श्री गणेशजी का कार्य, विशेषताएं एवं उनका परिवार

 

१. श्री गणेशजी का कार्य, विशेषताएं

१ अ. विघ्नहर्ता

गणपति विघ्नहर्ता हैं, इसलिए नाटिका से लेकर विवाह तक एवं गृहप्रवेश जैसी समस्त विधियों के प्रारंभ में श्री गणेशपूजन किया जाता है ।

१ आ. प्राणशक्ति बढानेवाला 

मानव-देह के विविध कार्य विविध शक्तियों के द्वारा होते रहते हैं । (इन विविध शक्तियों की जानकारी सनातन-प्रकाशित ‘आध्यात्मिक उन्नति हेतु हठयोग (भाग २)’ ग्रंथ के ‘अध्याय २. प्राणायाम’ में दी गई है ।) इन विविध शक्तियों की मूलभूत शक्ति को ‘प्राणशक्ति’ कहते हैं । श्री गणपति का नामजप करने से मानव की प्राणशक्ति में वृद्धि होती है ।

अनुभूति

प्राणशक्ति मिलने हेतु प्रतिदिन अपने सामने बैठकर नामजप करने के लिए सूक्ष्मरूप से श्री गणपति का कहना एवं वैसा करने पर प्राणशक्ति मिलकर उत्साह लगना : ‘१०.२.२००४ की दोपहर मैं सनातन के आश्रम की यज्ञवेदी के निकट तथा श्री गणपति की मूर्ति के समक्ष बैठकर नामजप कर रही थी । उस समय नामजप की अपेक्षा मेरी प्रार्थना ही अधिक मात्रा में हो रही थी । मुझे बहुत थकान अनुभव हो रही थी । तब श्री गणपति ने मुझसे सूक्ष्म से कहा, ‘तुम प्रतिदिन थोडा समय यहां आकर बैठो । इससे तुम्हें प्राणशक्ति मिलेगी ।’ तदुपरांत पांच मिनट श्री गणपति का नामजप करने पर मुझे उत्साह अनुभव होने लगा ।’

– श्रीमती श्रुति नितिन सहकारी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

१ इ. विवेक बुद्धि उत्पन्न कर चित्त को शांत करनेवाले 

‘श्री गणेश ब्रह्मांड में विद्यमान दूषित शक्ति को आकर्षित करते हैं तथा मनुष्य की बुद्धि में विवेक उत्पन्न करते हैं । श्री गणेशोपासना संदेह को दृढ होने नहीं देती । बुद्धि स्थिर एवं चित्त शांत रहता है । ‘मैं कौन हूं, भगवान ने मुझे इस संसार में किसलिए भेजा है’, इसका भान साधक को रहता है तथा वह श्रद्धापूर्वक कार्य आरंभ करता है । साधक में भाववृद्धि होकर उसकी उत्तरोत्तर प्रगति होने लगती है ।’

– प.पू. परशराम पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, महाराष्ट्र.

 

१ ई. विद्यापति 

‘पत्र अथवा अन्य कुछ लिखते समय सर्वप्रथम ‘श्री गणेशाय नमः । श्री सरस्वत्यै नमः । श्री गुरुभ्यो नमः ।’, ऐसा लिखने की प्राचीन पद्धति थी । ऐसा ही क्रम क्यों बना ? किसी भी विषय का ज्ञान प्रथम बुद्धि द्वारा ही होता है एवं श्री गणपति बुद्धिदाता हैं, इसलिए प्रथम ‘॥ श्री गणेशाय नमः ॥’ लिखना चाहिए । बुद्धि से जो ज्ञान ग्रहण किया गया हो उसे शब्दबद्ध करना सरस्वती का कार्य है । सरस्वती को ज्ञानदेव ने ‘अभिनववाग्विलासिनी’ कहा है । श्री समर्थ ने कहा है, ‘शब्द मूल वाग्देवता’; इसलिए दूसरा क्रमांक श्री सरस्वती को दिया । गुरु ही ज्ञान को ग्रहण करने का तथा उसे शब्दबद्ध करने का माध्यम बनते हैं; इसलिए गुरु को तीसरा क्रमांक दिया गया है ।’ महाभारत लिखने के लिए महर्षि व्यास को एक बुद्धिमान लेखक की आवश्यकता थी । यह कार्य करने के लिए उन्होंने श्री गणपति से ही प्रार्थना की थी।

 

१ उ. नादभाषा एवं प्रकाशभाषा
को एक-दूसरे में रूपांतर करनेवाला 

मनुष्य की नादभाषा है, देवताओं की प्रकाशभाषा । नादभाषा का प्रकाशभाषा में एवं प्रकाशभाषा का नादभाषा में रूपांतर करनेवाले देवता हैं श्री गणपति; इसलिए वे हमारी नादभाषा को समझ सकते हैं और तुरंत प्रसन्न होते हैं । अन्य देवता अधिकांशतः प्रकाशभाषा ही समझ सकते हैं ।

 

१ ऊ. जीव को जन्म लेने की अनुमति देनेवाला 

मह (जन्म लेनेवाला जीव) गणपति की अनुमति से जन्म लेता है ।

 

१ ए. सर्व संप्रदायों में पूज्य 

संप्रदाय अर्थात यह मानना कि ‘हमारे उपास्यदेवता ही सर्वश्रेष्ठ हैं और वही उत्पत्ति, स्थिति एवं लय करते हैं, अन्य देवता हैं ही नहीं ।’ ऐसे अनेक संप्रदाय हैं, फिर भी प्रत्येक में गणेशपूजा प्रचलित है । शैव संप्रदाय में श्री गणपति शिवजी के पुत्र तथा शिवजी के प्रमुख गण के रूप में पाए जाते हैं तथा वैष्णव संप्रदाय में वे अनिरुद्ध, वासुदेव आदि रूपों में मिलते हैं । शाक्त (देवी) संप्रदाय में दो प्रकार हैं – दक्षिणमार्गी तथा वाममार्गी । दोनों में श्री गणेशपूजन किया जाता है । इस संप्रदाय में वे वैवाहिक रूपों में दर्शाए जाते हैं – शक्तिगणपति, लक्ष्मीगणपति तथा स्त्रीरूप में भी पूजे जाते हैं । जैन पंथ में भी श्री गणेशपूजन किया जाता है । बौद्ध पंथ को अपनानेवाले सम्राट अशोक की चारुमति नामक कन्या ने नेपाल में श्री गणेशमंदिर की निर्मिति की । ‘हेरंब’ नाम से प्रसिद्ध यहां के श्री गणेश सिंहासनस्थ हैं तथा उनके पांच मस्तक एवं दस हाथ हैं । यह जानकारी गणेशसाहित्य में दी है ।

 

१ ऐ. संतों द्वारा गौरवान्वित देवता 

विभिन्न साधनामार्गों के संत विभिन्न देवताओं के उपासक होते हैं, फिर भी सब संतों ने श्री गणेश की शरण जाकर याचना की है, उनका भावपूर्ण स्तवन किया है । सर्व संतों के लिए श्री गणेश अति पूजनीय देवता रहे । मराठी संतवाङ्मय में तो श्री गणेश के लौकिक तथा पारलौकिक स्वरूप का सुंदर वर्णन मिलता है । संतशिरोमणि श्री ज्ञानेश्‍वर ने भावार्थदीपिका के (ज्ञानेश्‍वरी के) आरंभ में श्री गणेश की विनम्र वंदना की है – ‘हे भगवान आप ही श्री गणेश हैं । सब की बुद्धि को प्रकाशित करें’ (सकलार्थमतिप्रकाशु ।) । संत एकनाथजी ने भागवतटीका में श्री गणेश का प्रथम वंदन किया है – ‘ॐ अनादि आद्या । वेदवेदान्तविद्या । वंद्य ही परमावंद्या । स्वयंवेद्या श्रीगणेशा ॥’ कहा जाता है कि संत तुकाराम महाराज ने श्री विठ्ठल तथा श्री गणेश को एक साथ ही भोजन करने हेतु बुलाया था । संत नामदेव ने कहा है, ‘लंबोदर आपके आभूषण (सूंड और दंत) । करते हैं खंड दुश्‍चिह्नों का ॥’ संत तुलसीदासजी ने भी ‘रामचरितमानस’ के आरंभ में श्री गणेशस्तवन किया है ।

 

१ ओ. संगीत तथा नृत्य में प्रवीण

स्वरब्रह्म का आविष्कार अर्थात ओंकार । श्री गणेश को ‘ओंकारस्वरूप श्री गणेश’ के नाम से भी संबोधित किया है । श्री गणेश वरद-स्तोत्र के अनेक श्‍लोकों से तथा संत ज्ञानेश्‍वर, संत नामदेव, समर्थ रामदासस्वामी आदि संतों की रचनाओं से भी गणेशजी के संगीत से घनिष्ठ-संबंध स्पष्ट होते हैं । नर्तक रूप में भी गणेशजी की मूर्तियां मिलती हैं । सुनहरी देहकांति का इन श्री गणेशमूर्तियों के आठ हाथ तथा बायां पग पद्मासन पर और दाहिना पग अधर में है । मध्व मुनिश्‍वर जी ने ऐसे शब्दों में श्री गणेश की नृत्यसंपदा की महत्ता का वर्णन किया है – ‘आइए, मंगलमूर्ति श्री गणेश, आप पतित पावन दीनदयाल हैं । आपकी कीर्ति त्रिभुवन में सर्वज्ञात है । कीर्तन में तल्लीन होकर, आप संगीत की तालपर नृत्य करते हैं ।’ गजानन का नृत्य देखकर गंधर्व-अपसराएं भी लज्जित होती हैं, ऐसा कहते हुए कवि मोरोपंत ने श्री गणेश के मनोहर रूप का वर्णन अपनी शब्दसंपदा तथा कल्पना सौंदर्य द्वारा उत्कृष्ट पद्धति से चित्रित किया है ।

१ औ. वाक्देवता 

गणेश प्रसन्न होनेपर, वाक्सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।

१ अं. साधना को प्रारंभ की दिशा देना

श्री गणपति साधना को प्रारंभ की दिशा देने का कार्य करते हैं ।

 

२. श्री गणेश जी का परिवार एकं उसका भावार्थ

२ अ. कुटुंबीय

पुराणों के अनुसार शिव-पार्वती गणपति के पिता एवं माता हैं तथा स्कंद (कार्तिकेय) उनका भाई है । शिव-पार्वती पिता-माता हैं, अर्थात शिव एवं मीनाक्षी की तेजतरंगों के संयोग से गणेशतरंगें निर्मित हुईं ।

२ आ. वाहन

वृ – वह का अर्थ है – ले जाना, जिससे ‘वाहन’ शब्द बना है । देवताओं के वाहनों में उनके कार्यानुसार परिवर्तन होता रहता है । सामान्यतः गणपति का वाहन मूषक है, परंतु उनके कुछ अन्य वाहन भी हैं । आ + वाहन = आवाहन । आवाहन बिना, अर्थात निमंत्रण बिना, देवता भी नहीं पधारते । (यदि भक्त संकट में हो, तो निमंत्रण बिना ही देवता भागे चले आते हैं ।) आवाहन करने पर कार्य हेतु पूरक वाहन की आवश्यकता होती है, उदा. युद्ध के लिए सिंह । ‘हेरंबगणपति’ का वाहन सिंह है एवं मयूरेश्‍वर का वाहन मोर है । युगानुसार गणपति के वाहन एवं श्री गणेशमूर्ति की विशेषताओं का विवरण आगे की सारणी में दिया है ।

युग       वाहन श्री गणेशकी विशेषता युग  वाहन   श्री गणेशकी  विशेषता
1. कृत (सत्य)  सिंह    दस हाथ      3. द्वापर    मूषक     –
2. त्रेता       मयूर      छः हाथ       4. कलि     मूषक   अंगकांति श्‍वेत
संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘श्री गणपति’

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