेक्युलरवाद तथा संविधान के आधार पर राज्य चल रहा है । इस सेक्युलरवाद में तथा संविधान में धर्म को कोई स्थान नहीं है; परंतु आज भी जनता के आंतरिक भेदभाव के सारे आरोप हिन्दू धर्म के ऊपर लगाए जाते हैं । क्यों यह नहीं कहा जाता कि सेक्युलरवाद असफल हो गया है ? ऐसे में समाज में जागृति करनी होगी । अयोग्य धारणाओं को मिटाना होगा । आज धर्म का प्रचार तथा विस्तार करने के लिए पहले स्वयं को धर्म सीखना होगा, उसे आचरण में लाना होगा तदुपरांत अन्यों को उसका महत्त्व बताना होगा । आज की स्थिति में मेकॉलेप्रणीत शिक्षातंत्र, सेक्युलरवाद की भ्रमित करनेवाली विचारधारा, और भेदभाव करनेवाली राजनीति इन कारणों से धर्म का प्रचार तथा विस्तार करने में बाधाएं आ रही हैं । इस कारण प्रत्येक समस्या से लडने से अच्छा होगा कि धर्माधिष्ठित राज्यव्यवस्था, अर्थात रामराज्य जैसे हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करने के लिए प्रयास करने होंगे । यह राज्यव्यवस्था ही सारी समस्याओं का उत्तर है ।

जन्महिन्दुओ, हिन्दू धर्म समझ लें और उसे आचरण में लाकर कर्महिन्दू बनें !

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ धर्म’

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