शिष्यभाव का महत्त्व

साधना में साधक के लिए शिष्यभाव में रहना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है । वह जब शिष्य बनता है, तब उसकी आगे की प्रगति गुरुकृपा से ही होती है । शिष्य बनने पर ही, गुरु साधक का पूरा दायित्व लेते हैं । वह साधना में फिसल न जाए, इसके लिए उसे निरंतर मार्गदर्शन करते हैं और आधार देकर पुनः आगे ले जाते हैं । वे यह सब बहुत प्रेम से करते हैं; क्योंकि, उनके जीवन का एक ही ध्येय होता है, शिष्यों की उन्नति करवाना । परंतु, शिष्य को भी शिष्यभाव में रहना चाहिए । तभी, उसकी उन्नति तीव्र गति से होती है । इसका महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि १०० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर होने तक उसे निरंतर सीखते हुए आगे जाना पडता है । उसे साधना का अभ्यास बढाना पडता है । साधना उत्तम प्रकार से और लगन से करनी पडती है । स्वभावदोष और अहंकार समूल नष्ट होने तक निरंतर सतर्क रहना पडता है । संत बने शिष्य को भी निरंतर शिष्यभाव में रहना आवश्यक है । इस लेख में हम आपको शिष्यभाव का महत्त्व और परम पूज्य डॉ. आठवलेजी के शिष्यभाव की जानकारी कराएंगे ।

 

१. गुरुप्राप्ति के पश्‍चात शिष्य का भाव कैसा होना चाहिए ?

शिष्य के मुख से दिन-रात श्री गुरुनाम का मंत्रोच्चार जारी रहता है । श्री गुरु के वचन के अतिरिक्त साधक को अन्य शास्त्रों का मूल्य शून्य प्रतीत होता है । जिस जल को श्री गुरु के चरण-कमलोें का स्पर्श हुआ हो, वह जल कैसा भी हो, तब भी गुरुभक्त ऐसा मानता है कि उस जल में संपूर्ण ब्रह्माण्ड के तीर्थ संग्रहित हैं और सर्व तीर्थों की तुलना में वह श्रेष्ठ है । इस विषय में ज्ञानेश्‍वरी में लिखा है कि जब श्री गुरु पैदल चलते हैं, तब उनके पैरों के पीछे से उड रही धूल के रजःकणों को साधक अपने मस्तक पर धारण करता है एवं उस लाभ से कैवल्यसुख की प्राप्ति हुई । गुरुचरित्र में भी मंत्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, भक्ति एवं औषधि के प्रति जैसी श्रद्धा होगी, वैसा फल मिलता है । उसी समान गुरु को शिवस्वरूप मानने से भावानुरूप फल मिलता है ।

गुरु के प्रति भाव निरंतर जागृत हो, इस हेतु कैसे प्रयास करने चाहिए ?

भाव के घटक निम्नानुसार हैं । इसमें पहले तीन घटक – कृतज्ञता, सेवा एवं प्रीति साधना के अंग हैं । इन्हीं के कारण अष्टसात्त्विक भाव जागृत होने पर आनंदप्राप्ति होती है । विशेषतः गुरु के प्रति कृतज्ञता सदैव रहनी चाहिए, तभी निरंतर आनंद एवं शांति की अनुभूति होगी । बुद्धि भाव का घटक है ही नहीं । इसलिए यह भाव सदैव भोला भाव ही होता है । छोटी-छोटी बातों से किसी में भाव है अथवा नहीं और यदि है तो कितना यह समझ में आता है । यह विवाह की निमंत्रण-पत्रिका के उदाहरण से समझ आएगा । जो भावयुक्त शिष्य है, वह परिवार में किसी के विवाह पर निमंत्रण-पत्रिका में श्रीगुरु का नाम लिखता है । जिनमें भाव अधिक है, वे घर पर, घर के बर्तनों आदि सर्व वस्तुओं पर गुरु का अथवा गुरु की संस्था का नाम लिखते हैं ।

२. शिष्यभाव का महत्त्व

२ अ. सेवाभाव की उत्पत्ति और उसे टिकाए रखना

शिष्यभाव से साधक में सेवाभाव उत्पन्न होने और उसे टिकाए रखने में सहायता होती है । सेवा से ही गुरु प्रसन्न होते हैं । इसलिए, शिष्य को निरंतर सेवारत रहना चाहिए । क्योंकि, निरंतर सेवा करते रहने से सभी देह शुद्ध होते हैं तथा सेवा के माध्यम से उसका निरंतर गुरु से आंतरिक सान्निध्य रहता है । शिष्य, सेवा के माध्यम से गुरु के निर्गुण रूप की साधना करता है । इससे वह निर्गुण की ओर शीघ्रता से जा सकता है । गुरु ऐसे शिष्य की प्रगति शीघ्र कराते हैं ।

२ आ. संत होने पर भी शिष्यभाव में रहने से
अहंभाव शीघ्रता से घटना और आगे की प्रगति शीघ्र होना

संत बनने पर भी जब वह शिष्यभाव में रहता है, तब उसका अहंकार शीघ्रता से घटता है । साधना के अगले चरण में अहंकार का घटना ही महत्त्वपूर्ण होता है । ऐसा होने पर, इससे आगे की प्रगति शीघ्र होती है । अपने को दूसरों से अलग समझने से अहंकार बढने की संभावना रहती है । इसी प्रकार, मेरी प्रगति हुई है इस विचार से, सेवाभाव अल्प हो सकता है । ऐसा न हो इसके लिए संत साधक को जीवन की अंतिम सांस तक गुरु की आज्ञानुसार सेवारत रहना चाहिए । संत होने से उसकी सूक्ष्म स्तर पर कार्य करने की क्षमता बढी हुई होती है । इस क्षमता का उपयोग कर वह अनेक गुरुसेवा अधिक व्यापकरूप में कर सकता है । इसी प्रकार, शिष्यभाव में रहने से वह निरंतर नई-नई बातें सीखता है और उनका उपयोग कर गुरुसेवा अधिक उत्तम ढंग से करने लगता है ।

२ इ. शिष्यभाव में रहने से अन्य साधकों का सीख पाना

साधक शब्दों की तुलना में आचरण देखकर शीघ्र सीखते हैं । उसका प्रभाव साधकों के मन पर तुरंत पडता है और वे शीघ्र सीखकर साधना में आगे जा सकते हैं । शिष्यभाव में रहनेवाले संत अन्य साधकों की ही भांति सेवा करते हैं । इसलिए, साधक उनसे अधिक सीख पाते हैं । इसके अतिरिक्त, प्रगति होने पर भी, निरंतर सेवारत रहने से, कार्यक्षमता बढती है, पर अहंकार घटता है, यह महत्वपूर्ण सूत्र साधक सीखते हैं । इसलिए, संत का भी, निरंतर सेवारत रहना बहुत आवश्यक होता है । सेवारत रहने से हमें अन्य साधक अपना समझते हैं । इससे हम उनके आत्मीय बन सकते हैं ।

३. परम पूज्य डॉक्टरजी का शिष्यभाव

परम पूज्य डॉक्टरजी परात्पर गुरु हैं; फिर भी निरंतर शिष्यभाव में रहते हैं । इसलिए, साधक उनसे उत्तम शिष्य बनना सीखते हैं । इसके कुछ उदाहरण आगे दे रहे हैं ।

अ. परम पूज्य डॉक्टरजी अपनी सेवा दूसरे साधकों को नहीं करने देते । यथासंभव, वे अपने सब कार्य स्वयं ही करते हैं ।

आ. वास्तविक, साधकों को साधना के लिए अनुकूल वातावरण मिले और उनकी आध्यात्मिक उन्नति शीघ्र हो, इसके लिए परम पूज्य डॉक्टरजी ने आश्रमों की स्थापना की है । फिर भी, उनका भाव होता है कि मैं अपने गुरु के आश्रम में रहता हूं और यहां मुझे भी उनकी सेवा करनी है । इसलिए, वे अन्य साधकों की ही भांति निरंतर सेवारत रहते हैं ।

इ. इसी प्रकार, वे आश्रम की विविध कार्यपद्धतियों का, उदा. सेवा, भोजन आदि के समय का पूरा-पूरा पालन करते हैं ।

ई. अपनी चूक भी वे दूसरों को बडी सहजता से बताते हैं ।

उ. इतने महान संत होने पर भी, वे अपने लिए कोई छूट नहीं लेते ।

ऊ. परम पूज्य डॉक्टरजी कहते हैं कि साधकों की विशिष्ट अनुभूतियों और उनके अच्छे प्रयत्नों से मैं सीखता हूं ।

ए. साधकों की सेवा करना

स्वयं अद्वितीय संत होने पर भी, उनकी इच्छा कभी नहीं रहती कि साधक मुझे गुरु मानकर मेरी बात सुनें और दिन-रात मेरी सेवा करें । उलटे, वे ही साधकों की सेवा करते हैं । इसके कुछ उदाहरण आगे दे रहे हैं ।

१. पहले वे दिन-रात कभी भी आध्यात्मिक कष्टवाले साधकों का आध्यात्मिक उपचार करते थे । जब किसी साधक को बहुत कष्ट होता था, तब वे उसके कक्ष में जाकर उसका उपचार करते थे ।

२. अनेक बार वे अपने लिए बनाया गया भोजन आध्यात्मिक कष्टवाले साधक को देते हैं । ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य होता है कि उस साधक को चैतन्य मिले और उसका कष्ट घटे ।

३. साधकों के मन और बुद्धि पर आया काली शक्ति का आवरण नष्ट हो, जिससे उन्हें शक्ति मिले और वे अच्छी सेवा कर सकें, इसके लिए वे साधकों को प्रसाद देते हैं ।

४. जब कोई साधक अस्वस्थ हो जाता है, तब वे उसके स्वास्थ्य के विषय में बार-बार पूछताछ करते हैं और कभी-कभी उससे मिलने भी जाते हैं ।

५. साधकों को किसी प्रकार की असुविधा न हो, इस बात का वे निरंतर ध्यान रखते हैं ।

ऐ. अपने को साधकों से अलग न मानना

१. पहले परम पूज्य डॉक्टरजी अपने गुरु संत भक्तराज महाराज के साथ घूमते थे । तब, वे अन्य साधकों की ही भांति सेवा करते थे । संत भक्तराज महाराज जिस भक्त के घर रहते थे, वहां भी वे सेवा करते थे ।

२. पहले परम पूज्य डॉक्टरजी अनेक जनपदों में धर्मजागृति सभाएं करते थे । उस समय उनके लिए जो भोजन बनाया जाता था, उसके विषय में वे पूछते थे कि यही भोजन सब साधकों के लिए है न ? उन्हें अपने लिए विशेष सुविधा देना, अच्छा नहीं लगता था ।

३. बहुत पहले, शीव सेवाकेंद्र में कुछ साधक कुछ दिन रहकर सेवा करते थे । उस समय वहां सनातन संस्था के कपडे के फलक, भित्तिपत्र (पोस्टर) आदि सात्त्विक अक्षरों में लिखने की सेवा रहती थी । अनेक बार साधक सेवा पूरी होने पर, रंग के डिब्बे, ब्रश आदि वहीं छोड जाते थे । तब, परम पूज्य डॉक्टरजी वह सब उठाकर उचित स्थान पर रखते थे ।

४. परम पूज्य डॉक्टरजी जब कहीं जाते थे और उनके साथ बहुत सी वस्तुएं होती थीं तथा वहां के साधक का घर ३ रे अथवा ४ थे तल पर होता था; तब वे अपने साथ कुछ वस्तुएं लेकर जाते थे, जिससे चालक-साधक को नीचे से वस्तुएं लाने के लिए अधिक चक्कर न लगाना पडे ।

ओ. अन्य संतों की भी शिष्यभाव से सेवा करना

१. परम पूज्य डॉक्टरजी ने इस अवस्था में भी परम पूज्य शामराव महाराज की सेवा कर, उनका मन जीत लिया तथा साधकों के सामने एक आदर्श शिष्य का उदाहरण प्रस्तुत किया । वे सेवा के स्थान पर पहुंचकर प्रतिदिन पहले उनकी चप्पल धोकर रखते थे । एक बार परम पूज्य शामराव महाराज स्वेटर पहन रहे थे । परंतु, वे उसे ठीक से नहीं पहन पा रहे थे । तब, परम पूज्य डॉक्टरजी तुरंत उठे और उन्हें ठीक से स्वेटर पहनाया । इससे परम पूज्य शामराव महाराज बहुत प्रभावित हुए । उन्होंने कहा, परम पूज्य डॉक्टरजी, आपने मेरा मन जीत लिया ।

२. परम पूज्य दास महाराज के पैर की हड्डी टूट गई थी । शल्यक्रिया होने के पश्‍चात, परम पूज्य डॉक्टरजी ने उन्हें रामनाथी आश्रम में बुला लिया । इस प्रकार, उन्होंने साधकों के लिए संतसेवा उपलब्ध करा दी और वे स्वयं भी उनके स्वास्थ्य की पूछताछ करते ।

औ. गुरुपद पर होते हुए भी, अपनी पूजा कभी न करवानेवाले परम पूज्य डॉक्टरजी !

परम पूज्य डॉक्टरजी के मार्गदर्शन में विश्‍व के सहस्रों साधक साधना कर, आध्यात्मिक उन्नति कर रहे हैं । इसी प्रकार, उनकी कृपा से कुछ ही वर्षों में सनातन के ६९ साधक (अगस्त २०१७ तक) संत बने तथा सैकडों साधकों का आध्यात्मिक स्तर ६० प्रतिशत हुआ है । इतना सब होने पर भी, वे गुरुपूर्णिमा पर अपनी पूजा अथवा पाद्यपूजा नहीं करवाते । वे साधकों को कभी चरणस्पर्श भी नहीं करने देते । वे साधकों को संत भक्तराज महाराज के ही छायाचित्र की पूजा करने के लिए कहते हैं । सनातन संस्था के देश-विदेश में होनेवाले सभी गुरुपूर्णिमा महोत्सवों में केवल संत भक्तराज महाराज के छायाचित्र की पूजा की जाती है ।

मुझे लगता है, ऐसे महान और आदर्श गुरु पूरे ब्रह्मांड में एक ही होंगे । कितनी यह निष्कामता ! सबकुछ करने पर भी, कर्तापन से दूर रहना, कितना अद्भुत है !

प्रार्थना : हे परम पूज्य डॉक्टरजी, आपकी कृपा से हम साधकों में भी आपसमान शिष्यभाव उत्पन्न हो और वह सदैव टिका रहे तथा उसके माध्यम से साधक आपका मन जीतते रहें, यह आप से प्रार्थना है !

– श्रीमती राजश्री खोल्लम (आषाढ कृष्ण चतुर्थी, कलियुग वर्ष ५११२ (३०.७.२०१०))

४. गुरु ही शिष्य के लिए सबकुछ !

गुरु शब्द का उच्चारण करते ही मन में तुरंत एक आदर की भावना और शरणागत भाव उत्पन्न होता है । गुरु के सामने शिष्य अपनेआप नतमस्तक होता है । गुरु, शिष्य के लिए माता, पिता, बंधु, सखा ही नहीं, सर्वस्व होते हैं । शिष्य, गुरु को अपना तन, मन, धन अर्पण करता है । इसलिए, उसके और गुरु के बीच भेद नहीं रहता । गुरु भी शिष्य को अपने समान बना देते हैं । पारस लोहे को सोना बनाता है; परंतु गुरु का बडप्पन देखिए कि वे शिष्य को अपने समान ही बना देते हैं ! इसलिए, उनकी महिमा अगाध है । शिष्य की उन्नति हो, इसके लिए गुरु उस पर प्रेम की वर्षा करते रहते हैं । अतः, केवल गुरु का स्मरण होने पर भी, शिष्य के अष्टसात्त्विक भाव जागृत होते हैं । जन्म-मृत्यु के सहस्रों फेरों से छूटने के लिए ईश्‍वर उसे इस जन्म में अवसर देते हैं । गुरु के कारण ही उसका उद्धार होता है और वह जन्म-मरण के फेरों से मुक्त होता है । जिसे ऐसे गुरु मिले होंगे, उसका कल्याण अवश्य हुआ होगा । ऐसा शिष्य सचमुच भाग्यशाली है ।

– परम पूज्य परशराम माधव पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

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