कश्मीरी संस्कृति का भारतीयता !

पांचों खंडों और भूमंडल में पवित्रतम भूमि है, भारतवर्ष ! अनेक ऋषि-मुनियों, अवतारों और विद्वज्जनों के पावन स्पर्श ने इस भारतभूमि को गौरवशाली बनाया है ।

गुरुमंत्र किसे कहते हैं ? इससे आध्यात्मिक प्रगति शीघ्र होती है ! ऐसा क्यों?

गुरुमंत्र में केवल अक्षर ही नहीं; अपितु ज्ञान, चैतन्य एवं आशीर्वाद भी होते हैं, इसलिए प्रगति शीघ्र होती है । उस चैतन्ययुक्त नाम को सबीजमंत्र अथवा दिव्यमंत्र कहते हैं । उस बीज से फलप्राप्ति हेतु ही साधना करनी आवश्यक है ।

गुरुसंबंधी आलोचना अथवा अनुचित विचार एवं उनका खंडन !

यदि हमें मनुष्य जन्म मिला है । इस जन्म का मुझे सार्थक करना है । आनंदमय जीवन यापन करना है । जीवन के प्रत्येक क्षण स्थिर रहना है, तो गुरु के बिना विकल्प नहीं है ।

गुरु का सांप्रतकालीन कर्तव्य क्या है ?

काल की आवश्यकता समझकर राष्ट्र तथा धर्मरक्षा की शिक्षा देना, यह गुरु का वर्तमान कर्तव्य है । जिस प्रकार साधकों को साधना बताना गुरु का धर्म है, उसी प्रकार राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा हेतु समाज को जागृत करना, यह भी गुरु का ही धर्म है ।

सनातन संस्थाके आस्थाकेंद्र ‘प.पू. डॉ. जयंत आठवलेजी’ – द्रष्टा धर्मगुरु एवं राष्ट्रसंत !

गुरु श्रीकृष्णने शिष्य अर्जुनको न केवल मोक्षप्राप्तिके लिए धर्म सिखाया; अपितु ‘धर्मरक्षाके लिए अधर्मियोंसे लडना चाहिए’, यह क्षात्रधर्म भी सिखाया । शिष्यको मोक्षप्राप्तिके लिए साधना बतानेवाले आज अनेक गुरु हैं; परंतु ‘राष्ट्र एवं धर्मरक्षा कालानुसार आवश्यक साधना है’, ऐसी सीख देनेवाले गुरु गिने-चुने ही हैं ।

गुरुमंत्र संबंधी भ्रांतिया

कई लोगोंके मनमें गुरुमंत्र संबंधी कुछ भ्रांतियां रहती हैं । आध्यात्मिक परिभाषा का ज्ञान न होने के कारण ये भ्रांतियां उत्पन्न हुई हैं ।

खरा ध्यान किसे कहते हैं और इसके लिए गुरु की आवश्यकता क्यों प्रतीत होती है ?

कभी-कभी ध्यानमार्ग का अनुसरण करनेवाले योगी ध्यान का आधार लेते हैं; परंतु जो आत्मप्रेरित है, सहज ही आरंभ होता है, वही खरा ध्यान है । यह सहजध्यान आरंभ करने हेतु गुरु की आवश्यकता प्रतीत होती है; क्योंकि केवल उन्हीं की अंतःस्थिति उच्च श्रेणी की होती है । गुरु के कारण आरंभ हुआ सहजध्यान ही अंत में योगी को पूर्णत्व की प्राप्ति करवा सकता है ।

गुरुकृपा किस प्रकार कार्य करती है ?

गुरु के किसी उद्देश्य के अथवा उनके द्वारा बताई गई किसी सेवा के कार्यकारणभाव को भली-भांति समझकर, कम से कम समय में एवं उचित ढंग से उसे पूर्णत्वतक ले जाना गुरु को अपेक्षित होता है । गुरु यदि कहें, ‘पूजा करो’ और शिष्य बुद्धि का प्रयोग कर अधिकाधिक अच्छे ढंगसे पूजा करे, तो यह अवज्ञा नहीं होती; अपितु गुरु इस बात से प्रसन्न होते हैं ।