हिन्दुओ, धर्मशिक्षा लेकर धर्मद्रोहियों के दुष्प्रचार से बचें !
हिन्दू धर्म के त्योहार और उत्सव, प्रकृति का संतुलन बनाए रखनेवाले ही होते हैं !
हिन्दू धर्म के त्योहार और उत्सव, प्रकृति का संतुलन बनाए रखनेवाले ही होते हैं !
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की जीवन यात्रा देखें तो उनकी प्रत्येक कृति आदर्श है, यह पग-पग पर दिखाई देता है । साधक भी वैसे ही तैयार होें, वह सेवा की बारीकियों का अध्ययन कर प्रत्येक कृति ईश्वर को अपेक्षित ऐसी परिपूर्ण करें, ऐसी उनकी लगन है ।
जीव की साधना जैसे-जैसे वृद्धिंगत होती है, वैसे-वैसे उससे अधिकाधिक सात्त्विकता प्रक्षेपित होकर उसके संपर्क में आनेवाली वस्तु, वास्तु और आसपास का वातावरण चैतन्यमय बनने लगता है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के समष्टि गुरु और जगद्गुरु होने से उनका अवतारी कार्य संपूर्ण ब्रह्मांड में आरंभ रहता है ।
सामान्य मनुष्य का जीवन कुछ काल तक होने से उसका जन्मदिन उसकी मृत्यु तक ही मनाया जाता है । ईश्वर के अनादि और अनंत होने से उनके अवतारों का जन्मदिन (उदा. रामनवमी, जन्माष्टमी) भक्तगणों द्वारा सृष्टि के अंत तक मनाया जाएगा ।
माता उमा ने ध्यान-धारणा करते समय योग्य आसन कौन सा ? यह प्रश्न पूछने पर भगवान शिवजी कहते हैं; ‘निश्चित स्थान पर दर्भासन पर बैठकर साधना करनी चाहिए अथवा स्वच्छ गुदडी की घडी बनाकर उस पर बैठना चाहिए ।’
राष्ट्ररक्षा एवं धर्मजागृति के लिए सिद्ध रहकर प्रभावी रूप से कार्य करनेवाली सनातन संस्था एकमात्र संगठन है । विभिन्न स्थानों पर संस्था के आश्रम तथा सेवाकेंद्र हैं । वहां सैंकडो साधक पूरा समय रहकर धर्मप्रसार की साधना कर रहे हैं । राष्ट्र एवं धर्म कार्य हेतु अधिक समय देनेवाले साधक, धर्मप्रेमियों की संख्या प्रतिदिन बढती जा रही है ।
महाभारत में जिस भूभाग का उल्लेख कंभोज देश किया गया है, वह भूभाग है आज का कंबोडिया देश ! यहां १५वीं शताब्दीतक हिन्दू रहते थे । वर्ष ८०२ से लेकर १४२१ की अवधि में वहां खमेर नामक हिन्दू साम्राज्य था, साथ ही कंभोज देश एक नागलोक भी था ।
पुणे के महान संत प.पू. आबा उपाध्ये के माध्यम से साढे तीन सहस्र वर्ष पूर्व के महायोगी श्री सद्गुरु सदानंदस्वामी बोलते हैं और वे इस गुरुवाणी के माध्यम से भक्तों को समय-समय पर संदेश भी देते रहते हैं ।
‘महाभारत में जिस भूभाग को ‘कंभोज देश’ संबोधित किया गया है, वह भूभाग आज का कंबोडिया देश ! यहां १५ वें शतक तक हिन्दू रहते थे । ऐसा कहा जाता है की ‘ईसवी सन ८०२ से १४२१ तक वहां ‘खमेर’ नाम का हिन्दू साम्राज्य था’ ।
हिन्दू साम्राज्य खमेर के समय समराई नामक एक समुदाय था । यह समुदाय परिश्रम के काम करता था । इस समुदाय के लोग मंदिर, राजमहल, नगर की विविध वास्तूएं, सेतू आदि के निर्माण के लिए आवश्यक पत्थरों को महेंद्र पर्वत की तलहटी के पास जाकर लाते थे ।