साधना कर गुरुकृपा से अल्प समय में समाधानी एवं आनंदी होनेवाले साधक !

सनातन संस्था में साधना करनेवाला साधक प.पू. डॉक्टरजी के कारण कितना भाग्यवान है, इसकी कल्पना आई; कारण सनातन संस्था के मार्गदर्शनानुसार साधना करनेवाले साधक को भी कुछ महीनों में ही उनके जीवन की सर्व समस्याओं के कारण एवं हमें क्या करना चाहिए, यह समझ में आता है ।

मनुष्यजन्म का महत्त्व ध्यान में लेकर मनःशांति पाएं !

अमेरिका अथवा पश्चिमी देश आर्थिकदृष्टि से भले ही कितने भी समृद्ध हो गए हों, तब भी उन देशों के लोगों को शांति है क्या ? उन देशों में चोरियां-डाके, धोखाधडी बंद हुई है क्या ? धनसंपन्नता का अर्थ शांति नहीं । क्या धनाढ्य व्यक्ति शांति से सो सकता है ?

मनुष्यजीवन का कारण क्या है ?

मनुष्य का पुनः-पुनः जन्म होने के विविध कारण है । इसके दो प्रमुख कारण हैं – पहला कारण है प्रारब्ध अर्थात पिछले जन्म में किए अच्छे-बुरे कर्मों को भुगतना और सामान्य जीवनयापन करना ।

आनंद कैसे प्राप्त करें ?

जो असीमित एवं अनंत है, वही खरे सुख का अर्थात आनंद का उद्गम स्थान होता है । वह चिरकालीन आनंद देता है और दुःख से हमें सदा के लिए छुटकारा दिलाता है ।’ हम अशाश्वत (अथवा अनित्य) विषयों से आनंद पाने का प्रयत्न करते हैं । अशाश्वत (अथवा अनित्य) विषय सीमित अथवा परिवर्तनशील होते हैं, इस कारण उन बातों में स्थायी सुख नहीं होता ।

आनंदप्राप्ति की इच्छा क्यों होती है ?

आनंद जीव का एवं विश्व का स्थायीभाव, स्वभाव, स्वधर्म है । इसलिए अपने मूल स्वरूप को पाना, अर्थात आनंद प्राप्त करना एवं मूल स्वरूप को पाकर होनेवाली आनंद की अनुभूति को बनाए रखना ही जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है ।

खरा सुख कैसे  प्राप्त करें ?

मनुष्य सुख के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता है, फिर भी वह दिनोदिन अधिकाधिक दुःखी हो रहा है । थोडा-बहुत तो खरा सुख मिले, इसके लिए आगे कुछ उपाय बताए गए हैं ।

कौन अधिक सुखी रहता है ?

आत्मदर्शन के ध्येय से प्रेरित व्यक्तियों को अपने सांसारिक सुख-दुःख ही क्या, प्राणिमात्र के सुख-दुःख के संबंध में भी कुछ नहीं लगता । इसके विपरीत, जो केवल परिवार का अथवा अपना ही विचार करता है, वह अधिकांशतः आजीवन दुःखी रहता है ।

सुख-दुःख के क्या कारण हैं ?

सुख की इच्छा ही दुःख का कारण है । दुःख के बंधनों से छूटने का एक ही मार्ग है और वह है ऐहिक सुख की कामना को नष्ट करना; क्योंकि सुख की इच्छा से ही मनुष्य पुण्य करने जाता है, परंतु साथ ही पाप भी कर बैठता है और जन्म-मृत्यु का यह कालचक्र चलता रहता है ।

सुख – दुःख की परिभाषा और उनका महत्त्व क्या है ?

केवल मनुष्य की ही नहीं, अपितु अन्य प्राणि की भागदौड भी अधिकाधिक सुखप्राप्ति के लिए ही होती है । इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि द्वारा विषय सुख भोगने का प्रयत्न करता है; परंतु विषय सुख तात्कालिक एवं निम्न श्रेणी का होता है, तो दूसरी ओर आत्मसुख, अर्थात आनंद चिरकालीन एवं सर्वोच्च श्रेणी का होता है ।