सनातन संस्था तथा हिन्दू जनजागृति समिति द्वारा इंदौर (मध्यप्रदेश) में प्रवचन

श्री गणेशोत्सव निमित्त सनातन संस्था तथा हिन्दू जनजागृति समिति द्वारा श्री साई रेसीडन्सी इस संकुल में प्रवचन आयोजित किया गया था ।

चैतन्यदायी गुरुपूर्णिमा महोत्सव में सहस्त्रो लोगों ने अनुभव किया गुरुपरंपरा की महानता !

चैतन्यदायी गुरुपूर्णिमा महोत्सव में सहस्त्रो लोगों ने अनुभव किया गुरुपरंपरा की महानता !

ओणम

ओणम केरल का एक प्रमुख त्योहार है। ओणम केरल का एक पर्व है। दक्षिण भारत के अहम पर्वों में से एक है ओणम। इस पर्व में दक्षिण भारत की परंपरा के पूर्ण दर्शन होते हैं।

साधकों पर प्रेम की बौछार करनेवाली श्रीमती अश्विनी पवार 69 वे संतपद पर विराजमान !

सनातन की प्रसारसेविका सद्गुरु (कु.) अनुराधा वाडेकर ने 9 जुलाई को अर्थात् गुरुपूर्णिमा के शुभदिन पर यह घोषित किया कि, ‘यहां के सनातन के आश्रम में साधकों की आध्यात्मिक माता कहलानेवाली (श्रीमती) अश्विनी पवार (आयु 27 वर्ष ) ने 71 प्रतिशत स्तर प्राप्त कर वे सनातन की 69 वे संतपद पर विराजमान हुई हैं ।’

प्रीति : चराचर के प्रति निरपेक्ष प्रेम सीखानेवाला साधना का स्तर !

प्रीति अर्थात् निरपेक्ष प्रेम । व्यवहार के प्रेम में अपेक्षा रहती है । साधना करनेसे सात्त्विकता बढ जाती है तथा उससे सान्निध्य में आनेवाली चराचर सृष्टि को संतुष्ट करने की वृत्ती निर्माण होती है ।

त्याग : अर्पण का महत्त्व

हिन्दु धर्म ने त्याग ही मनुष्य जीवन का मुख्य सूत्र बताया है । अर्पण का महत्त्व ध्यान में आने के पश्चात् अपना समर्पण का भावजागृत होकर किए गए अर्पण का अधिक लाभ प्राप्त हो सकता है । उसके लिए अर्पण का महत्त्व स्पष्ट कर रहे हैं ।

सत् के लिए त्याग

६० प्रतिशत स्तरतक पहुंचनेपर खरे अर्थमें त्यागका आरंभ होता है । आध्यात्मिक उन्नति हेतु तन, मन एवं धन, सभीका त्याग करना पडता है । पदार्थविज्ञानकी दृष्टिसे धनका त्याग सबसे आसान है, क्योंकि हम अपना सारा धन दूसरोंको दे सकते हैं; परंतु अपना तन एवं मन इस प्रकार नहीं दे सकते । फिर भी व्यक्ति प्रथम उनका त्याग कर सकता है अर्थात तनसे शारीरिक सेवा एवं मनसे नामजप कर सकता है ।

सत्सेवा किसे कहते हैं ?

‘एक बार बुद्धि से अध्यात्म का महत्त्व ध्यान में आया कि, ‘इस जन्म में ही मोक्षप्राप्ति करना है’, ऐसा निश्चय यदि उसी समय निश्चय हुआ तथा साधना आरंभ हुई कि, सत्संग में क्या सीखाया जाता है, इस बात को अल्प महत्त्व रहता है । यदि ऐसे साधक ने नामजप तथा सत्संग के साथ-साथ सेवा की, तो उसे अधिकाधिक आनंद प्राप्त होने लगता है तथा साधक पर गुरुकृपा का वर्षाव निरंतर रहता है ।
सत्सेवाके संदर्भमें निम्नलिखित विषयों का ध्यान रहे ।

सत्संग का महत्त्व

एक बार वसिष्ठ एवं विश्वामित्र ऋषिके बीच विवाद खडा हुआ कि सत्संग श्रेष्ठ है अथवा तपस्या ? वसिष्ठ ऋषिने कहा, ‘सत्संग’; किंतु विश्वामित्र ऋषिने कहा, ‘तपस्या’ । इस विवादके निष्कर्ष के लिए वे देवताओंके पास गए । देवताओंने कहा, ‘‘केवल शेष ही तुम्हारे प्रश्नका उत्तर दे सकेंगे ।’’ तब वे दोनों शेषनागके पास गए । उनके प्रश्न पूछनेपर शेषने कहा, ‘‘तुम मेरे सिरसे पृथ्वीके भारको हल्का करो, फिर मैं सोचकर उत्तर दूंगा ।’’