शिष्य के जीवन में गुरुका अनन्यसाधारण महत्त्व !

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्र्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्‍वरः ।
गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ३२ ॥

गुरु स्वयं ही ब्रह्मा, श्रीविष्णु तथा महेश्‍वर हैं । वे ही परब्रह्म हैं । ऐसे श्री गुरु को मैं नमस्कार करता हूं ।

शिष्य के जीवन में गुरु का महत्त्व अनन्यसाधारण है !

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।
मन्त्रमूलं गुरोवार्र्क्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ॥ ८६ ॥

अर्थ : ध्यान का आश्रयस्थान गुरुमूर्ति है । पूजा का मूलस्थान गुरुचरण, मन्त्र का उगमस्थान गुरुवाक्य एवं मोक्ष का मूल आधार गुरु की कृपा है ।

गुरु का महत्त्व ज्ञात होने पर नर से नारायण बनने में अधिक समय नहीं लगता; क्योंकि गुरु देवता का प्रत्यक्ष सगुण रूप ही होते हैं, इसलिए जिसे गुरु स्वीकारते हैं उसे भगवान भी स्वीकारते हैं एवं उस जीव का अपनेआप ही कल्याण होता है । संत कबीर ने सद्गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है,

बिना गुरु के गति नहीं, गुरु बिन मिले न ज्ञान ।
निगुरा इस संसार में, जैसे सूकर, श्‍वान ॥

वर्तमान में अधिकांश लोगों का दैनिक जीवन भागदौड तथा समस्याओं से ग्रसित है । जीवन में मानसिक शांति एवं आनंद प्राप्त करने के लिए कौन-सी साधना निश्‍चित रूप से कैसे करें, इसका जो यथार्थ ज्ञान कराते हैं, वे हैं गुरु ! प्रस्तुत लेख में वर्णित गुरुमहिमा पढकर जिज्ञासु एवं साधकों में गुरु के प्रति श्रद्धा निर्मित होगी ।

 

१. ‘गुरु’ कौन हैं ?

जो शिष्य का अज्ञान नष्ट कर, उसकी आध्यात्मिक उन्नति हेतु जो साधना बताते हैं तथा उससे वह करवाते हैं एवं अनुभूति भी प्रदान करते हैं, उन्हें ‘गुरु’ कहते हैं । गुरु का ध्यान शिष्य के ऐहिक सुख की ओर नहीं होता (क्योंकि वह प्रारब्धानुसार होता है), केवल उसकी आध्यात्मिक उन्नति की ओर रहता है ।

 

२. शिष्य के जीवन में गुरु का महत्त्व क्या है ?

१. इस विषय में संत कबीर ने कहा है –

बिना गुरु के गति नहीं, गुरु बिन मिले न ज्ञान ।
निगुरा इस संसार में, जैसे सूकर, श्‍वान ॥

२. जिसे श्री गुरु द्वारा ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है, उसके लिए भवसागर से तर जाने का कोई भी उपाय नहीं रहता । वह श्रीहरि को भी प्रिय नहीं होता, इसलिए उसका जन्म ही व्यर्थ सिद्ध होता है । (ज्ञानदेवगाथा, अभंग ६९८, पंक्ति १ का अनुवाद)

इसी बात को संत कबीर इस प्रकार कहते हैं –

गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष ।
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटे न दोष ॥

३. श्री शंकराचार्यजी ने कहा है, ‘ज्ञानदान करनेवाले सद्गुरु को जो शोभा दे, ऐसी उचित उपमा इस त्रिभुवन में कहीं भी नहीं है । यद्यपि उन्हें पारस की उपमा दी जाए, तो वह भी अपर्याप्त होगी; क्योंकि पारस लोहे को सुवर्णत्व तो दे सकता है; परंतु उसे पारसत्व नहीं दे सकता ।’ समर्थ रामदासस्वामीजी ने भी दासबोध में (दशक १, समास ४, पंक्ति १६ में) कहा है, पारस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है; परंतु सोना अपने स्पर्श से लोहे को सोना नहीं बना सकता; परंतु गुरु शिष्य को ‘गुरुपद’ प्राप्त करवाते हैं । इसलिए पारस की उपमा भी गुरु के लिए अपर्याप्त है ।

संत कबीरजी का कथन है –

‘गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त ।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त ॥’

 

३. गुरु हमारे प्रारब्ध भोगने की क्षमता कैसे बढाते हैं ?

मंद प्रारब्ध भोगने की क्षमता मध्यम साधना से, मध्यम प्रारब्ध भोगने की क्षमता तीव्र साधना से तथा तीव्र प्रारब्ध भोगने की क्षमता केवल गुरुकृपा से प्राप्त होती है ।

अनुभूति

नामजप करते समय ‘कु. मंगल मयेकर के कर्मों का लेखा चित्रगुप्त लिख रहे हैं तथा उस संदर्भ में वे प.पू. भक्तराज महाराजजीसे चर्चा कर रहे हैं’, ऐसा दृश्य दिखाई देना, इस विषय में आश्‍चर्य प्रतीत होने पर, भक्तों के कर्मों का लेखा गुरु अथवा संबंधित देवता ही लिखते हैं, यह चित्रगुप्त द्वारा कहा जाना

‘मैं कु. मंगल मयेकरजी के पास बैठकर नामजप कर रही थी । उस समय आंखें मूंदने पर कुछ समय पश्‍चात प्रतीत हुआ कि मुझे ‘चित्रगुप्त दिखाई दे रहे हैं ।’ वे श्‍वेत रंग के कौशेय (रेशमी) वस्त्र धारण किए हुए थे, उनके कंधे पर श्‍वेत रंग का कौशेय उपवस्त्र (उपरना) था, दाढी श्‍वेत थी तथा उनका मुखमंडल अत्यंत तेजस्वी था । उन्हें देखकर मन शांत हुआ । वे एक सिंहासन पर विराजमान थे । उनके हाथ में एक सुंदर बही भी थी । कुछ क्षण पश्‍चात वे मुझे प.पू. भक्तराज महाराजजी के चरणों के निकट बैठे दिखाई दिए । वे प.पू. बाबा से मंगलजी के विषय में कुछ पूछ रहे थे । उस समय मेरे मन में प्रश्‍न उभरा, ‘प्रत्येक जीव के लेन-देन की गणना (कर्मों का लेखा) यदि चित्रगुप्त करते हैं, तो वे इस विषय में प.पू. बाबा से क्यों पूछ रहे हैं ?’ उस समय चित्रगुप्त ने उत्तर दिया, ‘जिस जीव के गुरु होते हैं अथवा जो जीव भगवान का भक्त होता है, उसके जीवन की सर्व गणना उसके गुरु अथवा संबंधित देवता के पास रहती है । यद्यपि गुरु ऐसे जीव के प्रारब्ध में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं करते, तथापि उनका महत्त्व सर्वाधिक होता है । किंतु, अन्य जीवों का कर्म-लेखा सीधे मैं ही लिखता हूं ।’ चित्रगुप्त की यह बात सुनकर मुझे जीवन में गुरु का महत्त्व एक बार पुनः अनुभव हुआ ।’ – डॉ. (कु.) आरती तिवारी, संभाजीनगर (कु. मंगल मयेकर के देगत्याग से पूर्व साधिका को हुई अनुभूति)

(सनातन की साधिका कु. मंगल मयेकर का मृत्यु के समय आध्यात्मिक स्तर ६४ प्रतिशत था । उनके देहत्याग से पूर्व उनकी शुश्रूषा (सेवा) करनेवाली साधिका डॉ. (कु.) आरती तिवारी को प्रतीत हुआ कि ‘चित्रगुप्त कु. मंगल का कर्मलेखा लिखने से पहले गुरु से चर्चा करते हैं ।’ (डॉ. (कु.) आरती के इस भाव के कारण ही उन्हें वैसा प्रतीत हुआ) – संकलनकर्ता)

गुरु अपने शिष्य को माध्यम न बनाकर ‘स्वयंप्रकाशी’ क्यों बना देते हैं !

माध्यम बनकर यदि कोई कार्य करता है, तो उसकी प्रगति नहीं होती । वह परप्रकाशी रहता है । इसके विपरीत गुरु शिष्य से कार्य करवाकर उसकी क्षमता बढाते हैं; जैसे श्री रामकृष्ण ने विवेकानंद का आत्मबल बढाया एवं तत्पश्‍चात उनसे कार्य करवाया ।’ (८)

गुरु के अस्तित्व सेे कैसे होती है शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति !

सूर्य के उगने पर फूल खिलते हैं । सूर्य फूलों से नहीं कहता, खिलो । तद्वत गुरु के अस्तित्व सेे शिष्य की उन्नति होती है ।

आध्यात्मिक उन्नति के लक्षण क्या हैं, कैसे जानें कि आध्यात्मिक प्रगति हो रही है ?

इस संदर्भ में प्रसंग के माध्यम से समझेंगे –

गुरु-आज्ञापालन से रोगमुक्त होना ! – एक बार तीव्र ज्वर के कारण रामानंदजी महाराज लेेटे हुए थे । उनके गुरु श्री अनंतानंद साईश को जब यह ज्ञात हुआ, तो वे उन्हें सम्बोधित कर बोले, ‘‘ठंडे पानी से स्नान करो, ज्वर उतर जाएगा ।’’ इतने तीव्र ज्वर में भी बिना किसी विचार के रामानंदजी कुएं पर गए एवं उन्होंने ठण्डे पानी की दो-तीन बालटियां शरीर पर डालीं । तुरन्त ही ज्वर उतर गया एवं उनकी थकावट भी दूर हो गई और उन्हें प्रसन्नता अनुभव होने लगी ।

गुरु की बताई किसी कृति के संदर्भ में मन में विकल्प लाए बिना, गुरुके आज्ञानुसार करने से मेरा कल्याण ही होगा, इस श्रद्धा से कृति करना शिष्य की प्रगति दर्शाता है । गुरु अनेक प्रसंगों के माध्यम से शिष्यों से साधना करवाकर लेते हैं, तथा परीक्षा से शिष्य के मन की तैयारी अन्य शिष्यों को दिखाते हैं ।

अनुभूति

‘मुझे सनातन के रामनाथी, गोवा के आश्रम में आए साढे छः मास हुए थे । इन साढे छः मास की कालावधि में गुरु के अस्तित्व से शिष्य की उन्नति होती है’, इसका मुझे अनुभव हुआ । ‘इस कालावधि में तुमने क्या सीखा’, ऐसा यदि कोई पूछता, तो यह बताने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं । अनुभव शब्दातीत हैं, इसलिए शब्दों में बांधना संभव नहीं । उसी प्रकार ‘परात्पर गुरु के (प.पू. डॉक्टरजी के) अस्तित्व हुए’, प.पू. डॉक्टरजी को यह बताने पर उन्होंने कहा, ‘आप हमारे साथ कई वर्षों से हैं’, ऐसा मुझे लगा ।’’ सत्य तो यह है कि वर्ष ही नहीं, अपितु अनेक जन्मों से वे हमारे साथ हैं तथा हमसे साधना करवा रहे हैं !’ – श्री. गणेश कामत, सनातन आश्रम, मूल्की, कर्नाटक. (वर्ष २००७-२००८)

गुरु शिष्य के मन के विचार कैसे समझ लेते हैं ?

गुरु सर्वज्ञ होते हैं । शिष्य गुरु से जो भी अपेक्षा रखता है, वह बिंब-प्रतिबिंब न्याय द्वारा गुरु को ज्ञात होता है । विचार का (बिंब का) प्रतिबिंब गुरु के मन में प्रकट होता है, इसलिए उन्हें शिष्य के विचार ज्ञात होते हैं । ये विचार शिष्य की उन्नति हेतु पोषक हों, तो गुरु उनके अनुसार आचरण करते हैं । उदा. सिद्धारूढ महाराज का एक शिष्य एक बार धर्मशाला की स्वच्छता कर रहा था; परंतु उस समय उसके मन में स्त्रीसंबंधी विचार चल रहे थे । तभी सिद्धारूढ महाराज वहां आए एवं शिष्य की पीठ पर एक हाथ मारकर उससे बोले, ‘‘भोजन के लिए बैठते समय शौचालय से संबंधित विचार क्यों ?’’

अनुभूति

शिष्य के मन के विचार जानकर गुरु द्वारा ‘सनातन प्रभात’ का ‘गुरुपूर्णिमा विशेषांक’ देकर, ‘गुरुतत्त्व एक ही है’, इस की प्रतीति देना

‘श्री. यशवंत दीक्षित सनातन संस्था के सत्संग में नियमित आकर सेवाओं में सहभागी होते थे; परंतु उनके गुरु भिन्न होने से वे अपने गुरु द्वारा बताई साधना करते थे । तत्पश्‍चात उन्हें कुलदेवता के नाम का ही गुरुमंत्र मिला । २४.७.२००२ को गुरुपूर्णिमा में उन्हें पूजा बताने की सेवा दी गई थी । गुरुपूर्णिमा के दिन सवेरे वे अपने गुरु के पास पूजन के लिए गए । संपूर्ण समारोह समाप्त होने पर वे निकलनेवाले ही थे कि उनके गुरु ने उनसे कहा, ‘‘थोडा रुक जाइए । आपको एक वस्तु देनी है ।’’ जब सब लोग चले गए, तब गुरु ने उन्हें बुलाकर कहा, ‘‘यह लीजिए ।’’ दीक्षितजी ने खोलकर देखा, तो आशीर्वाद के रूप में गुरु ने उन्हें ‘सनातन प्रभात’का ‘गुरुपूर्णिमा विशेषांक’ दिया था । उस क्षण वे भावविभोर हुए एवं वहां से सीधे सनातन के गुरुपूर्णिमा महोत्सव के नियोजित सभागृह पर पहुंचे । दिनभर वे गुरुपूर्णिमा महोत्सव में आनंदपूर्वक सहभागी हुए ।’ – एक साधक, कल्याण, जनपद ठाणे, महाराष्ट्र.

गुरु अपने शिष्य को साधना में उन्नति होने पर प्राप्त
होनेवाली सिद्धियों से बचकर रहना सिखाते हैं ! ऐसा क्यों?

१. अपनेआप प्राप्त सिद्धियों का प्रयोग करने के मोह से बचना एवं सिद्धियों में न फंसना, यह उस स्तर के शिष्य का शिक्षण होता है ।

२. कार्य की सफलता हेतु सिद्धियों के प्रयोग की आवश्यकता पडने पर गुरु समय-समय पर सिद्धि उपलब्ध करवाते भी हैं ।

३. इस संदर्भ में रमण महर्षि के वचन – ‘‘समझ लो तुमने मुझे गुरु माना, तत्पश्‍चात तुमने मुझे छोड भी दिया, तो मैं तुम्हें कभी नहीं छोडूंगा । यह आश्‍वासन सभी के लिए है । जिस प्रकार शेर के जबडों में पकडा जंगली जानवर छूट नहीं सकता, उसी समान जिस पर गुरु ने कृपा की है, उसके मोक्ष तक पहुंचे बिना गुरु उसे नहीं छोडते हैं । शिष्य नरक में भी जा रहा हो, तो भगवान (अर्थात मैं, रमण) तुम्हारे पीछे-पीछे आकर तुम्हें वापस ले आऊंगा । गुरु तुम्हारे अंदर भी हैं एवं बाहर भी । गुरु ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करते हैं, जिससे तुम अंतर्मुख बन सको । तुम्हें आत्मा की ओर अर्थात ब्रह्म की ओर लगाव हो, इसलिए गुरु अंतर में भी अर्थात हृदय में सिद्धता (तैयारी) करते हैं । मैं मौन द्वारा ही उपदेश देता हूं । तुम मुझ से अनन्य हो, तो तुम्हारा मनोलय होने तक मैं दायित्व लेता हूं । तुम खुश रहो । जो योग्य होगा वही भगवान (रमण) करेंगे । पूर्णरूप से मेरी शरण में आओ, इतना ही तुम्हें करना है एवं शेष सब मुझ पर छोड दो ।

टिप्पणी : *** ‘शिष्य हेतु गुरु नरक में भी जाने के लिए तैयार हैं ।’, महर्षि का यह कथन शिष्य को मानसिक आधार देने के दृष्टिकोण से है । प्रत्यक्ष में शिष्य द्वारा गुरु ऐसी भूल होने ही नहीं देते जिससे वह नरक में जाए । भूल हो जाए तो प्रायश्‍चित के रूप में शिष्य को जो भोगना पडे, उसे भुगतने देते हैं ।

 

क्या ईश्‍वर को ही गुरु मान सकते हैं ?

संत कबीर कहते हैं –

गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष ।
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटे न दोष ॥

अर्थात गुरु के बिना न ज्ञान मिलता है, न मोक्ष, न हमें सत्य समझ में आता है और ना ही हमारे दोष । इसलिए हमारे जीवन में देहधारी गुरु की अत्यंत आवश्यकता है ।

वर्तमान जन्म में छोटी-छोटी बातों के लिए भी प्रत्येक व्यक्ति किसी अन्य से अर्थात शिक्षक, डॉक्टर, वकील इत्यादि से मार्गदर्शन लेता है । ऐसी स्थिति में जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति देनेवाले गुरु का महत्त्व कितना होगा, इसकी कल्पना कर पाना भी असंभव है ।

वास्तव में ईश्‍वर और गुरु में हम भेद ही नहीं कर सकते । ईश्‍वर निर्गुण रूप हैं, तो गुरु ईश्‍वर के सगुण रूप हैं । गुरु हमारा हाथ पकडकर हमसे प्रत्यक्ष साधना करवाकर लेते है । संत कबीर गुरु का महत्त्व बताते हुए कहते हैं,

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय ।
बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोविंद दियो बताय ॥

अर्थ : इस दोहे से तात्पर्य है कि गुरु और भगवान दोनों ही मेरे सम्मुख खडे हैं, परंतु ईश्‍वर ने गुरु को जानने का मार्ग दिखा दिया है ।
कहने का भाव यह है कि जब आपके समक्ष गुरु और ईश्‍वर दोनों विद्यमान हों, तो पहले गुरु के चरणों में अपना शीश झुकाना चाहिए, क्योंकि गुरु ने ही हमें भगवान के पास पहुंचने का ज्ञान प्रदान किया है ।
हमारे यहां कहा गया है,

गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्‍वर ।
गुरु साक्षात परम ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥

इस श्‍लोक में गुरु की महिमा को मण्डित किया गया कि गुरु यदि मिल जाएं, तो जीवन में भगवान को पाना सरल हो जाता है और गुरु के रूप में साक्षात ईश्‍वर की प्राप्ति हो जाती है ।

श्री शंकराचार्यजीने कहा है, ‘ज्ञानदान करनेवाले सद्गुरु को जो शोभा दे, ऐसी उचित उपमा इस त्रिभुवन में कहीं भी नहीं है । यद्यपि उन्हें पारस की उपमा दी जाए, तो वह भी अपर्याप्त होगी; क्योंकि पारस लोहे को सुवर्णत्व तो दे सकता है; परंतु उसे पारसत्व नहीं दे सकता ।’ समर्थ रामदासस्वामीजी ने भी दासबोध में (दशक १, समास ४, पंक्ति १६ में) कहा है, पारस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है; परंतु सोना अपने स्पर्श से लोहे को सोना नहीं बना सकता; परंतु गुरु शिष्य को ‘गुरुपद’ प्राप्त करवाते हैं । इसलिए पारस की उपमा भी गुरु के लिए अपर्याप्त है । इसलिए जीवन में गुरु का होना आवश्यक है ।

स्त्रोत :  गुरुका महत्त्व, प्रकार एवं गुरुमंत्र

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