हनुमानजी द्वारा लंकादहन

हनुमानजी लंका जलाने के लिए जब स्वयं को अपराधी मान रहे थे, उसी समय हनुमानजी को दिव्य वाणी सुनाई दी – राक्षसों की लंका जल गई, पर सीता पर कोई आंच नहीं आई । तब हनुमानजी ने अपना मनोरथ पूर्ण समझा ।

रुद्रावतार हनुमानजी

हनुमानजी को ग्यारहवां रुद्र माना जाता है । इसी कारण समर्थ रामदासजीने हनुमानजीको ‘भीमरूपी महारुद्र’ संबोधित किया है । हनुमानजी की पंचमुखी मूर्ति रुद्रशिव के पंचमुखी प्रभाव से निर्माण हुई है ।

भावशक्ति के बल पर विदेश में धर्मजागृति का महान कार्य सफलतापूर्वक करनेवाले स्वामी विवेकानंद !

स्वामी विवेकानंद जब धर्मप्रसार के लिए, अर्थात् सनातन हिन्दू धर्म का तेज विदेशों में फैलाने के उद्देश्य से सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारत के प्रतिनिधि के रूप में शिकागो (अमेरिका) गए थे, तब उन्होंने उस धर्मसम्मेलन में श्रोताओं के मन जीतकर वहां ‘न भूतो न भविष्यति !’ ऐसा विलक्षण प्रभाव उत्पन्न किया ।

देवर्षि नारद

जिसप्रकार नारदमुनि भगवान का अखंड स्मरण और स्तुति करते हैं; उसीप्रकार श्रीकृष्णजी भी अखंड अपने भक्त का स्मरण एवं स्तुति करते हैं । श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है – ‘देवर्षीणाम् च नारद:।’

आरनमुळा कण्णाडी अर्थात भगवानके मुखदर्शनके लिए बनाया गया विशेष दर्पण !

मंदिरों में देवता का पूजन करते समय उपचार के अंतर्गत दर्पण उपचार में देवता को दर्पण दिखाते हैं अथवा दर्पण से सूर्य की किरण भगवान की ओर परावर्तित करते हैं ।

अयोध्यामें श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ ने लिए प्रभु श्रीरामजी की कुलदेवी श्री देवकालीमाता के आशीर्वाद !

अयोध्यानगरी सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी है । उनकी कुलदेवी श्री देवकालीदेवी है । त्रेतायुग में सूर्यवंशी दशरथ राजा के घर में श्रीराम का जन्म हुआ ।

भारतीय संस्कृति की ‘प्रतीक पूजा’

प्रतीक अर्थपूर्ण, सामर्थ्यशाली और प्रभावशाली होते हैं । इसीलिए हमें अपना राष्ट्रध्वज भी कई गुना सर्वश्रेष्ठ लगता है । हमारा तिरंगा झंडा प्रत्येक भारतीय के प्राण एवं आत्मा का प्रतीक है ।

संत कबीर का आध्यात्मिक सामर्थ्य !

कबीर ने बताया, २५ वर्षों से मैं योगसाधना के बल पर हिमालय में गया था । वहां दो भाई तपश्चर्या कर रहे थे । उन्होंने मुझसे ब्रह्मज्ञान की मांग की ।

गायत्रीदेवी का आध्यात्मिक महत्त्व और उनकी गुणविशेषताएं !

‘गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति है – गायन्तं त्रायते । अर्थात गायन करने से (मंत्र से) रक्षा जो करे और गायंतं त्रायंतं इति । अर्थात सतत गाते रहने से जो शरीर से गायन करवाए (शरीर में मंत्रों के सूक्ष्म स्पंदन निर्माण करती है ।) और जो तारने की शक्ति उत्पन्न करती है, वह है गायत्री ।