परात्पर गुरु डॉक्टरजी का जन्मदिन साधकों द्वारा सृष्टि के अंत तक मनाया जाता रहेगा !

(पू.) श्री. संदीप आळशी

१. परात्पर गुरु डॉक्टरजी का जन्मदिन साधकों द्वारा सृष्टि के अंत तक मनाया जाता रहेगा !

सामान्य मनुष्य का जीवन कुछ काल तक होने से उसका जन्मदिन उसकी मृत्यु तक ही मनाया जाता है । ईश्‍वर के अनादि और अनंत होने से उनके अवतारों का जन्मदिन (उदा. रामनवमी, जन्माष्टमी) भक्तगणों द्वारा सृष्टि के अंत तक मनाया जाएगा । परात्पर गुरु डॉक्टरजी के ईश्‍वर से एकरूप होने के कारण वे देह में होते हुए भी देह में न होने समान हैं । वे अनंतस्वरूप होने से उनका जन्मदिन भी साधकों द्वारा सृष्टि के अंत तक मनाया जाता रहेगा !

 

२. परात्पर गुरु डॉक्टरजी के संकल्प से धर्मकार्य होने की प्रतीती !

ईश्‍वर ने संकल्प से सृष्टि की निर्मिति की । आज सनातन का राष्ट्र और धर्म का कार्य जगभर में तेजी से फैल रहा है । साधकों की दृढ श्रद्धा है कि यह कार्य परात्पर गुरु डॉक्टरजी के संकल्प से हो रहे है । परात्पर गुरु डॉक्टरजी के विविध कार्यों में से ग्रंथकार्य के संदर्भ में नीचे दिए उदाहरणों से इस श्रद्धा की पुष्टि होती है ।

२ अ. परात्पर गुरु डॉक्टरजी के संकल्प से ही साधकों को ग्रंथलेखन के लिए सूत्र अपनेआप सूझना

वर्ष २००१ में एक बार परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने मुझे एक सूत्र लिखने को कहा था । उनके कहते ही अगले मिनट में मैंने सभी सूत्र जैसे अपनेआप सूझे हो वैसे लिखे । उसके पश्‍चात धीरे-धीरे ऐसा ध्यान में आने लगा कि परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने प्रत्यक्ष बताया न हो, तो भी उनका अव्यक्त संकल्प ही लेखन की प्रेरणा बनता है; क्योंकि अधिकतर लेखन अपनेआप किया जाता है । ग्रंथ-निर्मिति की सेवा करनेवाले अन्य साधकों को भी ऐसी अनुभूति आती है । इतना ही नहीं, सनातन के अनेक साधकों को भी राष्ट्र और धर्म विषयक लेखन अपनेआप सूझता है ।

२ आ. परात्पर गुरु डॉक्टरजी के संकल्प के कारण सनातन के
एक साधक-वैद्य द्वारा अत्यंत अल्प अवधि में आयुर्वेद के अंतर्गत वर्म चिकित्सा
सिखकर उसके द्वारा उपचार और उपचार-पद्धति के विषय में ग्रंथलेखन कर पाना

सनातन के कर्नाटक के एक साधक-वैद्य वैद्यकीय शिक्षा ले रहे थे, तब एक बार परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने उनसे कहा था कि हमें भूतनाडी ढूंढना चाहिए । वह मिल जाए, तो उसके माध्यम से उपचार कर हमारे साधकों की अनेक पीडाएं अल्प होंगी । इस एक वाक्य से प्रेरणा लेकर उस साधक-वैद्य ने भूतनाडी का शोध लेना आरंभ किया । तब दक्षिण भारत में प्राचीन काल से अस्तित्व में; परंतु बहुत कम लोगों को अवगत वर्म चिकित्सा नामक चिकित्सापद्धति से उनका परिचय हुआ । इस चिकित्सापद्धति की विशेषता है कि यह सभी को नहीं सिखाई जाती, केवल गुरु-शिष्य परंपरा के अंतर्गत शिष्य एक विशिष्ट योग्यता का होने पर ही गुरु उसे सिखाते हैं । यह शिक्षा केवल तमिल भाषा में ही दी जाती है । सभी साधकों को भावी संकटकाल की दृष्टि से इस उपचार-पद्धति का बहुत लाभ होगा, ऐसा विचार कर उस साधक-वैद्य ने तमिल भाषा सीखी और वर्म चिकित्सा केवल १४ दिनों में सीखकर उसके अंतर्गत वे शिक्षक स्तर तक पहुंचे । तत्पश्‍चात उन्हें प्राचीन तमिल भाषा में भूतनाडी के विषय में ग्रंथ भी मिला । वर्तमान में वे वर्म चिकित्सा द्वारा रोगियों पर उपचार करते हैं और यह ज्ञान सभी को हो, इस उद्देश्य से उस विषय में ग्रंथलेखन भी करते हैं । वे सदैव कहते हैं कि परात्पर गुरु डॉक्टरजी के संकल्प के कारण ही मैं इतनी अल्प अवधि में वर्म चिकित्सा सीख सका और उनकी कृपा से ही मैं रोगियों पर उपचार और ग्रंथलेखन भी कर रहा हूं ।

 

परात्पर गुरु डॉक्टरजी के चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञ हैं !

देवताआें के अलंकार धारण करने से, अर्थात उन अलंकारों को स्वीकार करने से अलंकारों को शोभा आती है । इसी प्रकार परात्पर गुरु डॉक्टरजी के साधकों को स्वीकार करने से, अर्थात उन्हें अपना मानने से साधकों को शोभा आई है, अर्थात उनकी अध्यात्म में तीव्र गति से प्रगति हो रही है । इसके लिए साधक उनके चरणों में कृतज्ञ हैं । अलंकारों को चमक होती है तब तक उनकी शोभा बनी रहती है । साधकों में साधकत्व रहता है तब तक उनकी शोभा बनी रहती है, अर्थात उनकी प्रगति टिकी रहती है । स्वयं में साधकत्व बनाए रखना, साधकों के स्वयं के ही हाथों में है ।

– (पू.) श्री. संदीप आळशी

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