आदर्श व्यक्तित्व श्रीरामभक्त हनुमान !

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सप्तचिरंजीवों में से एक हैं महावीर श्रीहनुमान ! वैसे तो महाबली, अतुल पराक्रमी एवं आजीवन ब्रह्मचारी श्रीरामचंद्रभक्त अंजनेय हनुमानजी का चरित्र सर्वज्ञात है, तब भी उन नरोत्तम का व्यक्तित्व वास्तव में कैसा था, इस विषय में रामायण में अत्यंत विलोभनीय, विलक्षण एवं चिंतनीय वर्णन किया गया है । वर्तमान में ‘व्यक्तित्व विकास’ प्राथमिक विद्यालय में पढनेवाले बच्चों के लिए भी यह अत्यंत रुचिकर विषय है, ऐसा कहना अतिशियोक्ति नहीं होगी । इस व्यक्तित्व विकास के लिए सहस्रों रुपये खर्च करने के स्थान पर यदि हनुमानजी का चरित्र पढ लें, तब भी हमें बहुत कुछ सीखने मिलेगा । इसके साथ ही व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए, इसके उत्तम उदाहरण श्रीरामचंद्र एवं हनुमानजी के जीवनचरित्र से हम समझ सकेंगे !

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च बिभीषणः ।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ॥

– पुण्यजनस्तुती, श्लोक २

अर्थ : द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा, दानवीर राजा बली, वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य एवं परशुराम, इन सात चिरंजीवों का मैं स्मरण करता हूं ।

 

एक दूत के रूप में कैसे बोलना चाहिए, इसके आदर्श हैं हनुमान !

‘रामायण के किष्किंधा कांड में मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीरामचंद्र सीताहरण के उपरांत कबंध की सूचना के अनुसार सुग्रीव को ढूंढते हुए ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे । तब बाली के भय से राज्य से दूर आश्रय लिए सुग्रीव ने राम-लक्ष्मण को देखा, तो मन में शंकाएं उत्पन्न हुईं । वे सोचने लगे कहीं वे बाली द्वारा तो नहीं भेजे गए हैं, इसलिए उन्होंने अपने श्रीहनुमान नामक मंत्री को इन दोनों राजकुमारों को परखने के लिए भेजा । हनुमानजी एक ब्राह्मण के वेश में प्रभु राम-लक्ष्मण से मिलने आते हैं । फिर अपना परिचय देकर उनका भी परिचय जान लेते हैं । हनुमानजी का श्रीराम के साथ हुआ वह संभाषण यदि पढें, तो हमें हनुमानजी की बुद्धिमानी का दर्शन होता है; परंतु उससे भी अधिक एक दूत के रूप में कैसे बोलना चाहिए, इसका भी एक आदर्श प्रस्तुत किया है ।

 

प्रभु श्रीरामचंद्रजी ने अनुज लक्ष्मण को हनुमान के विषय में बताईं गुणविशेषताएं

 

हनुमानजी के सुमधुर वचन सुनकर श्रीरामचंद्र अपने अनुज लक्ष्मण से हनुमानजी का जो वर्णन करते हैं, वह नीचे दिए अनुसार है ।

प्रभु श्रीरामचंद्र कहते हैं,

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणम् ।
नासामवेदविदुष: शक्यमेवं विभाषितुम् ॥

– वाल्मीकि रामायण, कांड ४, सर्ग ३, श्लोक २८

अर्थ : जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया हो, जो सामवेद का विद्वान नहीं, वह इस प्रकार सुंदर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता !

नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् ।
बहु व्याहरताऽनेन न किञ्चिदपशब्दितम् ॥

– वाल्मीकि रामायण, कांड ४, सर्ग ३, श्लोक २९

अर्थ : निश्चितरूप से हनुमानजी ने व्याकरण का अनेक बार बारीकी से अध्ययन किया है; कारण इतनी देर बोलने पर भी उनके मुख से कोई अशुद्ध शब्द बाहर नहीं निकला !

न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा ।
अन्येष्वपि च गात्रेषु दोष: संविदित: क्वचित् ॥

– वाल्मीकि रामायण, कांड ४, सर्ग ३, श्लोक ३०

अर्थ : संभाषण के समय उनके मुख, नेत्र, माथे अथवा अन्य किसी भी अंग से कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा मुझे नहीं दिखाई दिया !

अविस्तरमसंदिग्धमविलम्बितमव्ययम् ।
उर:स्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम् ॥

– वाल्मीकि रामायण, कांड ४, सर्ग ३, श्लोक ३१

अर्थ : उन्होंने (हनुमानजी ने) संक्षेप में परंतु अत्यंत सुस्पष्टता से अपना कथन प्रस्तुत किया है । उनका कथन समझने में नि:संदिग्ध था । रुक-रुककर अथवा शब्द एवं अक्षर तोडकर किसी भी वाक्य का उन्होंने उच्चारण नहीं किया । कोई भी वाक्य कर्णकटु नहीं लगा । उनकी वाणी हृदय में मध्यमा रूप में स्थिर हो गई है और कंठ से वैखरी में प्रकट हुई !

संस्कारक्रमसम्पन्नामद्भुतामविलम्बिताम् ।
उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहारिणीम् ॥

– वाल्मीकि रामायण, कांड ४, सर्ग ३, श्लोक ३२

अर्थ : बोलते समय उनका स्वर न तो धीमा था और न ही ऊंचा । मध्यम आवाज में ही सब कुछ बताया । उन्होंने हृदय को आनंद प्रदान करनेवाली कल्याणमय वाणी का उच्चारण किया ।

अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया ।
कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि ॥

– वाल्मीकि रामायण, कांड ४, सर्ग ३, श्लोक ३३

अर्थ : हृदय, कंठ एवं मूर्धा (मुख के भीतर तालु एवं ओंठ के बीच का कठोर भाग मूर्धा कहलाता है जहां से ट, ठ, ड इत्यादि का उच्चारण होता है ।), इन तीन स्थानों से स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त होनेवाली इनकी यह चित्रवत (चित्र समान अर्थात स्थिर) वाणी सुनकर किसका चित्त प्रसन्न नहीं होगा ! वध करने के लिए तलवार उठानेवाले शत्रु का हृदय भी इस वाणी से परिवर्तित हो सकता है !

एवंविधो यस्य दुतो न भवेत् पार्थिवस्य तु ।
सिद्ध्यन्ति हि कथं तस्य कार्याणां गतयोsनघ ॥

– वाल्मीकि रामायण, कांड ४, सर्ग ३, श्लोक ३४

अर्थ : हे निष्पाप लक्ष्मण, जिस राजा के पास इनके समान दूत नहीं होंगे, उनकी कार्य सिद्धी भला कैसे हो सकती है ?

 

हनुमान के ब्रह्मचर्य के विषय में समर्थ रामदासस्वामी ने किया वर्णन

समर्थ रामदासस्वामी

मूल वाल्मीकि रामायण में हनुमानजी का जो वर्णन आया है, उसे पढने पर मन स्तब्ध हो जाता है । वे ‘बुद्धिमतां वरिष्ठं’ तो हैं ही; परंतु उससे भी अधिक उनका प्रखर इंद्रिय संयम, अर्थात कठोर आजीवन अखंड ब्रह्मचर्य ! ब्रह्मचर्य का सामर्थ्य हनुमानजी के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी बहुत अधिक प्रकट नहीं हुआ है । महाभारत के भीष्माचार्य का उदाहरण लें, तब भी हनुमानजी का उदाहरण विलक्षणरूप से प्रेरणादायी है ।

समर्थ रामदासस्वामी भी कहते हैं,

मुखी राम त्या काम बाधू शकेना ।
गुणे इष्ट धारिष्ट त्याचे चुकेना ॥
हरीभक्त तो शक्त कामास मारी ।
जगीं धन्य तो मारुती ब्रह्मचारी ॥

– मनाचे श्लोक, श्लोक ८७

अर्थ : उनके मुख में रात-दिन भगवान का ही नाम है, इसलिए काम उसमें बाधक नहीं बन सकता । दैवीय गुण बढ-चढ कर उन्हें सहजता से मिले हैं । हरिभक्ति के बल पर वह ‘शक्त’ अर्थात समर्थ होकर काम पर विजय प्राप्त करता है, ऐसे ब्रह्मचारी मारुति (हनुमानजी) धन्य हैं !

 

महर्षि वाल्मीकि द्वारा श्रीहनुमान की गति का वर्णन

महर्षि वाल्मीकि स्पष्टरूप से कहते हैं,

न भूमौ नान्तरिक्षे वा नाम्बरे नामरालये ।
नाप्सु वा गतिसङ्गं ते पश्यामि हरीपुङ्गव ॥

– वाल्मीकि रामायण, कांड ४, सर्ग ४४, श्लोक ३

अर्थ : हे कपिश्रेष्ठ ! पृथ्वी, अंतरिक्ष, आकाश, देवलोक अथवा जल में भी तुम्हारी गति को अवरूद्ध होते मैंने कभी नहीं देखा ।

सुग्रीव सीताखोज के समय श्रीहनुमान से कहते हैं, ‘‘हे हनुमान ! तुम्हें असुर, गंधर्व, नाग, मनुष्य एवं राजाओं का ज्ञान है । लोकपाल सहित १४ भुवन, २१ स्वर्गाें का तुम्हें ज्ञान है । सागरों सहित पर्वतों का भी तुम्हें ज्ञान है । हे हनुमान, आपकी अकुंठित गति, आपका तेज और स्फूर्ति, ये समस्त सद्गुण तुममें परिपूर्ण हैं । इस भूमंडल में तुम्हारे समान तेजस्वी दूसरा कोई नहीं !’’

 

ऐसे नरश्रेष्ठ को कोटि कोटि प्रणाम ! कोटि कोटि प्रणाम !

महाबली, अतुल पराक्रमी पवनसुत अंजनेय श्रीरामदूत हनुमान की जय ! सियावर श्रीरामचंद्र की जय !! हिन्दू धर्म की जय !!! हिन्दू राष्ट्र की जय !!!

– तुकाराम चिंचणीकर

 

हिन्दू धर्म में वेदों का अध्ययन केवल विशिष्ट जाति तक सीमित होता है, यह सरासर झूठ है !

प्रत्यक्ष श्रीरामचंद्रजी के मुख से प्रथम भेट में श्रीहनुमान के विषय में चिंतन सुनने पर श्रीहनुमान का व्यक्तित्व कितना विलक्षण प्रभावशाली होगा, इसकी हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं । कितने आश्चर्य की बात है कि पहली ही भेट में प्रभु श्रीरामचंद्र हनुमानजी का गुणगान करते हैं ! ‘बुद्धिमतां वरिष्ठं’ ऐसे श्रीहनुमान ने समस्त वेदों का सूक्ष्मरूप से अभ्यास किया था और उनका आचरण भी उनके अनुरूप था । उन्होंने व्याकरण का भी अध्ययन किया है । इसका अर्थ उस काल में वानर भी वेदों का अध्ययन करते थे । फिर तथाकथित स्त्री-क्षुद्रों एवं तथाकथित बहुजन समाज को वेद नकारे जाने का प्रश्न ही कहां उठता है ? कितने दिन हम इस गलतधारणा को संजोए रहेंगे कि हिन्दू धर्म में वेदों का अध्ययन केवल विशिष्ट जाति तक ही सीमित रखा जाता है ?

प्रभु श्रीरामचंद्र का भी वेदों एवं संस्कृत व्याकरण का गहन अध्ययन था और वे भी उसमें पारंगत और रत्नपारखी थे, यह कितनी अद्भुत बात है ! क्या ऐसे श्रेष्ठ व्यक्तित्व से भी उत्तम उदाहरण ढूंढने की आवश्यकता है ? वेद एवं संस्कृत व्याकरण का अध्ययन यदि वानर भी करते थे, तो आज हम मनुष्यों को ये इतने अस्पृश्य क्यों हो गए ? हम भारतीय कितने मूढ हैं ? इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और क्या होगी ?

 

हनुमानजी की उपासना भक्तिभाव से करना बतानेवाला सनातन का ग्रंथ !

हनुमान (लघुग्रंथ)

  • श्री हनुमानजी के कार्य एवं विशेषताएं क्या हैं ?
  • श्री हनुमानजी के सर्वांग को सिंदूर क्यों लगाते हैं ?
  • श्री हनुमानजी को मदार के पत्ते, तेल क्यों चढाते हैं अथवा वह तेल घर से ही क्यों ले जाएं ?
  • अनिष्ट शक्तियों के निवारणार्थ श्री हनुमानजी की उपासना का महत्त्व
  • श्री हनुमानजी का नाम ‘हनुमान’ कैसे पडा ?
  • इन प्रश्नों के उत्तर के लिए यह लघुग्रंथ अवश्य पढें !

 

हनुमत्कृपा का संरक्षक-कवच प्राप्त करने के लिए नित्य पढें :

श्रीरामरक्षास्तोत्र एवं मारुतिस्तोत्र (अर्थ सहित)

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 हनुमान की दास्यभक्ति !

हनुमानजी स्वयं को प्रभु श्रीराम का दास, सेवक समझते हैं । हनुमानजी दास्यभक्ति के उत्कृष्ट आदर्श हैं । उनकी दास्यभक्ति हिमालय के गौरीशंकर शिखर से भी अधिक ऊंची है । श्रीराम की ‘दास्यता’ जिसे मिली, ऐसे परमभाग्यशाली केवल हनुमानजी ही हैं । साक्षात् भगवान का दास्यत्व प्राप्त हनुमानजी को किसी भी प्रकार के वैभव की इच्छा नहीं थी । उन्हें मोक्षप्राप्ति की भी इच्छा नहीं थी । प्रभु श्रीरामजी की दास्यता, ‘रामदास्यता’ ही उनका परमश्रेष्ठ ‘वैभव’ था । ‘रामदास्यता’ ही उनका सुख, उनका परमभोग, उनकी परमशांति और उनकी परममुक्ति है । यही उनका कैवल्य है, मोक्ष है ।

प्रभु श्रीराम पर श्रीहनुमानजी की अपरंपार और दृढ निष्ठा थी । स्वयं का सामर्थ्य, स्वयं का प्रभाव अर्थात सभी कुछ केवल श्रीराम की कृपा का ही परिणाम है, यह सब रामकृपा ही है, ऐसी हनुमानजी की पूर्ण श्रद्धा थी । इसीलिए वे स्वयं को प्रभु श्रीराम का विनम्र सेवक समझते थे । प्रभु श्रीराम के परमभक्त हनुमानजी की गणना पृथ्वी पर ७ चिरंजीवियों में की जाती है ।

 

‘प्रभु श्रीरामजी की सेवा’, यही हनुमानजी का जीवन !

हनुमानजी का जीवन अपने लिए नहीं था । प्रभु रामसेवा ही हनुमानकी जीवन था । उन्हें स्वयं के लिए किसी की भी आवश्यकता नहीं थी । केवल प्रभु श्रीराम की सेवा ! केवल उनकी दास्यता ! केवल और केवल उसके लिए ही हनुमानजी का अंतःकरण व्याकुल रहता था । इस संदर्भ में साक्षात् प्रभु श्रीराम ने स्वयं ही कहा है कि, ‘‘सुग्रीव एवं विभीषण की दृष्टि सिंहासन पर थी । उसके लिए उन्हें मेरी सहायता चाहिए थी, इसीलिए उन्होंने मुझे सहयोग किया । नम्रता के प्रतीक श्रीहनुमान राजाओं के भी राजा हो सकते थे । अत्यंत ही सहजता से सम्राट बन सकते थे, तब भी हनुमान को वैभवशाली सम्राट होना अस्वीकार था । उसे त्याग कर, वे प्रभु श्रीराम के दास बनकर रहे । उन्होंने श्रीराम की दास्यता स्वीकारी । कारण केवल एक ही था । प्रभु श्रीरामचंद्र पर उनकी असीम भक्ति थी । प्रभु श्रीराम ही उनके ‘प्राण’ थे ।

ऐसे इस असीम, परमभक्त को साक्षात् श्रीविष्णु के अवतार श्रीराम से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती थी । प्रभु श्रीराम के उन्हें मोक्ष देने के लिए तैयार होते हुए भी हनुमानजी ने युगों-युगों के अंत तक प्रभु श्रीराम का दास बनकर रहना ही स्वीकारा । श्रीहनुमानजी की दास्यभक्ति परमोच्च, अवर्णनीय एवं अनाकलनीय है । आज सहस्रों वर्षाें से जनसमुदाय के हृदय में प्रभु श्रीराम समान ही आदरणीय स्थान श्रीहनुमानजी को भी मिला है ।

संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

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