गुरुचरणों में प्रतिक्षण कृतज्ञता व्यक्त करना ही खरी गुरुदक्षिणा है !

१. एक बार केरल की सनातन की साधिका श्रीमती कैमल और मेरी मार्गिका में भेंट हुई । हमने एक-दूसरे को नमस्कार किया और अपनी सेवा के लिए चल पडे । कुछ समय पश्‍चात मुझे पता चला, उस कुछ क्षणों की भेंट से ही उनकी भावजागृति हुई । कुछ विशेष परिचय न होते हुए तथा केवल कुछ क्षण मिलने पर भी उनका भाव जागृत क्यों हुआ ? साधकों का प.पू. डॉक्टरजी के प्रति अपार भाव है और गुरुतत्त्व सूक्ष्म से प्रत्येक साधक में वास करता है । मुझ में विद्यमान गुरुतत्त्व के कारण ही श्रीमती कैमल का भाव जागृत हुआ, इसका मुझे बोध हुआ । गुरु ही हमारे हृदय में वास कर हमारा प्रतिपालन करते हैं, हमारा हाथ पकडकर हमें साधनापथ पर आगे-आगे ले जाते हैं और हमारे कल्याण के लिए सर्व करते हैं । तो हमें किस बात का अभिमान है ?

पू. संदीप आळशी
पू. संदीप आळशी

२. वेदधर्म नामक एक गुरु थे । एक दिन उन्होंने उनके सर्व शिष्यों को बुलाकर कहा, मेरे पूर्वजन्म का एक पापकर्म है । इस पाप से मुक्ति हेतु मैं काशी जाना चाहता हूं । आप मुझे काशी ले चलें । मैं वह पाप मेरे देह से भोगूंगा, उस समय आप मेरी देखभाल करें । तब दीपक नामक एक शिष्य ने गुरु से कहा, स्वामी, आप मुझे आज्ञा करें । मैं पूरी शक्ति के साथ आपकी सेवा करूंगा । दीपक का वचन सुनकर गुरु ने कहा, उस पाप के कारण मैं कुष्ठरोगी बन जाऊंगा और मेरा शरीर सडने लगेगा और मैं अंधा-लूला हो जाऊंगा । मुझे २१ वर्ष संभालना पडेगा । इस पर दीपक ने हां कहा ।

आगे काशी में गुरु की सर्व देह में कुष्ठ हुआ । उन घावों से मवाद (पीप), कीडे और रक्त निकलता था । इसी में उन्हें मिरगी आने लगी । एक बार दीपक भिक्षामांगकर लाया, तब गुरु क्रोधित हो गए । भिक्षा इतनी थोडी लाया है !, ऐसा कहते हुए उन्होंने वह भिक्षान्न भूमि पर फेंक दिया । अगले दिन शिष्य अधिक भिक्षान्न लाया, तब वे क्रोधित होकर बोले, पकवान क्यों नहीं लाया ? और वे शिष्य को पीटने के लिए उठे । शिष्य गुरु द्वारा बताए सर्व पदार्थ लाया; परंतु गुरु ने सर्व फेंक दिया और साथ ही शिष्य को अपशब्द कहे । जी-तोड गुरु की सेवा-शुश्रुषा करने पर भी वे कहते, जख्मों में भरा मवाद तथा मेरा मल-मूत्र, तुम्हें बार-बार धोना चाहिए । उसे तुम क्यों नहीं धोते ?

गुरु को भगवान विश्‍वनाथ का रूप समझकर दीपक गुरु के लिए नित्य भिक्षा मांगकर लाता और भक्तिपूर्वक एवं एकनिष्ठ रहकर उनकी सेवा करता रहा । उसकी इस सेवा से साक्षात भगवान प्रसन्न हुए और उसे कहा, वर मांगो । इस पर दीपक ने भगवान से प्रार्थना की, आप मुझे यह वर दीजिए कि मेरे मन में और अधिक गुरुभक्ति उत्पन्न हो ।

दीपक के मांगे इस वर को सुनकर गुरु भी संतुष्ट हुए और उन्होंने दीपक को भरपूर आशीर्वाद दिए । वास्तविकता तो यह थी कि दीपक के गुरु परम तपस्वी और पूर्ण पापरहित थे । वे तो अपने शिष्य की परीक्षा लेने के लिए ही लीला रच रहे थे कि, कुष्ठरोगी होकर क्लेश भोग रहा हूं ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘शिष्य’

क्या शिष्योत्तम दीपक की भांति हमारा गुरुसेवा के प्रति इतना अनन्य भाव है ? हम गुरु के लिए कुछ नहीं कर रहे, अपितु गुरु ही हमारे लिए सबकुछ कर रहे हैं ! महर्षि ने एक नाडीवाचन में बताएनुसार साधकों पर होनेवाले अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण प.पू. डॉक्टरजी अपनी देह पर झेल रहे हैं । योगक्षेमं वहाम्यहम् ।, इस वचनानुसार प.पू. डॉक्टरजी ही हमारा सर्व रूप से प्रतिपालन कर रहे हैं । सनातन के आश्रमों में रहनेवाले साधकों को पवित्र प्रसाद ग्रहण से लेकर सुखप्रद निवास-व्यवस्था तक की सर्व सुविधाएं, बिना किसी परिश्रम प.पू. डॉक्टरजी की कृपा से ही मिल रही हैं । साधकों की शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होने के लिए प.पू. डॉक्टरजी ने विविध समष्टि सेवाएं उपलब्ध कराई हैं । ग्रंथ और सनातन प्रभात के माध्यम से प.पू. डॉक्टर प्रतिदिन साधना सिखा रहे हैं । प्रसार तथा आश्रम के साधकों को विभाग-सेवकों के माध्यम से प.पू. डॉक्टरजी ही अत्यंत प्रेम से चूकें और दोष दिखाकर उनमें साधकत्व बढा रहे हैं । प.पू. डॉक्टरजी ने सर्व दृष्टि से आदर्श हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का मनोहर ध्येय साधकों के सामने रखा है । गुरु को और कितना करना चाहिए ? क्या इसके प्रति हमसे प्रतिक्षण कृतज्ञताभाव व्यक्त होता है ?

प.पू. डॉक्टरजी, बिना मांगे ही हमारे कल्याण के लिए जो-जो आवश्यक है, वह आप हमें दे ही रहे हैं । आपके चरणों में हम प्रतिक्षण कृतज्ञ रह पाएं, ऐसा कृतज्ञताभाव हमें प्रदान कीजिए, ऐसी आप के चरणों में प्रार्थना !

– (पू.) श्री. संदीप आळशी, रामनाथी आश्रम, गोवा.

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