भावस्थिति अनुभव करने में मुख्य रुकावटें कौन-सी हैं ?
भाव जागृति में कर्तापन को त्याग कर, सब ईश्वर की इच्छा से ही हो रहा है, एसा भाव रखना चाहिए । जैसे मैंने कुछ अच्छा किया, तो यह बुद्धि तो ईश्वर ने ही दी है ।
भाव जागृति में कर्तापन को त्याग कर, सब ईश्वर की इच्छा से ही हो रहा है, एसा भाव रखना चाहिए । जैसे मैंने कुछ अच्छा किया, तो यह बुद्धि तो ईश्वर ने ही दी है ।
जनवरी २०१५ में स्पिरिचुुअल साइन्स रिसर्च फाउण्डेशन (एस.एस.आर.एफ.) की ओर से आयोजित कार्यशाला में पूज्य लोलाजी, पूज्य सिरियाक, कुमारी एना ल्यु और श्री मिलुटीन से मिले मार्गदर्शन के कारण मैं भय लगने के मूल तक पहुंची और उसकी व्याप्ति ढूंढकर बही में लिख सकी ।
‘चूक न स्वीकारने के सहस्रों कारण रहते हैं; किन्तु ‘गुरु की कृपा प्राप्त करनी है’, यह एक ही कारण सबकुछ स्वीकारने के लिए पर्याप्त है ।
जो कुछ कियो सो तुम कियो, मैं कुछ कियो नाहीं । कहीं कहो जो मैं कियो, तुम ही थे मुझ माहीं ।। अहं के पूर्णतः अंत होनेपर ऐसा अनुभव होता है
जिस ईश्वर के कारण हम श्वास ले पाते हैं, उनके प्रति केवल शाब्दिक कृतज्ञता व्यक्त करने से पूर्ण लाभ नहीं होता । ईश्वर के प्रति कृतज्ञता हमारे आचरण में दिखाई देनी चाहिए । ईश्वर का नाम सदैव मुख में रहे, ईश्वर के बच्चों का अर्थात समस्त जनों का उद्धार हो, अर्थात ईश्वरप्राप्ति हेतु उन्हें अध्यात्मज्ञान अविरत देने से यह ईश्वर के प्रति सच्ची कृतज्ञता होगी ।
दैनिक जीवन के सर्व कामकाज को सेवा के रूप में ही करने का प्रयत्न करें, उदाहरणार्थ‘ अपने कपडे इस्त्री करना भी गुरु सेवा ही है’, ऐसा भाव रहेगा तो सेवावृत्ति बढाने में सहायता मिलेगी । ‘मैं सेवक हूं’, यह भाव जितना अधिक होगा, उतनी मात्रा में अहं भी शीघ्र घटेगा ।
अहं जितना अधिक होगा, व्यक्ति उतना ही दुःखी होगा । मानसिक रोगियों का अहं सामान्य व्यक्ति की तुलना में अधिक होता है; इसलिए वे अधिक दुःखी होते हैं ।
धन एवं लोकैषणा के कारण अर्थात संपत्ति, पद, अधिकार, राज्य इत्यादि की प्राप्ति से अहं बढता है, उदाहरणार्थ हिरण्यकश्यप एवं रावण, राज्यप्राप्ति के उपरांत मदोन्मत्त हो गए । फल की अपेक्षा रखने से अहं आता है ।
अहं, खेत में उगनेवाली घास समान है । जब तक उसे जड सहित उखाड न दिया जाए, तबतक खेत की उपज अच्छी नहीं हो पाती । घास को निरंतर काटते रहना आवश्यक है । उसी प्रकार, अहं को पूर्णतः नष्ट किए बिना उत्तम उपज अर्थात परमेश्वरीय कृपा संभव नहीं ।
यदि व्यक्ति में अहं का अंश अल्प मात्रा में भी रहा, तो उसे ईश्वरप्राप्ति नहीं हो सकती । अतः साधना करते समय अहं-निर्मूलन के प्रयास हेतुपुरस्सर करना आवश्यक है । प्रार्थना, कृतज्ञता, शारीरिक सेवा के समान कृतियों द्वारा अहं अल्प होने के लिए सहायता प्राप्त होती है ..