गुरु के प्रति व्यवहार कैसा हो ?

‘गुरु के समक्ष हाथ जोडकर खडे रहें, उनके ‘बैठो’ कहने पर बैठें । गुरु की तुलना में शिष्य का अन्न, वस्त्र एवं वेश निकृष्ट होना चाहिए । रात्रि के समय गुरु के निद्राधीन हो जाने पर ही शिष्य को सोना चाहिए तथा प्रातः उनके जागने से पहले ही उठ जाना चाहिए, गुरु की आज्ञा के अधीन रहना चाहिए, गुरु के समक्ष उच्चासन पर न बैठें, गुरु के नाम का उच्चारण न करें, गुरु के बोलचाल की अनुकृति (नकल) न करें । गुरु की निंदा यदि कोई कर रहा हो, तो कान बंद कर लें अथवा वहां से हट जाएं इत्यादि ।’ – मनुस्मृति, अध्याय २, श्‍लोक १९२-२०० का अनुवाद

 

१. कुछ न कुछ अर्पित करें; परंतु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अर्पण क्या है ?

पेडे, हार, नारियल इत्यादि की तुलना में गुरु को जो प्रिय है, ऐसे घर में बने व्यंजन, पैसे इत्यादि अर्पित करना अधिक योग्य है । पेडे, हार, नारियल, शाल, वस्त्र इत्यादि वस्तुएं गुरु बांट देते हैं । गुरु आभूषणों का विक्रय भी नहीं कर सकते हैं, अतः उन्हें सम्भालने का काम उन्हें ही करना पडता है । धन तो गुरुकार्य हेतु उपयोगी होता है । परंतु गुरु को अर्पित करने की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वस्तु है भाव !

 

२. गुरु अस्वस्थ हों, तो उनके दर्शन हेतु जाकर आश्रम में
रहना अथवा चिकित्सालय के बाहर प्रतीक्षा करना, यह सब निरर्थक है ।

हमारे गुरु संत भक्तराज महाराज जब अस्वस्थ थे, तो आश्रम में प्रत्येक दिन लगभग पांच सौ लोगों के भोजन का प्रबंध करना पडता था । जब वे चिकित्सालय में भरती हुए, वहां लगभग दो सौ लोगों के भोजन की व्यवस्था करनी पडती थी । ऐसे में, आश्रम में सेवा करनेवाले साधकों पर निष्कारण काम का भार अधिक पडता है । ‘प्रत्येक का भोजनादि व्यवस्थित हुआ या नहीं’, इस विचार से एवं दर्शन हेतु आनेवाले व्यक्तियों के कारण, गुरु को भी रोगावस्था में आवश्यक विश्राम नहीं मिल पाता । इसलिए अपने निवासस्थान पर रहकर साधना जारी रखनी उचित है, इस श्रद्धा से कि गुरु का स्वस्थ होना गुरु के हाथ में ही है । कुशल जानना ही हो, तो दूरभाष अथवा पत्र द्वारा उनके स्वास्थ्य की पूछताछ करनी चाहिए ।

अस्वस्थता के कारण गुरु की अवस्था अत्यंत गम्भीर हो जाने पर, कई लोग अधिकतर निम्न कारणों से उनके दर्शन हेतु जाते हैं :

१. गुरु के देहत्याग पश्‍चात उनके पुनः दर्शन नहीं होंगे ।

२. हमारा क्या होगा ?

ये दोनों ही विचार अनुचित हैं । गुरु हैं, आगे भी होंगे एवं अवश्य मिलेंगे । गुरु अर्थात गुरुतत्त्व । वह तो सर्वदा अमर है एवं शिष्य का ध्यान रखता ही है ।

वार : गुरुभक्त के लिए केवल एक ही वार होता है और वह है ‘गुरु’वार !

 

३. गुरु से क्या मांगें और क्या नहीं ?

१. गुरु : क्या चाहिए ?

शिष्य : मेरा स्मरण आपके (एवं आपका स्मरण मेरे) हृदय में अखंड रहे ।

२. ‘श्री शंकराचार्य बोले, ‘‘तुम्हें कुछ पूछना है तो पूछो ।’’ पद्मपाद के नेत्रों से अश्रु बहने लगे । हाथ जोडकर वे बोले, ‘‘आचार्यदेव, मुझे अब कुछ नहीं पूछना है । सम्पूर्ण जीवन परिश्रम कर आपने जो मार्ग निर्धारित किया है, आपके आशीर्वाद से हम उसी मार्ग का अनुसरण करें । आप ही हमारे जीवनपथ की प्रकाशज्योति हैं । ‘आपके पद चिह्नों का अनुसरण करने का सामर्थ्य हममें उत्पन्न हो’; ऐसा आशीर्वाद हमें दें ।’’ (?)

किसी ने चलचित्र के (सिनेमा के) टिकट हेतु गुरु से प्रार्थना की ! प्रत्यक्ष में खरा शिष्य व्यावहारिक विषयों संबंधी गुरु से कभी कुछ नहीं मांगता । नए शिष्यों को विनोद में भी इस प्रकार का विचार मन में नहीं लाना चाहिए ।

३. मुझ से सुख न मांगें, दुःख सहन करनेकी क्षमता मांगें ।

भावार्थ : सुख प्रकृतिसे संबंधित होता है, इसलिए वह अशाश्‍वत होता है । इसीलिए गुरु से सुख न मांगें । साथ-साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि शाश्‍वत आनंद की प्राप्ति करवाना ही गुरु का खरा कार्य है । प्रारब्ध के कारण दुःख भोगने पड रहे हों, तो उन दुःखदायी प्रसंगों के कारण होनेवाले दुःख को सहन करने की क्षमता मात्र गुरु अवश्य ही देते हैं; इसलिए उसे मांगने पर कोई रोक नहीं ।

‘हमारे गुरु सर्वज्ञ हैं । हमारे लिए क्या आवश्यक एवं उपयुक्त है, यह हमसे अधिक उन्हें ज्ञात है’, इस श्रद्धा सहित केवल साधना करते रहें । पात्रता न होते हुए यदि हम कुछ मांगें, तो वे नहीं देते और हम योग्य हों, तो बिना मांगे ही वे देते हैं । तो उनसे कुछ क्यों मांगें ? वैसे भी तन, मन, धन एवं प्राण गुरु को अर्पित करने के पश्‍चात उनसे कुछ मांगने जैसा शेष रहता ही नहीं । खरे साधक पर कितने ही घोर विघ्न क्यों न आएं, सद्गुरु से भी प्रार्थना नहीं करता; क्योंकि नामजप के आगे विघ्न कुछ नहीं कर सकते, इस बात का उसे पूर्ण विश्‍वास रहता है । (एकनाथी भागवत, अध्याय २४, पंक्ति ३४१ का अर्थ)

 

४. गुरु जब घर आएं, तो क्या करना चाहिए ?

अ. रंगोली, पुष्पमाला, दीपक इत्यादि से घर सुशोभित करें । जब साधु- संत घर आते हैं, वही है दिवाली दशहरा, वही है खरा त्यौहार ।, संत तुकाराम महाराजजी के इस वचन को ध्यान में रखें । इससे हमारे मन में गुरु के प्रति भाव जागृत होने में सहायता मिलती है । गुरु के आगमन के समय द्वार पर उनके चरण धोने हेतु आधी कटोरी दूध, गुनगुने जल से भरा तांबे का लोटा एवं चरण पोंछने हेतु तौलिया रखें । उसी प्रकार आरती उतारने के लिए थाली में गंध, हल्दी-कुमकुम, अक्षत, पुष्प, घी का नीरांजन, भोग लगाने हेतु बर्फी, शक्कर इत्यादि कुछ मिष्ठान्न रखें । गुरु के आगमन के समय मार्ग में खडे रहकर उनकी प्रतीक्षा करें । आने पर उन्हें आदरपूर्वक घर के द्वार तक लाएं । घर में प्रवेश करने के पूर्व उन्हें प्रवेशद्वार पर रखे पीढे पर खडे रहने की विनती कर, बाएं हाथ में दूध की कटोरी ले प्रथम उनके चरणों पर दूध डालते हुए अपने दाएं हाथ से उनके चरणों को धोएं । नगर के (शहर के) घरों में भूमि पर पट्टियां (टाइल्स) होती हैं, इस कारण द्वार पर पानी नहीं सूखता; इसलिए गुरु को पीढे की अपेक्षा बडी परात में खडे रहने की विनती कर, चम्मच भर दूध से चरण धोने के पश्‍चात ही चरण पानी से धोएं । परात में दूध एवं पानी जमा होने से गुरु के पैर चिकने न हों इसलिए दूध की मात्रा न्यून हो । तत्पश्‍चात उस नम परात से बाहर एक-दो कदम आने की विनती कर, तौलिये से चरण पोंछने चाहिए । पैरों के अंगूठे पर गंध, अक्षत, पुष्प, हल्दी-कुमकुम द्वारा विधिवत नित्य की भांति पूजा करें । तदुपरांत इसी पद्धतिनुसार गुरु के भ्रूमध्य की पूजा कर, उनके हाथों में फूल रखें अथवा हार पहनाएं । नीरांजन से गुरु की आरती तीन बार उतारें । अंत में उनके हाथ में पेडा इत्यादि दें (अथवा उन्हें खिलाएं) एवं उन्हें नमस्कार कर घर में उनके स्थान तक ले जाएं । यात्रा के कारण गुरु थक गए हों, तो उन्हें द्वार पर खडा न रख उन्हें घर में आसन पर बिठाने के पश्‍चात नित्य की भांति पूजा करें । वे अत्यधिक थके हुए हों, तो उन्हें विश्राम करने दें । पूजा पश्‍चात भी की जा सकती है । यह सर्व कार्य करते हुए मूल सूत्र नहीं भूलना चाहिए कि सजावट इत्यादि समस्त विषयों की अपेक्षा उनकी बताई साधना का महत्त्व सर्वाधिक है । बाह्य सजावट की अपेक्षा आंतरिक सजावट से ही, अर्थात साधना से वे शीघ्र प्रसन्न होते हैं । गुरु को प्रसन्न करने के संदर्भ में, उनके घर आने पर घर को सजाना, उनकी रुचिनुसार व्यंजन बनाना इत्यादि विषयों का महत्त्व १ प्रतिशत भी नहीं है । उनकी बताई साधना करने का महत्त्व १०० प्रतिशत है ।

आ. जब तक गुरु का वास घर में हो, प्रतिदिन प्रातः ईश्‍वर की आराधनासमान उनकी पूजा करें अथवा कम से कम चंदन का टीका एवं कुमकुम तो अवश्य ही लगाएं । साथ ही इस कालावधि में उनकी सेवा करना अधिक महत्त्वपूर्ण है । इसलिए उनके चित्र एवं देवताओं की नित्यानुसार पूजा करने हेतु समय न भी मिले तो कोई हानि नहीं होगी; अन्य किसी को पूजा करने के लिए कह सकते हैं । गुरु जब घर से प्रस्थान करने लगें, तो उन्हें कुमकुम लगाकर नीरांजन से उनकी आरती उतारें । गुरु को जो भी अर्पण करना संभव हो, वह आरंभ में अथवा अंत में पूजा करते समय करें । यदि ऐसा संभव न हो, तो किसी भी पूजा के समय अर्पण करने में कोई हानि नहीं ।

इ. छुट्टी लेकर निरंतर उनके सान्निध्य में रहें ।

ई. गुरु के स्नान हेतु पानी निकालकर रखें, उनके वस्त्र तैयार रखें, स्नान के उपरांत उनके चरणों में चंदन, पुष्प एवं अक्षत अर्पित कर उनकी पूजा करें ।

उ. गुरु के हाथ-मुंह पोंछने एवं चरण पोंछने हेतु भिन्न तौलिये रखने चाहिए । वे हाथ-पैर धो लें, तो मुंह पोंछने के लिए उनके हाथ में तौलिया दें । वे स्नानघर के बाहर खडे रहें, तो वहीं पर अन्यथा उनके आसन ग्रहण करने पर उनके चरण पोंछें ।

ऊ. भोजन में उनकी रुचि एवं पथ्य ध्यान में रखकर पदार्थ बनाएं । इसकी जानकारी न हो, तो उनके निकटतम शिष्य से परामर्श करें । भोजनोपरान्त उन्हें हाथ धोने हेतु पानी एवं पोंछने हेतु तौलिया दें ।

ए. गुरु के वस्त्र स्वयं धोएं एवं इस्त्री करें । वस्त्र धोने के लिए चाकरों को अथवा इस्त्री के लिए लौंड्री में न दें ।

ऐ. गुरु को पंखा झलते समय, झलने की गति गुरु के अथवा अपने श्‍वास-उच्छवासके लय अनुसार होनी चाहिए; बिजली के पंखे समान भावरहित नहीं ।

ओ. गुरु के साथ आए सभी का प्रेमपूर्वक आदर-सत्कार करें ।

औ. जब गुरु घर आएं, तो गुरु से आज्ञा लेकर उनके शिष्यों को एवं संतदर्शन के इच्छुक अन्य लोगों को अवश्य बुलाएं । गुरु के दर्शन हेतु आए लोगों का आदर-सत्कार, चाय-पानी, भोजन, रहने की व्यवस्था इत्यादि सब प्रेमपूर्वक करें । वे हमारे गुरु से मिलने आए हैं, वे बिन बुलाए मेहमान नहीं हैं ।

 

५. गुरु से खानेका आग्रह क्यों नहीं करना चाहिए ?

१. कई दर्शनार्थी पेढे, बर्फी अथवा घर में प्रेम से बनाए लड्डू, नमकीन इत्यादि लाते हैं । अनेक बार सभी के लाए पदार्थों का स्वाद लेना भी असंभव होता है ।

२. बाबा का स्वास्थ्य, आयु एवं पथ्य को ध्यान में रखना चाहिए ।

३. बाबा की अपनी रुचि-अरुचि कुछ नहीं है । किसी के लाए हुए पदार्थ को वे ‘अच्छा’ कहें, तो संकेत लानेवाले के भाव की ओर होता है । इसलिए बाबा यदि किसी के लाए हुए नमकीन की (उदा. चकली की) प्रशंसा करते हैं, तो सुननेवालों का अगली बार चकली ही लेकर आना अनुचित होगा ।

४. गुरु किसी खाद्यपदार्थ को स्पर्श भी कर दें, उसका अर्थ स्वीकृति ही है ।

 

६. योगमार्गी शिष्य को गुरु को नमस्कार कैसे करना चाहिए ?

१. प्रथम : अध्यात्म के संग्राम का प्रारंभ होनेवाला है, इसलिए प्रथम वीरासन में (घुटनों के बल) बैठकर नमस्कार करें । वीरासन को ही ‘वीरमुद्रा’ कहते हैं ।

२. ध्येय साध्य होने के पश्चात गुरु को साष्टांग नमस्कार करेें । यह अष्टांगयोगानुसार साधना करनेवालों के लिए है । अन्य योगमार्गियों के लिए नहीं ।

३. अपने घर में, गुरु के आश्रम में, मार्गपर अथवा अन्यत्र कहीं भी गुरु के दर्शन होने पर उनके चरणों पर मस्तक रखें । चरणों पर मस्तक रखना अर्थात बुद्धि की शरणागति ।

 

७. शिष्य का गुरु के प्रति क्या कर्तव्य है ।

कुटुम्ब, समाज इत्यादि माया के विषयों के प्रति शिष्य का कोई भी कर्तव्य नहीं रह जाता । गुरुकृपा प्राप्त कर आध्यात्मिक उन्नति करना, यही उसका कर्तव्य होता है ।

चाणक्यनीति में आता है ।

राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञा पापं पुरोहितः ।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरुस्तथा ॥ – चाणक्यनीति, अध्याय ६, श्‍लोक  १०

इसका अर्थ क्या है ? प्रजा द्वारा होनेवाले पाप राजा को, राजा द्वारा होनेवाले पाप पुरोहित को, पत्नी द्वारा होनेवाले पाप पति को एवं शिष्य द्वारा होनेवाले पाप गुरु को भोगने पडते हैं । तात्पर्य यह कि शिष्य को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उसकी भूल का दंड गुरु को (गुरुर्दण्ड) मिलता है; इसलिए उसके आचरण में चूक नहीं होनी चाहिए । वास्तव में पाप-पुण्य के परे गए हुए ईश्‍वरस्वरूप गुरु को यह सब भोगना नहीं पडता ।

गुरु मिले लाख-लाख चेला मिले न एक ।
जो एक हूं चेला मिले, राख गुरु की टेक ॥

इसक अर्थ क्या है ? गुरु लाखों मिल जाएंगे; परंतु एक खरा शिष्य मिलना कठिन है । कोई शिष्य मिल जाए, तो उसे गुरु की लाज रखनी चाहिए । शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति न होना, यह बात गुरु के लिए लज्जाजनक होती है । इस दृष्टि से गुरु की लाज रखना एक-प्रकार से शिष्य के ही हाथों में है । यह कर्तव्य उसे पूरा करना चाहिए ।

 

८. घर के कामों में और गुरुद्वारा बताए काम (सेवा) में अंतर क्या है ?

घर के लिए तरकारी लाना, यह हुआ काम; गुरु के लिए अथवा उनके कहने पर तरकारी लाना, यह हुई सेवा, साधना ।

 

९. गुरुके पास जाते समय वेश-भूषा कैसी हो ?

शिष्य को अपने गुरु के पास जाते समय साधारण वस्त्र ही धारण करने चाहिए । अपनी समृद्धता का प्रदर्शन करनेवाले वस्त्र एवं आभूषण न पहनें ।

 

१०. खरा नमस्कार क्या है ?

‘मनेन नमनः ।’ अर्थात मन से नमस्कार करना, साधना करना यही खरा नमस्कार है ।

 

११. गुरु से कुछ नहीं कहना चाहिए, केवल उनकी सुनना चाहिए । एेसा क्यों ?

गुरु से कुछ कहने की अपेक्षा शिष्य के लिए यह आवश्यक है कि वह गुरु की बात सुने । ‘गुरु हमारी बात सुनें’, ऐसी अपेक्षा रखने का अर्थ है कि हम गुरु से श्रेष्ठ हैं ।’

 

१२. गुरु के गृहकार्य कैसे करें ?

गुरु के घर विवाह समारोह इत्यादि कोई भी कार्य हो, उसे अपने ही घरका कार्य समझें ।

 

१३. अखण्ड नामजप क्यों करना चाहिए ?

१. गुरुसेवा हेतु हमें पवित्र रहना चाहिए, इसलिए अखंड नामजप करना चाहिए ।

२. गुरुके सान्निध्य में एवं गुरुसेवा करते समय नामजप अपनेआप सुलभता से होता है । इसलिए उसका हमें लाभ उठाना चाहिए ।

३. गुरु की बातों से अधिक महत्त्वपूर्ण है उनका दिया हुआ नाम

 

१४. गुरु का छायाचित्र घर में लगाने से क्या लाभ होता है ?

सम्भव हो तो छायाचित्र पूजाघर में स्थापित करें । गुरु के निरंतर स्मरण हेतु बैठक, रसोईघर अथवा कार्यालय इत्यादि में उनका छायाचित्र लगाया हो, तो अन्य छायाचित्र समान उसे मात्र छायाचित्र न समझकर, वहां प्रत्यक्ष गुरु ही हैं, ऐसा समझना चाहिए ।; क्योंकि शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध एवं उनकी शक्ति के सदा एकत्रित होने के कारण गुरु के छायाचित्र में उनका चैतन्य भी होता है । गुरु के छायाचित्र को प्रत्येक दिन पोंछकर, देवताओं की पूजा करते समय जब अगरबत्ती दिखाते हैं, तो उन्हें भी अगरबत्ती दिखाएं तथा पूजा समाप्त होने पर जब नमस्कार करते हैं तो उन्हें भी नमस्कार करें । कार्यालय में छायाचित्र को अगरबत्ती नहीं दिखा सकते, इसलिए मन से नमस्कार करें । बटुए, जेब, लॉकेट इत्यादि में चित्र रखा हो, तो उसे भी प्रतिदिन बाहर निकालकर मनोभाव से नमस्कार करना चाहिए ।

 

१५. गुरु के छायाचित्र पर हार क्यों चढाते हैं ?

‘गुरु सगुणरूप में स्वयं ईश्‍वर हैं’, इसलिए जिस प्रकार देवताओं को हार पहनाते हैं, उसी प्रकार गुरु को भी पहनाते हैं ।’

परात्पर गुरु डॉ. आठवले : जीवित व्यक्तियों के छायाचित्र को हार नहीं पहनाया जाता, मृत्युके पश्‍चात ही हार पहनाते हैं । ऐसे में जीवित सन्तोंके छायाचित्रको हार क्यों पहनाते हैं ?

बाबा (प.पू. भक्तराज महाराज) : सन्तोंके छायाचित्रको हार पहनाते हैं, क्योंकि वे जीवित नहीं होते, मृत ही हैं । (उनका अहंभाव मर चुका होता है ।)

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ “शिष्य”

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