जप-तप की तुलना में कर्तव्यधर्म का पालन श्रेष्ठ !

 

१. गंगास्नान की तुलना में स्वकर्तव्य को श्रेष्ठ माननेवाले संत रविदास !

‘संत रविदासजी चमडे का काम करते थे । वे अपना काम ईश्‍वरपूजा समझ कर मनःपूर्वक और प्रमाणिकता से करते थे । एक बार उन्होंने किसी साधु को सोमवती अमावस्या पर अपने साथ गंगास्नान में आने का आश्‍वासन दिया । वह दिन भी आ गया । साधुमहाराज रविदास के पास गए और उन्होंने रविदासजी को गंगास्नान का स्मरण करवाया । तब रविदास लोगों के जूते बनाने में व्यस्त थे, जो उन्हें नियोजित समय में लोगों को देना आवश्यक था । अतः गंगास्नान के लिए आने में उन्होंने अपनी असमर्थता दर्शाई और कहा, ‘‘हे महात्मन ! आप मुझे क्षमा करें । मेरे भाग्य में गंगास्नान नहीं है । आप यह एक पैसा ले जाइए और गंगामैया को अर्पण कर दीजिए । ’’

 

२. कर्तव्यधर्म का पालन करनेवाले रविदासजी का दिया पैसा गंगामैया द्वारा स्वीकारा जाना

साधुमहाराज गंगास्नान के लिए समय पर पहुंचे । स्नान करने के उपरांत उसे रविदास ने दिया पैसा अर्पण करने का स्मरण हुआ । उन्होंने मन ही मन गंगामैया से कहा, ‘हे गंगामैया, रविदास ने यह पैसा आपको अर्पण करने के लिए दिया है । आप इसका स्वीकार कीजिए !’ इतना कहने पर गंगा के उस विशाल जलप्रवाह में से २ विशाल हाथ बाहर आए और उस पैसे का उन्होंने स्वीकार किया । यह दृश्य देख कर साधुमहाराज अचंभित हुए और सोचने लगे, ‘मैंने इतना जप-तप किया, गंगा-स्नान किया, तब भी गंगामैया की मुझ पर कृपा नहीं हुई और इधर गंगास्नान किए बिना ही रविदासजी ने उनकी कृपा प्राप्त कर ली है ।’

 

३. कर्तव्यधर्मपालन का फल

साधुमहाराज ने रविदासजी को जाकर पूरी घटना सुनाई । तब रविदास ने कहा, ‘‘हे महात्मन ! यह सब कर्तव्यधर्मपालन का फल है । मैं निर्धन हूं, अतः इसमें तप अथवा पुरुषार्थ का कोई सहभाग नहीं है ।’’

(संदर्भ : मासिक ‘अखण्ड ज्योति’, मई २०००)

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