साधिका के मन की भाव स्थिती

परम पूज्य डॉक्टरजी ने अपने लिए भोजन बनानेवाली गोपीभाव की साधिका से जब पूछा कि तुम्हें यह करते समय घर-घर खेलने जैसा लगता है न ?’, तब उसे बचपन में घर-घर खेलने में ईश्वर के लिए भोजन बना कर उसकी प्रतीक्षा करने के प्रसंग का स्मरण होना पश्चात उसे गुरु की वही सेवा मिलने पर, असीम कृतज्ञता लगना

१. घर-घर खेल खेलते समय ‘ईश्वर के लिए बनाया हुआ भोजन उन्हें सचमुच
आकर खाना चाहिए, ऐसा लगना’ एवं ‘अर्पित भोजन का ईश्वर केवल सुगंध लेते हैं’,
यह दादी के कहने पर `उसे प्रत्यक्ष अन्नग्रहण करना चाहिए’, ऐसा प्रतीत नहीं होना

७.७.२०१२ को मैंने प.पू. डॉक्टरजी के लिए आधी कटोरी हलवा बनाया, तब उन्होेंने कहा कि तुम्हें यह बनाते समय घर-घर खेल खेलने जैसा लगा होगा न ? मैंने कहा, हां । मैंने (मन में) कहा कि जब मैं छोटी थी, तब झूठ-मूठ के बरतन लेती थी । झूठ-मूठ का भोजन बनाती थी । पत्थर का ईश्वर बना कर, उसकी पूजा करती थी और उसे भोजन कराती थी । कभी-कभी मिट्टी का चूल्हा भी बनाती थी । उसे दिनभर सुखाती थी । दूसरे दिन उसे जलाकर, उस पर मिट्टी का बरतन रख कर, उसमें दाल-चावल पकाती थी । पश्चात, उसमें नमक डाल कर, पत्थर के भगवान को खिलाती थी । तब लगता था कि ईश्वर के लिए बनाया हुआ भोजन उन्हें प्रत्यक्ष आकर खाना चाहिए । ऐसा सुना था कि ईश्वर भक्त की पुकार सुनकर दौडे आते हैं । भक्त का बनाया हुआ भोजन खाते हैं । परंतु, मेरा बनाया और परोसा हुआ भोजन वे नहीं खाते थे । उस समय लगता कि यदि हम छिपकर बैठेंगे, तो वे आकर खाएंगे । तब, भक्त प्रल्हाद की कहानी स्मरण होती थी । ईश्वर चराचर में है । हम कहीं नहीं छिप सकते । वह हमें सदैव देख रहा है । एक बार दादी से सुनी थी कि ईश्वर, अर्पित भोजन का केवल सुगंध लेते हैं । यह समझ में आने के पश्चात से अपेक्षा नहीं रही कि ईश्वर को आकर भोजन करना चाहिए ।

२. खेल में भगवान के साथ संसार करना एवं प्रत्यक्ष में भी उनका संसार
करने का अवसर मिलना, उन्होंने भी हमारे साथ खेलना एवं उससे हमें आनंद होना

हे श्रीकृष्ण, जब मैं छोटी थी, तब छोटे-छोटे बरतन लेकर आपके साथ बातें करती थी । पहले से ही, मैं माया का संसार नहीं करना चाहती थी । खेल में भी आपके साथ संसार किया । हे भगवन, आपने मुझे अपने साथ संसार करने का सौभाग्य प्रदान किया ! आप सर्वव्यापी हैं । आपके चरणों में पृथ्वी, आकाश एवं ब्रह्मांड हैं । ऐसे भगवान के बरतन, घर-घर खेलमें खेलने समान छोटे-छोटे हैं । आप हमारे साथ यह खेल खेलकर, हमें आनंद देते हैं । सब कुछ आप ही करते है । हे श्रीकृष्ण ! यह देह, मन एवं बुुुद्धि आपकी ही दी हुई है । हे श्रीकृष्ण, इस देह से आप ही सेवा करते हैं ।

३. ‘गोपियों के हाथ से कृष्ण मक्खन खाते हैं; उन्हें प्रत्यक्ष भगवान
के साथ रहने के लिए मिलता है’,ऐसा प्रतीत होकर, स्वयं भी साधना
करने का विचार मन में आना एवं श्रीकृष्ण की कृपा से प्रत्यक्ष उनका संसार करना

श्रीकृष्ण की कितनी कृपा है ! उन्हीं की कृपा से मैं उनसे सचमुच का संसार कर पा रही हूं । पूरी सृष्टि के पालनकर्ता, तीनों लोकों के स्वामी श्रीकृष्ण हमें आनंद देने के लिए नैवेद्य (भोजन) ग्रहण करते हैं । वे जब गोपियों के हाथ से मक्खन खाते थे, तब मुझे लगता था कि उन गोपियों पर श्रीकृष्ण की कितनी कृपा है ! उन्हें प्रत्यक्ष ईश्वर के साथ रहने के लिए मिलता है ! उन्हें मक्खन खिलाने का अवसर मिलता है । मक्खन खाते समय उनका मनमोहक रूप निहारने के लिए मिलता है । वे, ईश्वर की उस आनंददायी लीला का आनंद लूटती हैं । हम ऐसी साधना करेंगे, तो ईश्वर हमें भी वैसा आनंद देंगे । श्रीकृष्ण इतने कृपालु हैं और उनका मुझ पर इतना प्रेम है कि वे इस जन्म में भी मुझे आनंद दे रहे हैं । श्रीकृष्ण अपने भक्तों की प्रत्येक इच्छा पूरी करते हैं । उन्होंने मेरी भी इच्छा पूरी की ।

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