भावशक्ति के बल पर विदेश में धर्मजागृति का महान कार्य सफलतापूर्वक करनेवाले स्वामी विवेकानंद !

स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के जीवन में घटित एक घटना के विषय में यहां बता रहे हैं । स्वामी विवेकानंद जब धर्मप्रसार के लिए, अर्थात् सनातन हिन्दू धर्म का तेज विदेशों में फैलाने के उद्देश्य से सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारत के प्रतिनिधि के रूप में शिकागो (अमेरिका) गए थे, तब उन्होंने उस धर्मसम्मेलन में श्रोताओं के मन जीतकर वहां ‘न भूतो न भविष्यति !’ ऐसा विलक्षण प्रभाव उत्पन्न किया । उससे सनातन हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता यूरोपीय देशों के सामने प्रभावशाली ढंग से रखी गई । उसके पश्‍चात, स्वामी विवेकानंद को वहां की अनेक संस्थाओं की ओर से व्याख्यन देने के लिए निमंत्रण मिलने लगे । उन व्याख्यानों में उन्होंने ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग और राजयोग विषय प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किए । सब श्रोता मंत्रमुग्ध होकर और सुधबुध खोकर व्याख्यान सुनते थे । इस प्रभावी प्रस्तुतिकरण के प्रभाव से श्रोता जब बाहर आते, तब उनमें आगे का विषय सुनने की तीव्र उत्कंठा जागृत होती ।

श्री. धनंजय राजहंस

एक बार ऐसे ही एक कार्यक्रम के पश्‍चात कुछ उत्कंठित श्रोता स्वामी विवेकानंद को घेरकर प्रश्‍न करने लगे, ‘हे महान तपस्वी स्वामी ! आपने यह अलौकिक ज्ञान किस विद्यालय अथवा महाविद्यालय से प्राप्त किया है ? क्या कृपा कर हमें यह विस्तार से बताएंगे ? स्वामी विवेकानंद ने कहा, अवश्य । यह अमूल्य ज्ञान मुझे केवल मेरे गुरुदेव से प्राप्त हुआ है । तब श्रोताओं ने अधीर होकर पूछा, आपके गुरु कौन हैं ? स्वामी विवेकानंद ने कहा, आपमें यदि सुनने की तीव्र जिज्ञासा है, तो हम अवश्य बताएंगे ।

उस दिन स्वामी विवेकानंद के विशेष प्रवचन का आयोजन किया गया । प्रवचन का विषय था, ‘मेरे गुरुदेव ’। इस प्रवचन के विषय में समाचारपत्रों में बहुत प्रचार किया गया । इससे कुतूहलवश यह प्रवचन सुनने के लिए बडा जनसागर उमड पडा ।

वह जनसागर प्रवचनकार विवेकानंद के मुख से निकलनेवाले मोती चुनने के लिए बहुत अधीर था । प्रवचन निर्धारित समय पर करने के लिए जैसे ही स्वामी विवेकानंद व्यासपीठ पर पहुंचे, वहां अकस्मात नीरव शांति छा गई । सद्गुरु के विषय में बोलने के लिए जब वे खडे हुए और सामने जनसागर देखा, तब उनका मन सद्गुरु के प्रति कृतज्ञता से भावविभोर हो गया । जब उन्होंने बोलना आरंभ किया, तब उनके मुख से निकला पहला वाक्य था, ‘मेरे गुरुदेव !’ यह  वाक्य उनके अत्यंत भावपूर्ण अंतःकरण से व्यक्त हुआ था ।

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध और इनसे संबंधित शक्तियां एक साथ होती हैं, इस नियम के अनुसार उनके मुख से उच्चरित भावपूर्ण वाक्य से उनकी आंखों के सामने गुरु का सगुण रूप उपस्थित हुआ । निर्गुण गुरुतत्त्व का यह सगुणात्मक दर्शन वे अपने भीतर जागृत और कार्यरत भावशक्ति के कारण ही कर सके । सद्गुरु के इस सगुण दर्शन से उनका कंठ रुंध गया । आंखें झरने की भांति बहने लगीं और शरीर रोमांचित होकर कांपने लगा । इसलिए, वे १० मिनट तक कुछ न बोल सके । उनकी यह अवस्था देखकर श्रोता चकित हुए । श्रोताओं का चकित होना स्वाभाविक ही था । क्योंकि अबतक उन्होंने शरीर को चोट लगना अथवा माता-पिता और संबंधियों की मृत्यु के अतिरिक्त कभी किसी की आंखों से आंसू बहते नहीं देखा था । इसलिए वे चकित होकर स्वामी विवेकानंद की ओर देखने लगे ।

जैसे कोई कुशल वक्ता अपने भाषण से श्रोताओं के अंतःकरण में अनेक रस (श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र आदि) उत्पन्न कर, उन्हें भावविभोर कर देता है, वैसा ही कार्य स्वामी विवेकानंद ने किया ।

गुरोर्मौनं तु व्याख्यानं शिष्यस्तु छिन्नसंशयः ।

अर्थ : गुरु ने शिष्य को मौन रहकर पढाया और शिष्य ने उसे मौन रहकर ग्रहण किया । इस प्रसंग से ज्ञात होता है कि स्वामी विवेकानंद की अपने सद्गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस में कितनी अगाध श्रद्धा थी । इसलिए, वे प्रसंगानुरूप भावावस्था में तुरंत पहुंच सके ।

कुछ समय उपरांत जब स्वामी विवेकानंद इस भावावस्था से सामान्य अवस्था में आए, तब उन्होंने कहा, ‘आध्यात्मिक उन्नति केवल ग्रंथ पढने से कभी नहीं होती । एक जीवात्मा की उन्नति के लिए जो प्रेरणा चाहिए, वह केवल दूसरी जीवात्मा से मिलती है ।  संपूर्ण जीवनभर यदि आप ग्रंथों का अध्ययन करेंगे, तो क्या होगा ? आपकी बुद्धि जागृत होगी । किंतु जीवन के अंतिम समय में आपको पता चलेगा कि आपने आध्यात्मिक उन्नति की एक भी सीढी नहीं चढी है ।

आध्यात्मिक उन्नति की इच्छा करनेवाले जीवों को यह समझ लेना चाहिए कि शिष्य के जीवन में गुरू का महत्त्व कितना असाधारण होता है, यह अनुभव शिष्य बनने पर ही होता है । शिष्य के जीवन में गुरु ज्ञानरूपी तेज प्रक्षेपित कर अज्ञानरूपी अंधःकार नष्ट करते हैं; उसे जीवन-मरण के चक्र से मुक्त कर उसका जीवन सार्थक करते हैं ।

बुद्धि से गुरु को समझना असंभव है । साधना से गुरु मिलते हैं और उनकी कृपा से ही व्यक्ति जीवन-मरण की अंतहीन दु:खद यात्रा से सदा के लिए मुक्त होता है । इसलिए, प्रत्येक मनुष्य को साधना कर गुरुप्राप्ति कर लेनी चाहिए । आज के सत्संग में मैं यही बात आपको बताना चाहता हूं ।

– श्री. धनंजय राजहंस, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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