प्राचीन भारतीय नौकाशास्त्र में मत्स्ययंत्र के अलौकिक तंत्र

वेद से लेकर अनेक भारतीय पौराणिक ग्रंथों में महासागर, समुद्र और नदियों से जुडी ऐसी अनेकानेक घटनाओं का उल्लेख है, जिससे यह पता चलता है कि भारतीयों को नौकायान का ज्ञान आदिकाल से ही रहा है । भारतीय साहित्यकला, मूर्तिकला, चित्रकला और पुरातत्व-विज्ञान से प्राप्त अनेक साक्ष्यों से भारत की समुद्री परंपराओं का अस्तित्व प्रमाणित होता है ।

४ थे और ५ वें शतक में आर्यभट्ट एक गणितज्ञ थे, ५ वें और ६ वें शतक में वराहमिहिर एक ज्योतिषतज्ञ थे । आर्यभट्ट और वराह मिहिर इन दो विद्वानों ने नक्षत्रों की पहचान कर सागर यात्रा के मानचित्रों का (नक्शे का) निर्माण किया था । इन मानचित्रों के लिए एक मत्स्य यंत्र का प्रयोग किया जाता था । जिसे हम आधुनिक काल के ‘मैगनेटिक कम्पास’ का प्रारंभिक रूप कह सकते हैं । इस यंत्र में लोहे की एक मछली तेल जैसे द्रव्य पर तैरती रहती थी और वह सदैव उत्तर दिशा की तरफ मुंह किए रहती थी । इसका अर्थ वह उत्तर दिशा दिखाने वाली दिशादर्शक थी ।

राजा भोज नौकाशास्त्र के सखोल अभ्यासी ११ वीं सदी इस्लामिक आक्रमण आरंभ होने का कालखंड था । इस समय मालवा के राजा भोज ने ज्ञान-विज्ञान के संदर्भ में अनेक ग्रंथ लिखे । वे नौका विशेषज्ञ भी थे, उनके ग्रंथों में वर्णित उल्लेखों से ऐसा पता चलता है । उन्होंने ही ‘युक्तिकल्पतरु’ ग्रंथ का निर्माण किया जिसमें नौकाशास्त्र की विस्तृत जानकारी है ।

१. ‘युक्तिकल्पतरु’ में नौका के प्रकार बताए गए हैं । एक, सामान्य नौकाएं वे नौकाएं, जो साधारण नदियों में चल सकें और दूसरी, विशेष नौकाएं जिनके द्वारा समुद्र यात्रा की जा सके, इसका वर्णन इसमें है । छोटी एवं लंबी यात्राओं के लिए छोटे और बडे, अलग अलग क्षमतावाले जहाजों का निर्माण कैसे किया जाता है, इसका वर्णन इस ग्रंथ में है । जहाज निर्माण के विषय पर प्राचीन ग्रंथों में इस ग्रंथ को प्रमाण माना जाता है । अलग-अलग प्रकार के जहाजों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की लकडियों का चयन कैसे किया जाए, इससे प्रारंभ करते हुए विशिष्ट क्षमतावाले जहाज एवं उनका पूरा ढांचा कैसे निर्मित किया जाए, इसका सारा गणित इस ग्रंथ से प्राप्त होता है ।

२. इसी ग्रंथ में उन्होंने चेतावनी भी दी है कि नौका में लोहे का प्रयोग न किया जाए, क्योंकि संभव है कि समुद्री चट्टानों में कहीं चुम्बकीय शक्ति हो । तब वह उसे अपनी ओर खींचेगी, जिससे जहाज को संकट हो सकता है ।

३. इस ग्रंथ के लिखे जाने से डेढ सहस्र वर्ष पूर्व भी भारतीय जहाज पूरे विश्‍व में भ्रमण करते थे । अर्थात यह ‘युक्तिकल्पतरु’ ग्रंथ कुछ नया शोध नहीं करता; परंतु जो ज्ञान पहले से भारतीयों के पास था, उसे लिपिबद्ध करता है । क्योंकि भारतीयों को नौकाशास्त्र का ज्ञान प्राचीन काल से ही था ।

४. कथा सरित-सागर नामक ग्रंथ में उच्च कोटि के श्रमिकों का उल्लेख किया गया है । उससे पता चलता है, कि काष्ठ का काम करनेवालों को राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था । ये समुद्र पार करने के लिए रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्र यात्रियों को ले कर उडनेवाले विमान भी बना सकते थे ।

५. ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में कौटिल्य अर्थशास्त्र में राज्य की ओर से नाव के पूरे प्रबंध के संदर्भ में जानकारी मिलती है । ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में चंद्रगुप्त मौर्य के कालखंड में भारत के जहाज विश्‍वप्रसिद्ध थे । इन जहाजों द्वारा पूरे विश्‍व में भारत का व्यापार चलता था । इस विषय में अनेक ताम्रपत्र और शिलालेख प्राप्त हुए हैं । बौद्ध प्रभाववाले कालखंड में, बंगाल में सिंहबाहू नामक राजा के शासनकाल में सात सौ यात्रियों को लेकर एक जहाज के श्रीलंका प्रवास पर जाने का उल्लेख मिलता है । ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में कुषाण काल एवं हर्षवर्धन काल में भी समुद्री व्यापार की समृद्ध परंपरा का उल्लेख मिलता है । कुछ समय पश्‍चात ५ वीं सदी में हुए वराहमिहिर कृत बृहत् संहिता मे भी इसकी जानकारी मिलती है । इससे हमें प्राचीन भारत की नौकायान परंपरा की समृद्धि की जानकारी मिलती है ।

भारत तीन ओर से सागर से घिरा है । इन सागरों में अनेक बंदरगाह हैं । वहां चारों ओर हिन्दू संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं । क्या इसका अर्थ यह है, कि भारत की संस्कृति नौकानयन संस्कृति के सहारे ही वहां पहुंची ।

१. थाईलैंड देश के बैंकाक हवाई अड्डा अर्थात सुवर्णभूमि विमानतल पर समुद्रमंथन की प्रसिद्ध प्रतिकृति है । वहीं एक बडा सा मानचित्र लगा है । लगभग डेढ सहस्र वर्ष पूर्व के इस मानचित्र में ‘पुरुषपुर’ (पेशावर) से लेकर ‘पापुआ न्यू गिनी’ तक का भूभाग दर्शाया गया है, जिसके मध्य भाग में बडे और मोटे अक्षरों में लिखा है, ‘इण्डिया’ । इसी मानचित्र में ‘सयाम’ (थाईलैंड) को भी गाढे रंग से दर्शाया गया है । अर्थात यह विशालकाय मानचित्र ऊंचे स्वरों में दुनिया को बता रहा है कि ‘किसी समय पर सयाम अर्थात थाईलैंड पूरे विश्‍व में फैली हुई भारतीय संस्कृति का ही एक भाग था, और हमें इस बात पर गर्व है ।’

२. कम्बोडिया ने अपने देश के राष्ट्रध्वज पर अंकोरवट मंदिर का चित्र अंकित किया है और उसके ब्रुनेई देश ने अपनी राजधानी का नाम ‘बन्दर सेरी भगवान’ अर्थात ‘देवताओं की आभा’ रखा है, इस नाम की राजधानी वाला देश आज इस्लामिक देश है । यह जानकर आपको आश्‍चर्य होगा ।

३. जावा, सुमात्रा, मलय, सिंहपुर, सयाम, यवद्वीप इत्यादि सभी तत्कालीन देश, जो वर्तमान में इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, कम्बोडिया, विएतनाम आदि नामों से जाने जाते हैं, इन सभी देशों पर प्राचीन हिन्दू संस्कृति के चिन्ह आज भी विद्यमान हैं । दो-ढाई सहस्र वर्ष पूर्व दक्षिण भारत के राजा इन प्रदेशों में गए थे । एक समय ये भारत के ही द्वीप थे ।

४. विजय नगर साम्राज्य स्थापित होने के उपरांत उस राज्य ने दक्षिण भारत में अनेक विशाल और सुंदर बंदरगाहों का निर्माण किया तथा पूर्व एवं पश्‍चिम दोनों ही दिशाओं में व्यापार आरंभ किया । शांतिपूर्ण और समृद्ध संस्कृति के बल पर पूरा दक्षिण-पूर्व एशिया धीरे-धीरे हिन्दू विचारों को अपना मानने लगा था । अब एक स्वाभाविक प्रश्‍न उठता है कि जब बडे स्तर पर हिन्दू राजा आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु इत्यादि राज्यों से दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में गए, तो वे कैसे गए होंगे ? स्वाभाविक है कि समुद्र मार्ग से ही गए होंगे । इसका अर्थ प्राचीन काल से अब तक व्यापार के लिए भारतीय समुद्री रास्तों का प्रयोग करते थे । अर्थात उस कालखंड में भारत में नौकायन शास्त्र अत्यंत उन्नत स्थिति में था । सागर की यह यात्रा प्रगत नौकानयन का ही उदाहरण है ।

५. उस कालखंड की भारतीय नौकाओं एवं नाविकों के अनेक चित्र एवं मूर्तियां कम्बोडिया, जावा, सुमात्रा, बाली जैसे स्थानों पर दिखाई देती हैं । उस काल में भी कम से कम पांच सौ यात्रियों को ले जाने की क्षमतावाली नौकाओं का निर्माण भारत में होता था ।

६. उस समय उफनते समुद्र में, आज जैसे आधुनिक मौसम यंत्र एवं यात्रा संबंधी विभिन्न साधनों के न होने के पश्‍चात भी इतनी दूर के देशों तक पहुंचना, उन देशों से संबंध बनाना, वहां पर व्यापार करना, उन देशों से निरंतर संपर्क बनाए रखना, इससे सिद्ध होता है कि भारतीयों का नौकायन शास्त्र उन दिनों अत्यधिक प्रगत और विकसित रहा होगा ।

गुजरात में पुरातत्व विभाग ने प्राचीन काल में बंदरगाह होने की जानकारी खोज निकाली थी । क्या यह सच है ? जी, यह सच है । गुजरात के ‘लोथल’ में पुरातत्व विभाग द्वारा उत्खनन किया गया था । लोथल भले ही एकदम समुद्र के किनारे पर स्थित नहीं है, परंतु समुद्र की एक छोटी पट्टी लोथल तक आई हुई है । पुरातत्व विभाग के उत्खनन में यह सामने आया कि लगभग साढे तीन सहस्र वर्ष पूर्व लोथल एक वैभवशाली बंदरगाह था । इस स्थान पर अत्यंत उन्नत एवं स्वच्छ उत्तम नगर संरचना स्थित थी । परंतु उत्खनन से प्राप्त अवशेषों में इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बातें ये निकलकर आईं कि लोथल में जहाज निर्माण का कारखाना था । लोथल से अरब देशों एवं इजिप्त देश में बडे स्तर पर व्यापारिक गतिविधियों के भी प्रमाण मिले । वर्ष १९५५ में लोथल में किए उत्खनन के कारण विश्‍व के सामने इस ज्ञान के द्वार खुल गए । इस खुदाई से पता चला कि समुद्र के किनारे स्थित न होने के पश्‍चात भी लोथल में नौकायन विज्ञान इतना समृद्ध था । और वहां नौकायन से संबंधित इतनी गतिविधियां निरंतर चलती रहती थीं, तो गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल जैसे दूसरे पश्‍चिमी राज्यों के समुद्र किनारों पर, इस बंदरगाह से भी अधिक कितनी सरस एवं समृद्ध संरचनाएं रही होंगी । आज मुंबई से निकट थाने जिले में ‘नालासोपारा’ शहर है वहां पर लगभग डेढ सहस्र वर्ष पूर्व ‘शुर्पारक’ नामक वैभवशाली बंदरगाह था । इस स्थान पर भारत के जहाजों के अतिरिक्त अनेक देशों के जहाज व्यापार करने आते थे । इसी प्रकार महाराष्ट्र के दाभोल और गुजरात के सूरत में भी था ।

११ वीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रमण के उपरांत भारतीय नौकायनशास्त्र समाप्ति की दिशा में जाना प्रारंभ हुआ ११ वीं शताब्दी में जो नौकायनशास्त्र शीर्ष पर था, वह धीरे-धीरे अशक्त होने लगा । मुगलों के आक्रमण के उपरांत उन्होंने हिन्दू राजाओं से नि:शुल्क मिले जहाजों को ठीक से तो रखा; परंतु उनमें कोई वृद्धि नहीं की । दो सौ वर्षों का विजयनगर साम्राज्य अपवाद रहा । उन्होंने भारत के पूर्वी एवं पश्‍चिमी, दोनों समुद्र किनारों पर जहाज निर्माण के कारखाने आरंभ किए और ८० से अधिक बंदरगाहों को ऊर्जित अवस्था में बनाए रखा । १३ वीं शताब्दी तक हिन्द महासागर पर भारतीयों के वर्चस्व के उल्लेख पाए जाते हैं । कुछ समय पश्‍चात छत्रपति शिवाजी महाराजजी के १६ वें शतक में उन्होंने जिस कवच की निर्मिति की है उससे भी हम परिचित हैं । छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपनी नौसेना स्थापित की और सरदार आंग्रे ने उसे दृढ किया; परंतु भारतीय जहाज निर्माण को कभी भी ग्यारहवीं शताब्दी से पहलेवाला वैभव प्राप्त नहीं हुआ । किंतु १६ वीं शताब्दी तक का काल देशों के मध्य समुद्र के मार्ग होनेवाले व्यापार, संस्कृति और परंपरागत लेन-देन का प्रमाण रहा है । इससे इस महासागर में भारत का केंद्रीय महत्व भी अधोरेखित होता है । इस्लामी आक्रमणकर्ताओं को बिना किसी परिश्रम के बनी बनई भारतीय नाविक तकनीक मिल गई । इस कारण अकबर के समय नौकायन विभाग इतना समृद्ध हो गया था कि जहाजों की मरम्मत एवं उनसे कर वसूली के कार्य हेतु अकबर को एक अलग विभाग का निर्माण करना पडा ।

कुल मिलाकर हम नौकायनशास्त्र में कितने प्रगत थे यह ध्यान में आता है ।

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