गुरुके कौन-कौनसे प्रकार हैं ?

१. कार्यपद्धतिके अनुरूप जैसे वैद्य तीन प्रकारके होते हैं कनिष्ठ, मध्यम एवं
उत्तम, इसी प्रकार गुरु भी कनिष्ठ, मध्यम तथा उत्तम ऐसे तीन प्रकारके होते हैं ।

१. कनिष्ठ वैद्य : जो वैद्य नाडी देखकर, ‘औषधि लो’, ऐसा बताकर चला जाता है एवं रोगी औषधि लेता है अथवा नहीं, इसकी पूछताछ नहीं करता, वह है कनिष्ठ वैद्य ।

२. मध्यम वैद्य : जो वैद्य रोगीको औषधि न लेते देख, ‘दवा लेनेसे तुम स्वस्थ हो जाओगे’, ऐसे नाना प्रकारके मृदु वचन बोलकर उसे समझानेका प्रयत्न करता है, वह हुआ मध्यम वैद्य ।

३. उत्तम वैद्य : जो वैद्य रोगीको किसी भी प्रकार औषधि न लेते देख, उसकी छातीपर घुटने टिकाकर बलपूर्वक औषधि खिलाता है, उसे कहते हैं उत्तम वैद्य ।

१. कनिष्ठ गुरु : उपदेश देनेके पश्‍चात शिष्यकी पूछताछ नहीं करते ।

२. मध्यम गुरु : शिष्य उपदेश ग्रहण कर सके, उनका कल्याण हो, इस हेतु जो पुनः-पुनः उन्हें समझाते हैं एवं उनपर प्रेम करते हैं ।

३. उत्तम गुरु : शिष्य यदि योग्य ध्यान नहीं देते अथवा अनुरूप आचरण नहीं करते हैं, यह देखनेपर प्रसंगानुसार बलप्रयोग कर उन्हें उचित आचरण करनेपर विवश कर देते हैं ।’ (१०)

अर्थात यह बलप्रयोग स्थूल माध्यमद्वारा न होकर सूक्ष्मद्वारा की जाती है, इसलिए सामान्य व्यक्तिकी समझमें नहीं आती ।

२. कुलागमानुसार गुरु के प्रकार क्या हैं ? इनमें बोधक गुरु श्रेष्ठ क्यों हैं ?

१. प्रेरक : साधकके मनमें दीक्षाकी प्रेरणा देनेवाले ।

२. सूचक : साधना एवं दीक्षाके प्रकारोंका वर्णन करनेवाले ।

३. वाचक : साधनाका वर्णन करनेवाले ।

४. दर्शक : साधना एवं दीक्षामें उचित-अनुचित बतानेवाले ।

५. बोधक : साधना एवं दीक्षाका सैद्धांतिक विवेचन करनेवाले ।

६. शिक्षक : साधना सिखानेवाला, दीक्षा देनेवाले ।

साधककी साधनाके सन्दर्भमें यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है कि साधना करने हेतु उसकी बुद्धिका निश्‍चय हो । बुद्धिका निश्‍चय सैद्धांतिक विवेचनद्वारा होता है, इसलिए सर्व गुरुओंमें बोधक गुरु सर्वश्रेष्ठ हैं ।

३ . गुरुके सगुण रूपकी अपेक्षा निर्गुण रूप श्रेष्ठ है

८.१०.१९९५ के दिन इंदौरमें मैंने (डॉ. जयंत आठवलेने) बाबासे (प.पू. भक्तराज महाराजजीसे) कहा, ‘‘जब आप बीमार होते हैं, तो आपके पास रहकर आपकी सेवा करनेके विचारकी अपेक्षा ग्रन्थ लिखनेके विचार अधिक आते हैं । सगुण देहकी सेवा मनसे नहीं होती ।’’ इसपर बाबा बोले, ‘‘तुम्हें लगता है कि ग्रन्थ लिखना चाहिए, वही ठीक है । वह ईश्‍वरीय कार्य है । तुम्हारे प्रारब्धानुसार तुम्हें वह पूर्ण करना ही होगा । इस देहकी सेवा कोई भी कर सकता है ।’’

स्त्रोत : सनातनका ग्रंथ ‘ गुरुका महत्त्व, प्रकार एवं गुरुमंत्र ‘

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