गुरुमंत्र संबंधी भ्रांतिया

कई लोगोंके मनमें गुरुमंत्र संबंधी कुछ भ्रांतियां रहती हैं ।
आध्यात्मिक परिभाषा का ज्ञान न होने के कारण ये भ्रांतियां उत्पन्न हुई हैं ।

१. हमारे प्रेरणास्रोत प.पू. भक्तराज महाराज कई लोगों को ‘हरि ॐ तत्सत्’ जपने के लिए कहते हैं । लोगों को लगता कि उन्हें बाबा से गुरुमंत्र प्राप्त हुआ है । जब बाबा कहते कि ‘हरि ॐ तत्सत्’ जपो, तब उसका भावार्थ है – ‘नामजप करो’ ।

जब गोंदवलेकर महाराज सभी को राम नाम का जप करने को कहते हैं (जो उनकी पुस्तक में भी लिखा है), वह भी इस अर्थ से कि ‘नामजप करो’ । यह न समझ पाने से कई लोगों को लगता है कि उन्हें गुरु मिल गए । तब गुरु मिलने पर भी अनुभूतियां क्यों नहीं होती, वे इस सोच में पड जाते हैं । प्रत्यक्ष में उन्हें गुरुप्राप्ति हुई ही नहीं होती ।

२. अनेक बार गुरु दर्शनार्थी एवं साधक को अपनी बातों में भक्त या शिष्य कहकर संबोधित करते हैं । इससे कई लोगों के मन में यह बात घर कर जाती कि वे शिष्य हैं । गुरु के मन में सभी के प्रति जो समभाव होता है, इस कारण वो इस प्रकार का संबोधन करते हैं । पर जो उन्हें अपना गुरु मान रहा है, उसे विचार करना चाहिए कि क्या मैं शिष्य हूं । गुरुमंत्र मिलने पर साधक शिष्य बन जाता है; परंतु जहां शिष्यत्व ही बनावटी है वहां गुरुमंत्र खरा कैसे होगा ? हमारे प्रेरणास्रोत प.पू. भक्तराज महाराज कहते हैं, ‘‘जैसा शिष्य, वैसा गुरु !’’

 

क्या प्रत्येक व्यक्ति को गुरुमंत्र लेना चाहिए ?

तीव्र मुमुक्षुत्व अथवा गुरुप्राप्ति एवं गुरुकृपा की तीव्र उत्कंठा होने पर ही गुरुमंत्र मिलता है ।

सामान्य व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर २० प्रतिशत तथा मोक्ष प्राप्त व्यक्ति का स्तर १०० प्रतिशत होता है । अध्यात्म में सामान्य व्यक्ति की रुचि ही नहीं होती । ३० प्रतिशत स्तर का व्यक्ति देवपूजा, पोथीपठन, मंदिर जाना आदि करता है । ४० प्रतिशत स्तर पर नामजप कर सकते हैं । वास्तव में ५० प्रतिशत स्तर पर सेवा एवं ६० प्रतिशत स्तर पर त्याग आरंभ होता है । इसी काल में ५५ प्रतिशत स्तर पर गुरुप्राप्ति होकर गुरुमंत्र मिलता है । संक्षेप में, अध्यात्म में ५० प्रतिशत से अधिक रुचि हुई कि कोई संत उस साधक के लिए गुरु का कार्य करते हैं । तन, मन एवं धन का ५५ प्रतिशतसे अधिक भाग अध्यात्म हेतु अर्पित करने के पश्‍चात ही गुरुमंत्र मिलता है । इसीलिए अनेक वर्ष गुरु के सान्निध्य में रहने पर भी जबतक उतना स्तर न हो जाए, गुरु उसे गुरुमंत्र नहीं देते ।’

 

किसी को स्वप्न में गुरुमंत्र मिला, इस प्रकार की अनुभूति होती है । पर इसकी वास्तविकता क्या है ?

यहां संत तुकाराम महाराज का उदाहरण सुप्रसिद्ध है । तुकाराम महाराज को स्वप्नदृष्टांत द्वारा उनके गुरु बाबाजी चैतन्य से, ‘राम कृष्ण हरि’ गुरुमंत्र मिला था । जब गुरुमंत्र मिला, तब गुरु देहधारी नहीं थे । स्वप्न के माध्यम से मिला मंत्र किस स्वरूप का है – मानसिक स्वरूप का अर्थात इस न्यायानुसार, ‘जो मन में बसा, वह स्वप्न में दिखा’ अथवा आध्यात्मिक स्वरूप का अर्थात यथार्थ स्वप्नदृष्टांत है, यह समझने के लिए २ बातों पर ध्यान देना होगा ।

अ. लगातार तीन रात स्वप्न में कोई मंत्र मिले, तो वह स्वप्नदृष्टांत होता है ।

आ. इस विषय में आध्यात्मिक उन्नतों से पूछने पर वे बताते हैं कि मिला हुआ मंत्र केवल स्वप्न है अथवा स्वप्नदृष्टांत ।

 

गुरु उनकी शरण में आए सभी को गुरुमंत्र देते हैं अथवा उसकी योग्यता की भी जांच करते हैं ?

योग्यता की जांच करके गुरुमंत्र दिया जाता है । ‘एक बार एकनाथ महाराज के पास शिष्यत्व प्राप्ति के उद्देश्य से एक व्यक्ति आया एवं उनसे उपदेश देने लिए विनती करने लगा । जिस प्रकार औंधे घडे पर डाला पानी व्यर्थ जाता है, उसी प्रकार विषयासक्त मन को दिया ज्ञान व्यर्थ जाता है ।

यह गृहस्थ एकनाथ महाराज का पडोसी था और उनका उपहास किया करता था । उसे उपदेश देने से उसका कोई उपयोग न होगा, इसलिए टालने हेतु जानबूझकर एकनाथ महाराज ने यह कहकर उसे लौटा दिया कि ‘‘आज का दिन अच्छा नहीं है, अब आगे उत्तम दिन देखकर तुम्हें सूचित करूंगा ।’’ दो वर्ष उपरांत एक दिन पुनः वह गृहस्थ ‘उपदेश दो ! उपदेश दो !’, कहते हुए हाथ धोकर उनके पीछे पड गया । तब एकनाथ महाराज ने उससे कहा, ‘‘कल सवेरे आठ बजे आओ ।’’

दूसरे दिन उन्होंने घर के सदस्यों से कहा, ‘‘तुम पूजा की समस्त तैयारी रखो, केवल जल ही मत रखना !’’ इतने में उपदेश लेनेवाला गृहस्थ आया एवं एकनाथ महाराज के घर के चबूतरे पर पालथी मारकर आराम से बैठ गया । पूर्व नियोजित योजनानुसार एकनाथ महाराज बोले, ‘‘आज इन लोगों को हो क्या गया है ? पूजा की समस्त सामग्री रखी; परंतु जल ही नहीं रखा !’’, ऐसा कहकर लोटा लेकर वे अंदर-बाहर करने लगे । एकनाथ महाराज जब बाहर आए तो वह गृहस्थ बोला, ‘‘महाराज ! मुझे उपदेश कब देंगे ? एक बार आप उपदेश दो, तो मैं निश्‍चिंत होकर खेतों पर जा सकूंगा !’’ एकनाथ महाराज बोले, ‘‘अरे ! तुम दो वर्ष से ‘उपदेश दो, उपदेश दो’ कहकर मेरे पीछे पडे हो; परंतु पूजा के लिए जल चाहिए और मैं लोटा लेकर कब से भीतर-बाहर कर रहा हूं, यह देखने पर भी तुम नहीं कह सके कि ‘जल मैं लाता हूं ।’ वास्तव में तुम शुचित वस्त्र पहने हुए थे, इसलिए तुरंत उठकर जल ले आते तो अबतक तुम्हें उपदेश मिल चुका होता । आलस के कारण पचास पग की दूरी से निःशुल्क जल भी नहीं ला सके, तो उपदेश लेकर गुरु की सेवा हेतु काया, वाचा, मन और धन अर्पित करना तुम्हारे लिए कैसे संभव होगा ? अभी भी तुममें उपदेश लेने की तैयारी नहीं दिखाई देती, इसलिए आगे देखेंगे ।’’ ऐसा कहकर एकनाथ महाराज ने उसे लौटा दिया ।’

 

गुरु द्वारा शिष्य को अन्य गुरु के पास भेजा जाता है क्या ?

कुछ ऐसे उदाहरण विशिष्ट परिस्थिति में देखने के लिए मिलते हैं ।

१. किसी शिष्य को यदि ऐसा लगे कि ‘अपने गुरु की अपेक्षा अन्य संत मेरे गुरु बनें’ एवं गुरु को भी लगे कि वे संत वास्तव में महान हैं, तो वे शिष्य को उस संत के पास भेजते हैं ।

२. दूसरे गुरु साधक के पूर्व जन्म में उसके गुरु रहे हों, तो वर्तमान जन्म के गुरु शिष्य को पूर्वगुरु के पास भेज देते हैं ।

३. विशेष साधना हो जाने पर, गुरु शिष्य को आगे की साधना हेतु उस मार्ग के योग्य गुरु के पास भेजते हैं । डहाणू के प.पू. अण्णा करंदीकरजी द्वारा बताई योगमार्ग की साधना वर्षभर करने पर उन्होंने मुझसे (परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी से) कहा, ‘‘इंदौर के (भक्तिमार्गी गुरु) भक्तराज महाराज तुम्हारे गुरु हैं । उनके चरण न छोडना ।’’

४. शिष्य की प्रगति एवं गुरु की प्रगति यदि समान गति से हो, तो वही गुरु रहते हैं; परंतु गुरु की तुलना में शिष्य की प्रगति तीव्र गति से हो रही हो, तो वे शिष्य को दूसरे गुरु के पास (सद्गुरु के पास) भेज देते हैं ।

गुरु समाधिस्थ हो जाने पर भी गुरुमंत्र की शक्ति बनी रहती है क्या ?

गुरु जब उत्स्फूर्त हो स्वयं ही किसी को कोई नाम जपने के लिए कहते हैं, तब वह गुरुमंत्र होता है । मात्र गुरुमंत्र मिलना पर्याप्त नहीं । वह जप सतत जारी रखना पडता है तथा उसे सेवा, त्याग एवं दूसरों के प्रति प्रेम इत्यादि से जोडना पडता है । गुरुमंत्र देते समय, गुरु उसमें शक्ति डालकर देते हैं, जिससे गुरु के देहत्याग उपरांत भी ऐसा नहीं होता कि गुरुमंत्र की शक्ति क्षीण हो जाए ।

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