त्याग : अर्पण का महत्त्व

हिन्दु धर्म ने त्याग ही मनुष्य जीवन का मुख्य सूत्र बताया है । अर्पण का महत्त्व ध्यान में आने के पश्चात् अपना समर्पण का भावजागृत होकर किए गए अर्पण का अधिक लाभ प्राप्त हो सकता है । उसके लिए अर्पण का महत्त्व स्पष्ट कर रहे हैं ।

सत् के लिए त्याग

६० प्रतिशत स्तरतक पहुंचनेपर खरे अर्थमें त्यागका आरंभ होता है । आध्यात्मिक उन्नति हेतु तन, मन एवं धन, सभीका त्याग करना पडता है । पदार्थविज्ञानकी दृष्टिसे धनका त्याग सबसे आसान है, क्योंकि हम अपना सारा धन दूसरोंको दे सकते हैं; परंतु अपना तन एवं मन इस प्रकार नहीं दे सकते । फिर भी व्यक्ति प्रथम उनका त्याग कर सकता है अर्थात तनसे शारीरिक सेवा एवं मनसे नामजप कर सकता है ।

सत्सेवा किसे कहते हैं ?

‘एक बार बुद्धि से अध्यात्म का महत्त्व ध्यान में आया कि, ‘इस जन्म में ही मोक्षप्राप्ति करना है’, ऐसा निश्चय यदि उसी समय निश्चय हुआ तथा साधना आरंभ हुई कि, सत्संग में क्या सीखाया जाता है, इस बात को अल्प महत्त्व रहता है । यदि ऐसे साधक ने नामजप तथा सत्संग के साथ-साथ सेवा की, तो उसे अधिकाधिक आनंद प्राप्त होने लगता है तथा साधक पर गुरुकृपा का वर्षाव निरंतर रहता है ।
सत्सेवाके संदर्भमें निम्नलिखित विषयों का ध्यान रहे ।

सत्संग का महत्त्व

एक बार वसिष्ठ एवं विश्वामित्र ऋषिके बीच विवाद खडा हुआ कि सत्संग श्रेष्ठ है अथवा तपस्या ? वसिष्ठ ऋषिने कहा, ‘सत्संग’; किंतु विश्वामित्र ऋषिने कहा, ‘तपस्या’ । इस विवादके निष्कर्ष के लिए वे देवताओंके पास गए । देवताओंने कहा, ‘‘केवल शेष ही तुम्हारे प्रश्नका उत्तर दे सकेंगे ।’’ तब वे दोनों शेषनागके पास गए । उनके प्रश्न पूछनेपर शेषने कहा, ‘‘तुम मेरे सिरसे पृथ्वीके भारको हल्का करो, फिर मैं सोचकर उत्तर दूंगा ।’’

अहं निर्मूलन : ईश्‍वर के साथ एकरूप होने का सर्वोत्तम मार्ग !

यदि व्यक्ति में अहं का अंश अल्प मात्रा में भी रहा, तो उसे ईश्‍वरप्राप्ति नहीं हो सकती । अतः साधना करते समय अहं-निर्मूलन के प्रयास हेतुपुरस्सर करना आवश्यक है । प्रार्थना, कृतज्ञता, शारीरिक सेवा के समान कृतियों द्वारा अहं अल्प होने के लिए सहायता प्राप्त होती है ..

अन्य पंथीय व्यक्ति को हिन्दू धर्म में प्रवेश का अध्यात्मशास्त्र !

मैंने अन्य पंथ की लडकी से विवाह किया है । इसलिए हमारे परिजन हमारा विरोध कर रहे हैं । हमने अपने घरवालों को बहुत समझाने का प्रयत्न किया; परंतु घर के सदस्य पत्नी और उसके स्पर्शित अन्न को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं ।

भाव एवं भाव के प्रकार

अधिकांश साधकों को देवता की आरती के समय अथवा गुरु / ईश्वर कास्मरण होने से अथवा उनके संदर्भ में अन्य किसी भी कारण से आंखों से पानी आता है । यह भाव के उपर्युक्त दिए गए आठ लक्षणों मेंसे ‘अश्रुपात’ यह लक्षण है ।

नामजप संबंधी शंकानिरसन

‘नाम’ साधना की नींव है । ३३ करोड देवी-देवताओं में से कौन-सा जप करना चाहिए, नामजप में आनेवाली बाधाएं, गलत धारणाएं इत्यादि के विषय में प्रायोगिक प्रश्नोत्तर इसमें दिए हैं ।

आध्यात्मिक कष्ट क्यो होते है ?

साधना करते हुए सूक्ष्म की विविध शक्तियां साधक को कष्ट देती हैं । उसे साधना के परमार्थ पथ से परावृत्त करने हेतु वे प्रयत्नरत होते हैं । इस पर कौन-सा उपाय करें इत्यादि के विषय के प्रश्नोत्तर प्रस्तुत स्तंभ में अंतर्भूत हैं ।

कर्मकांड संबंधी शंकानिरसन

कर्मकांड साधना का प्राथमिक परंतु अविभाज्य भाग है । कर्मकांड में पालन करने योग्य विविध नियम, आचरण कैसे होना चाहिए, इस विषय में अनेक लोगों को जानकारी होती है; परंतु उसके पीछे का कारण और शास्त्र के विषय में हम अनभिज्ञ होते हैं ।