गुरुमंत्र किसे कहते हैं ? इससे आध्यात्मिक प्रगति शीघ्र होती है ! ऐसा क्यों?

१. गुरुमंत्र में केवल अक्षर ही नहीं; अपितु ज्ञान, चैतन्य एवं आशीर्वाद भी होते हैं, इसलिए प्रगति शीघ्र होती है । उस चैतन्ययुक्त नाम को सबीजमंत्र अथवा दिव्यमंत्र कहते हैं । उस बीज से फलप्राप्ति हेतु ही साधना करनी आवश्यक है ।

२. गुरु पर श्रद्धा होने के कारण स्वयं अपने द्वारा निर्धारित मंत्र की अपेक्षा वह अधिक श्रद्धापूर्वक लिया जाता है । उसी प्रकार, गुरु का स्मरण होने के साथ ही नाम जपने का स्मरण होता है, जिससे वह अधिक लिया जाता है ।

 

दूसरों का नामजप (साधना) आरंभ करवाने हेतु गुरु में कौन से घटक होने आवश्यक हैं ?

नामजप, सेवा, त्याग, दूसरों के प्रति निरपेक्ष प्रेम (प्रीति), श्रद्धा इत्यादि घटकों की मात्रा न्यूनतम ७० प्रतिशततक होना चाहिए । (सामान्य व्यक्ति में ये घटक ० प्रतिशत से २ प्रतिशत होते हैं ।) अहं केवल ५ प्रतिशत होना चाहिए । (सामान्य व्यक्तियों में ये ३० प्रतिशत होता है ।)

जब गोंदवलेकर महाराज सभी को राम नाम का जप करने के लिए कहते हैं (जो उनकी पुस्तक में भी लिखा है), वह भी इस अर्थ से कि ‘नामजप करो’ । यह न समझ पाने से कई लोगों को लगता है कि उन्हें गुरु मिल गए । तब गुरु मिलने पर भी अनुभूतियां क्यों नहीं होती, इस सोच में वे पड जाते हैं । प्रत्यक्ष में उन्हें गुरुप्राप्ति हुई ही नहीं होती ।

 

गुरुमंत्र किसे मिलता है ?

तीव्र मुमुक्षुत्व अथवा गुरुप्राप्ति की एवं गुरुकृपा की तीव्र उत्कंठा होने पर ही गुरुमंत्र मिलता है । सामान्य व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर २० प्रतिशत तथा मोक्ष प्राप्त व्यक्ति का स्तर १०० प्रतिशत होता है । सामान्य व्यक्ति की अध्यात्म में रुचि ही नहीं होती । ३० प्रतिशत स्तर का व्यक्ति देवपूजा, पोथीपठन, मंदिर जाना, इतना ही करता है । ४० प्रतिशत स्तर पर नामजप कर सकते हैं । ५० प्रतिशत स्तर पर सेवा एवं ६० प्रतिशत स्तर पर त्याग वास्तविक अर्थ में आरंभ होता है । इसी काल में ५५ प्रतिशत स्तर पर गुरुप्राप्ति होकर गुरुमंत्र मिलता है । संक्षेप में, अध्यात्म में रुचि ५० प्रतिशत से अधिक हुई कि कोई संत उस साधक के लिए गुरु का कार्य करते हैं । तन, मन एवं धन का ५५ प्रतिशत से अधिक भाग अध्यात्म हेतु अर्पित करने के पश्‍चात ही गुरुमंत्र मिलता है । इसीलिए अनेक वर्ष गुरु के सान्निध्य में होने पर भी जबतक उतना स्तर न हो जाए, गुरु उसे गुरुमंत्र नहीं देते ।’

 

‘गुरुमंत्र क्यों नहीं मांगना चाहिए ?

१.किसी भी गुरु से गुरुमंत्र न मांगें । गुरुमंत्र ही क्या, अन्य किसी विषय का भी यदि कोई पात्र न हो, तो गुरु उसे वह नहीं देते एवं पात्र हुआ तो स्वयं ही देते हैं । एक दिन जब भाऊ बिडवई (अच्युतानंद) अपने कार्यालय जा रहे थे, तो प.पू. भक्तराज महाराज (सनातन संस्था के प्रेरणास्रोत) बाबा ने स्वयं बुलाकर उन्हें गुरुमंत्र दिया ।’

२. जो अपात्र है, उसे गुरुमंत्र नहीं देते हैं ! – एक बार एकनाथ महाराज के पास शिष्यत्व प्राप्तिके उद्देश्य से एक व्यक्ति आया एवं उपदेश देने के लिए उनसे विनती करने लगा । जिस प्रकार उल्टे घडे पर डाला पानी व्यर्थ जाता है, उसी प्रकार विषयासक्त मन को दिया ज्ञान व्यर्थ जाता है । यह गृहस्थ एकनाथ महाराज का पडोसी था और उनका उपहास किया करता था । उसे उपदेश देने से उसका कोई उपयोग न होगा, इसलिए टालने हेतु जानबूझकर एकनाथ महाराज ने यह कहकर उसे लौटा दिया कि ‘‘आज का दिन अच्छा नहीं है, अब आगे उत्तम दिन देखकर तुम्हें सूचित करूंगा ।’’ दो वर्ष उपरांत एक दिन पुनः वह गृहस्थ ‘उपदेश दो ! उपदेश दो !’, कहते हुए हाथ धोकर उनके पीछे पड गया । तब एकनाथ महाराज ने उससे कहा, ‘‘कल सवेरे आठ बजे आओ ।’’

दूसरे दिन उन्होंने घर के सदस्यों से कहा, ‘‘तुम पूजा की समस्त सिद्धता रखो, केवल जल मत रखना !’’ इतने में उपदेश लेनेवाला गृहस्थ आया एवं एकनाथ महाराज के घर के चबूतरे पर पालथी मारकर आराम से बैठ गया । पूर्व में बनाई योजनानुसार एकनाथ महाराज बोले, ‘‘आज इन लोगों को हो क्या गया है ? पूजा की समस्त सामग्री रखी; परंतु जल ही नहीं रखा !’’, ऐसा कहकर वे लोटा लेकर अन्दर-बाहर करने लगे । एकनाथ महाराज जब बाहर आए तो वह गृहस्थ बोला, ‘‘महाराज ! मुझे उपदेश कब देंगे ? एक बार आप उपदेश दो, तो मैं निश्‍चिंत होकर खेतों पर जा सकूंगा !’’ एकनाथ महाराज बोले, ‘‘अरे ! तुम दो वर्ष से ‘उपदेश दो, उपदेश दो’ कहकर मेरे पीछे पडे हो; परंतु पूजा के लिए जल चाहिए और मैं लोटा लेकर कब से भीतर-बाहर कर रहा हूं, यह प्रत्यक्ष देखने पर भी तुम नहीं कह सके कि ‘जल मैं लाता हूं ।’ वास्तव में तुम शुचित वस्त्र पहने हुए थे, इसलिए तुरंत उठकर जल ले आते तो अबतक तुम्हें उपदेश मिल चुका होता । आलस के कारण पचास पग की दूरी सेेेेें निःशुल्क जल भी नहीं ला सके, तो उपदेश लेकर गुरु की सेवा हेतु काया, वाचा, मन और धन अर्पित करना तुम्हारे लिए कैसे संभव होगा ? अभी भी तुममें उपदेश लेने की सिद्धता नहीं दिखाई देती, इसलिए आगे देखेंगे ।’’ ऐसा कहकर एकनाथ महाराज ने से लौटा दिया ।

३. सिद्धता होनेतक गुरुमंत्र नहीं दिया जाता है ! – एक बार पिताजी से मार्तंड (नानामहाराज तराणेकरजी के बचपन का नाम) ने हठ किया कि, ‘‘बाबा, मुझे गुरुमंत्र देकर अपना शिष्य बनाओ ।’’ पिताजी बोले, ‘‘मैं अन्यों को गुरुमंत्र देता हूं; परंतु तुम्हें गुरुमंत्र देने की मुझे दत्तप्रभु की आज्ञा नहीं है ।’’ मार्तंड ने पूछा, ‘‘तो मैं क्या करूं ? मेरा गुरु कौन है ? कौन से देवता की उपासना करूं, जो मुझे सद्गुरु की प्राप्ति करवाएगा ?’’ बच्चे की लगन देखकर शंकरशास्त्री बोले, ‘‘श्री गुरुचरित्र का पारायण करो । इस अमृतमय ग्रंथराज की कृपा से ही तुझे सद्गुरु की प्राप्ति होगी ।’’

 

पति-पत्नी दोनों यदि शिष्य हों, तो पत्नी को
अलग से गुरुमंत्र देने की आवश्यकता नहीं । ऐसा क्यों ?

पति-पत्नी दोनों यदि शिष्य हों, तो बाबा पति को गुरुमंत्र देकर पत्नी से कहते हैं कि वही गुरुमंत्र पति से ले; पति से कभी ऐसा करने के लिए नहीं कहते । इस संदर्भ में बाबा कहते हैं, ‘पत्नी पति की सेवा करती हो एवं पतिव्रता हो, तो ऐसे में पति के मोक्ष प्राप्त कर लेने पर उसे भी मोक्ष मिल जाता है । इसलिए उसे अलग से गुरुमंत्र देने की आवश्यकता नहीं होती ।

 

पति और पत्नी दोनों ने एक गुरुमंत्र लिया है,
और पति ने मंत्रजाप करना छोड दिया, तो इस स्थिति में क्या करें ?

प्रत्येक शिष्य से गुरु का संबंध व्यक्तिगत स्तर पर होता है । शिष्य का व्यावहारिक जीवन तथा संसार से संबंध के संदर्भ में गुरु प्रारब्ध के अनुसार जैसा होगा, वैसा होने देते हैैं । मनुष्य का जीवन ही प्रारब्ध के अधीन होता है। गत जन्म के लेन-देन पूरा करने के लिए हमारा जन्म होता है । इस संसार के जो भी संबंध हैं, वे लेन-देन पूरा करने के लिए ही हैं । पत्नी और पति का संबंध भी ऐसा ही है । गुरुप्राप्ति के उपरांत हमारी साधना का अगला प्रवास प्रारंभ होता है । गुरु-शिष्य का रिश्ता यह संबंध जन्म-मृत्यु के चक्र से छुडानेवाला है । इसलिए किसी कारणवश यदि पति ने मंत्रजाप छोड दिया, तो भी पत्नी उसे कर सकती है । उस मंत्रजाप का उसे निश्‍चित लाभ होगा ।

 

खरा गुरुमंत्र किसे कहते हैं और उसका सामर्थ्य क्या है ?

गुरु जब उत्स्फूर्त हों, स्वयं ही किसी को कोई नाम जपने के लिए कहते हैं, तब वह गुरुमंत्र होता है । मात्र गुरुमंत्र मिलना पर्याप्त नहीं । वह जप सतत आरंभ रखना पडता है तथा उसे सेवा, त्याग एवं दूसरों के प्रति प्रेम इत्यादि से जोडना पडता है ।

१. एक साधक बाईस वर्ष सेेें प्रतिदिन बीस बार ललितासहस्रनाम का पाठ करते थे; अर्थात दिन में उनका बीस सहस्र बार जप हो रहा था, तब भी उन्हें अनुभूतियां नहीं हुई थीं । उनका अध्यात्मसंबंधी ज्ञान भी बहुत है । हमारे प्रथम अभ्यासवर्ग में जब उन्होंने सुना कि कुलदेवता का जप करना चाहिए, तो वे बोले, ‘‘बाईस वर्ष का जप कैसे छोड दूं ? अभ्यासवर्ग में आऊंगा; परंतु अपना नित्य का जप ही आरंभ रखूंगा ।’’ अगले अभ्यासवर्ग में एक स्त्री ने बताया कि कुलदेवी के नाम द्वारा एक मास में ही उसके मनको आनंद हुआ । यह सुनने पर अभ्यासवर्ग के अंत में उस साधक ने पूछा, ‘‘कुलदेवी का जप न्यूनतम कितना करूं ? शेष समय ललितासहस्रनाम का ही उच्चारण करूंगा ।’’ हमने उनसे कहा, ‘‘प्रतिदिन छः माला जप करो ।’’ उस रात उसे इतना आनंद अनुभव हुआ जो जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था । तत्पश्‍चात उन्होंने दूसरे एक साधक से पूछा, ‘‘क्या गुरु ने शक्तिपात किया ?’’ उन्हें ऐसी अनुभूति शीघ्र इसलिए नहीं हुई कि गुरु ने शक्तिपात किया था, अपितु इसलिए कि उन्होंने योग्य नाम का जप किया था ।

 

क्या गुरुमंत्र देने से गुरु की शक्ति घट जाती है ?

अनेक लोगों को गुरुदीक्षा, गुरुमंत्र इत्यादि देने पर भी अथवा अनुग्रह, कृपा इत्यादि करने पर भी, ऐसा नहीं होता कि गुरु की शक्ति न्यून हो जाए । इसके कारण आगे दिए गए हैं ।

१. सत्कार्य हेतु शक्ति कभी भी व्यय नहीं होती । असत अर्थात मायासंबंधी कार्य हेतु ही शक्ति व्यय होती है ।

२. सत्य तो यह है कि गुरु ईश्‍वर का सगुण रूप होते हैं, इसलिए उनमें ईश्‍वरसमान अमर्यादित शक्ति होती है ।

३. गुरुमंत्र देते समय, गुरु उसमें शक्ति डालकर देते हैं, जिससे गुरु के देहत्याग उपरांत भी ऐसा नहीं होता कि गुरुमंत्र की शक्ति न्यून हो जाए ।

 

गुरुमंत्र कहां जपना चाहिए ?

‘बाबा का गुरुमंत्र कर्मकांड का नहीं, भक्तियोग का होता है; इसलिए चौबीस घंटे किसी भी स्थान पर जपें । बाबा ने स्वयं कुछ लोगों से कहा है, ‘पाखाने में जप करो’ । मासिक धर्म हो, सूतक हो अथवा कुछ भी हो, जप करना ही चाहिए ।’ सभी स्थल एवं काल ईश्‍वर ने ही उत्पन्न किए हैं, इसलिए कहां एवं कब गुरुमंत्र नहीं जपना चाहिए, ऐसा प्रश्‍न नहीं उठता । परंतु गुरु ने ही कोई बंधन बताए हों, तो उनका अवश्य पालन करें ।

 

‘गुरुमंत्र गुप्त रखना चाहिए’, ऐसा क्यों कहते हैं ?

१. किसी साधक की आवश्यकता ध्यान में रख जब गुरु उसे कोई मंत्र देते हैं, तब उसमें उनकी शक्ति रहती है । साधक यदि वह मंत्र किसी और को बताए, तो बतानेवाले साधक में शक्ति न होने के कारण, उस मंत्र से साधना करने पर भी दूसरे को लाभ नहीं होता । ऐसे में दूसरे व्यक्ति का अनुभव सुनकर जो साधक उसे वह मंत्र बताता है उसकी बुद्धि भ्रमित हो सकती है । इस कारण उसकी साधना रुकने की आशंका रहती है ।

२. कोई बात गुप्त रखने को कहा जाए, तो उसका स्मरण सदैव होता है । इस नियमानुसार, मंत्र गुप्त रखने को कहा जाए तो मंत्रसाधना अधिक होगी ।

३. प्रत्येक के लिए मंत्र भिन्न होने के कारण किसी का मंत्र क्या है, यह जानने पर दूसरे को कोई लाभ नहीं होगा ।

४. गुरुमंत्र में केवल नामजप ही नहीं; अपितु मंत्र भी होता है; तो अयोग्य पद्धति से मंत्रोच्चारण करने पर दूसरे की हानि भी हो सकती है ।

‘गुरुमंत्र गुप्त रखें’, पाठक, साधक एवं गुरुबंधुओं के साथ इस नियम का पालन करने की आवश्यकता नहीं; क्योंकि चर्चा से सभी कुछ न कुछ तो सीख पाते हैं एवं कोई हानि भी नहीं होती ।

कथा – इस विषय में एक अच्छी कथा भी है । रामानुज को गोष्ठीपूर्णजी से ‘ॐ नमो नारायणाय’ का गुरुमंत्र मिला । गोष्ठीपूर्णजी ने उन्हें गुरुमंत्र गुप्त रखने की आज्ञा दी । ‘इस मंत्र से मुक्ति मिलती है’, गुरु के ऐसा कहने पर वे निकट के एक मंदिर के शिखर पर चढकर ऊंचे स्वर में वह मंत्र बोलने लगे । अनेक लोगों के कानों में वह मंत्र पडा । इस बात का पता लगने पर गोष्ठीपूर्णजी अति क्रोधित हुए एवं उन्होंने रामानुज से कहा, ‘‘तुमने गुरु-आज्ञा का पालन नहीं किया । तुम्हें नरक में सडना पडेगा ।’’ इस पर रामानुज ने उत्तर दिया, ‘‘आपकी कृपा से ये सर्व स्त्री-पुरुष यदि मुक्ति प्राप्त कर लेंगे, तो मैं आनंद से नरक में जाने के लिए सिद्ध (तैयार) हूं ।’’ यह सुनकर गोष्ठीपूर्णजी ने प्रसन्न होकर कहा, ‘‘आज से विशिष्टाद्वैतवाद, ‘रामानुजदर्शन’ के अर्थात तुम्हारे नाम से जाना जाएगा ।’’

 

अध्यात्मशास्त्र के अनुसार साधना करनेवाले के लिए गुरुमंत्र अनिवार्य नहीं ! ऐसा क्यों ?

१. गुरु अर्थात वे केवल देहधारी व्यक्ति नहीं, अपितु पृथ्वी पर ईश्‍वर का अवतरित तत्त्व ही है । गुरु ने ही अध्यात्मशास्त्र बताया है । इसलिए अध्यात्मशास्त्रानुसार साधना करनेवाले को देहधारी गुरु एवं गुरुमंत्र की आवश्यकता नहीं होती । ऐसे साधक जिस देवता का नामजप करते हैं, वह देवता ही उनके गुरु होते हैं ।

२. माता पिता का अपनी संतान के प्रति प्रेम होता है । माता-पिता एवं बेटे को यह बात एक-दूसरे से कहनी नहीं पडती । उसी प्रकार खरे गुरु-शिष्य के संबंध में शिष्य को ज्ञात होता है कि उस पर गुरु की कृपा है । गुरु को यह बात कहनी नहीं पडती । तो भी आरंभ में अधिकांश शिष्यों को यह ज्ञात नहीं होता कि उन पर गुरु की कृपा है । उन्हें इस बात का बोध हो, इसलिए गुरु उन्हें गुरुमंत्र देते हैं । इससे शिष्य को प्रतीत होने लगता है कि मेरे गुरु हैं, उनका मुझ पर ध्यान है एवं उनकी मुझ पर कृपा है ।

 

गुरुमंत्र से केवल आध्यात्मिक उन्नति होती है अथवा लौकिक उन्नति भी संभव है ?

हमारा लौकिक जीवन हमारे पिछले जीवन के कर्म तथा संचित प्रारब्ध पर निर्भर होता है ।

इसका अध्यात्मिक जीवन से कोई संबंध नहीं होता । साधना से भौतिक जीवन की वस्तुओं द्वारा मिलनेवाले सुख की तुलना में आत्मिक आनंद की ओर हमारा ध्यान केंद्रित होता है । तब भौतिक जीवन कैसा है, इससे कोई अंतर नहीं पडता । मंत्र तथा साधना के प्रभाव से हमारे जीवन में आनेवाली आध्यात्मिक समस्याएं दूर होती हैं । जीवन की समस्याओं में ८० प्रतिशत समस्याओं के कारण आध्यात्मिक होते हैं, अत: साधना से उसमें राहत मिलने के कारण भौतिक जीवन में भी निश्‍चितरूप से लाभ दिखाई देता है ।

 

गुरुमंत्र मिलने के बाद भी किन कारणों से साधना में अधोगति होती है?

गुरुमंत्र मिलना साधना में अंतिम ध्येय नहीं होता । गुरु की कृपा नियमित और सदैव प्राप्त करने के लिए प्रयास करते रहना होता है । गुरुकृपा होने के उपरांत भी साधना में कुछ शिष्यों की अधोगति होती है । इसके कारण हैं – गुरु द्वारा बताई गयी साधना न करना । गुरु के बताए गुरुमंत्र का जप न करने पर उस मंत्र का एवं गुरु का भी अपमान होता है । गुरु के विषय में उपहासपूर्ण बोलना । जैसे माता-पिता का हम उपहास नहीं करते, उसी प्रकार गुरु के विषय में भी नहीं बोलना चाहिए । गुरु के नाम का दुरुपयोग करना ।

कुछ लोग स्वार्थ के लिए गुरु के नाम का उपयोग करते हैं, इसका एक प्रसंग है –

मुंबई के एक संत प.पू. जोशीबाबा के गुरु बापू महाराज पत्र-लेखन हेतु एक शिष्य को पत्र का सार स्वयं सुनाते और वह शिष्य सार के आधार पर पत्र लिखकर शिष्यों को भेज देता था । बापू महाराज यदि कहते, कि पत्र द्वारा शिष्यों को एक पंखा भेजनेके लिए सूचित करो, तो वह शिष्य पत्र में दो पंखों की मांग करता । एक पंखा बापू महाराजजी को देता एवं दूसरा अपने लिए रख लेता । ऐसे गुरु का विश्‍वास जीतकर उन्हें लूटनेवाले शिष्य की निश्‍चित ही अधोगति होगी । इतना ही नहीं, इन शिष्यों को आगे अत्यधिक कष्ट भी सहने पडे ।

स्त्रोत : सनातनका ग्रंथ ‘ गुरुका महत्त्व, प्रकार एवं गुरुमंत्र ‘

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