सनातन के अल्प अवधि में ही व्यापक होने के पीछे का रहस्य !

किसी भी संस्था के बडे होने में कुछ विशेषताएं होती हैं । अधिकांशतः ये विशेषताएं मानसिक और व्यावहारिक स्तर की होती हैं । सनातन संस्था के अल्प अवधि में ही विश्‍वव्यापी होने के पीछे कुछ विशेषताएं हैं; परंतु ये विशेषताएं आध्यात्मिक स्तर की हैं । प्रीति (सभी के प्रति निरपेक्ष प्रेम), निरपेक्षता से निरंतर कार्यरत रहना, स्वयं के गुण-दोषों का आत्मपरीक्षण करना, किसी भी संकट में बिना डगमगाए ईश्‍वर पर श्रद्धा और व्यापकता, यही हैं कुछ चुनिंदा विशषताएं । सनातन की विचारधारा पूर्णत: माननेवाले हजारों साधकों में ये विशेषताएं कुछ मात्रा में तो अनुभव कर सकते हैं । अध्यात्म में पिंडी से ब्रह्मांडी यह तत्त्व है । सनातन के साधकों में यह दिव्य विशेषताएं हैं, इसका कारण सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा साधकों को इसकी सीख आरंभ से ही दी गई है । आज परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी सार्वजनिक जीवन से निवृत्त हुए हैं; परंतु उन्होंने २० से २५ वर्ष पूर्व दी हुई यह सीख उद्गम से संगम की ओर बहनेवाली सरिता के समान अखंड कलकल करते हुए बह रही है । सनातन का मात्र २५ वर्षों में विश्‍वव्यापी होने के पीछे यही रहस्य है । यह सीख परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने साधकों में कैसे रोपी, इसका मर्म खोजने का यह अल्प-सा प्रयास !

 

१. प्रीति (सभी के प्रति निरपेक्ष प्रेम)

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने अपने संपर्क में आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति पर, फिर वह साधक हो अथवा न हो, निरपेक्ष प्रेम किया । अभी तक उन्होंने हजारों जिज्ञासुआें को साधना बताई है; परंतु वह व्यक्ति साधना करे, यह आग्रह नहीं किया । किसी व्यक्ति द्वारा साधना न करने पर भी उसके प्रति प्रेम कम नहीं हुआ । दो प्रसंगों से यह निरपेक्ष प्रीति कैसे कार्य करती है, यह देखेंगे ।

१ अ. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की निरपेक्ष प्रीति के कारण
डॉ. जोशी द्वारा अनेक वर्षों के पश्‍चात भी सनातन के ग्रंथ का गुजराती भाषा में भाषांतर करना

जामनगर, गुजरात के आयुर्वेदिक वैद्याचार्य डॉ. प्रकाश जोशी लगभग १५ – १६ वर्षों पूर्व स्वसम्मोहन उपचार पद्धति सीखने हेतु परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के पास आए थे । उस समय परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने उन्हें इस विषय पर लिखे ग्रंथ का गुजराती भाषांतर करने की विनती की थी । उसके पश्‍चात अचानक डॉ. जोशी का इस वर्ष (२०१६ में) भ्रमणभाष आया और उन्होंने बताया कि १५ – १६ वर्षों पूर्व डॉ. आठवलेजी ने मुझे इस ग्रंथ का भाषांतर करने को कहा था और अब इस ग्रंथ का भाषांतर तथा उसका टंकन पूर्ण हो गया है । अब यह ग्रंथ मैं आपके पास छपाई के लिए भेजता हूं । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के सहवास के कारण उस व्यक्ति के मन पर बीजरूप में रोपित संस्कारों का फल आगे कभी तो मिलता है, इसकी प्रतीति इस प्रकार बार-बार होती है ।

साधक भी परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के इस गुण का अनुकरण करते हैं । उसका फल कैसे मिलता है, इस संबंध में एक प्रसंग है ।

१ आ. पांच-छ: वर्ष पूर्व सनातन के साधकों का सहवास
मिलने के कारण नगर जनपद के युवकों द्वारा अबतक साधना चालू रखना

महाराष्ट्र के नगर जनपद में सनातन का कार्य अधिक नहीं है । हाल ही में कुछ उपक्रमों के निमित्त सनातन के साधक नगर जनपद के कुछ गांवों में गए । उस समय वहां के कुछ युवकों ने बताया कि हम सनातन के साधक ही हैं । पांच-छ: वर्ष पूर्व हमारे गांव में सनातन के कुछ साधकों ने आकर साधना बताई थी । तब से हम साधना कर रहे हैं । आप हमें धर्मकार्य के संबंध में मार्गदर्शन करें, हम धर्मकार्य करने को तैयार हैं ।

पांच-छ: वर्ष पूर्व सनातन के कुछ साधकों ने कुछ युवाआें को निरपेक्षता से बताई साधना का परिणाम दीर्घकाल के पश्‍चात भी बना हुआ है, इसकी यह प्रतीति है !

१ इ. आठवलेजी से मिली हुई प्रीति की यह धरोहर पारस के समान कार्य करना

निरपेक्ष प्रेम करने की सनातन के साधकों की इस विशेषता का बोध समाज को होता है और किसी न किसी माध्यम से वे समाज के धर्मकार्य में सम्मिलित होते हैं । प्रारंभ में अर्पण अथवा अथवा विज्ञापन मांगने हेतु जाने पर वह न मिलने पर सनातन के अनेक साधकों को खाली हाथ लौटना पडता है । उस संबंध में किसी प्रकार की कटुता साधकों के व्यवहार में दिखाई नहीं देती । परिणामस्वरूप यदि किसी कारणवश साधक अर्पण अथवा विज्ञापन लेने नहीं पहुंचे, तो अर्पणदाता स्वयं ही उस संबंध में पूछते हैं । उस समय आठवलेजी से मिली हुई प्रीति की धरोहर कैसे कार्य करती है, इसकी प्रतीति होती है ।

 

२. फल की अपेक्षा न कर निरंतर कार्यरत रहना

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी अस्वस्थ होने पर ही विश्राम करते हैं, इसके अतिरिक्त उन्हें विश्राम करते हुए अथवा मनोरंजन हेतु कुछ अन्य करते हुए किसी ने नहीं देखा है । यही गुण सनातन के साधकों में भी आया है । सनातन के हजारों साधक भी संसार, नौकरी-व्यवसाय संभालकर धर्मकार्य के लिए निरंतर कार्यरत रहते हैं । कितने ही साधकों के दिन का आरंभ प्रातः और अंत मध्यरात्रि में होता है । इसलिए अनेक लोग कहते हैं कि सामाजिक कार्य करनेवाले किसी भी कार्यकर्ता की अपेक्षा सनातन के साधक की कार्यक्षमता पांच गुना अधिक है । विशेष यही है कि इन साधकों को कार्यरत करने के लिए किसी को प्रेरणा देने की आवश्यकता नहीं होती । धर्मकार्य गुरुसेवा है, यह विचार अंकित होने के कारण साधक भाव के स्तर पर प्रेरित होकर सुध-बुध खोकर कार्य करते हैं । इसलिए जो कार्य होने में एक माह लगता होगा, वही कार्य सनातन के साधक ७-८ दिनों में परिपूर्ण करते हैं । अब तक गांव-गांव में हुई १ हजार से अधिक हिन्दू धर्मजागृति सभाएं, प्रत्येक वर्ष २०० से २५० स्थानों पर होनेवाले गुरुपूर्णिमा महोत्सव, हिन्दू संगठन मेले इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं ।

 

३. स्वयं के गुण-दोषों का आत्मपरीक्षण करना

समाज में विज्ञान के प्रति निष्ठा जैसे-जैसे बढती गई, वैसे-वैसे व्यक्ति के स्वभावदोष और अहं का प्रमाण भी बढता गया । व्यक्ति के स्वभावदोष और अहं के कारण कार्य की गुणवत्ता न्यून होती है और उसकी फलोत्पत्ति भी न्यून होती है । इसलिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने साधकों को स्वभावदोष और अहंनिर्मूलन प्रक्रिया सिखाई और साधक उसे ठीक से कार्यान्वित कर सकें, ऐसी प्रणाली भी बनाई । इससे साधकों के स्वभावदोष और अहं अल्प होकर उनके कार्य की गुणवत्ता बढी । इसका प्रमाण है कि अनेक संत और हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों के नेता भी सनातन के साधकों की अचूक कार्य करने की प्रणाली की प्रशंसा करते हैं । कुछ संगठन अब अपने संगठन का कार्य करते समय उसे कैसे करें, इस विषय में साधकों से अवश्य मार्गदर्शन लेते हैं । आज परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी स्वयं किसी को मार्गदर्शन नहीं करते हैं, परंतु उनके द्वारा बताए गए मार्ग का आचरण कर उन्हें अपेक्षित ऐसा कार्य करने की अथवा उस विषय में अन्यों को मार्गदर्शन करने की क्षमता ईश्‍वरकृपा से सनातन के साधकों में उत्पन्न हुई है ।

 

४. व्यापकता

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने कभी भी किसी भी विषय में संकुचित विचार नहीं किया । उन्होंने हिन्दुआें को संगठित करने हेतु स्वयं की संस्था, स्वयं के साधक यह विचार कभी नहीं किया । हिन्दुत्व के लिए कार्य करनेवाला प्रत्येक व्यक्ति, फिर वह किसी भी क्षेत्र में कार्य करनेवाला हो, उसे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने अपना ही माना है । आगे यही संस्कार साधकों पर भी हुआ । इसलिए साधकों में प्रत्येक हिन्दुत्वनिष्ठ के प्रति धर्मबंधुत्व उत्पन्न हुआ है । इसलिए कोई भी कार्य करते समय साधक सहजता से हिन्दुत्वनिष्ठों को एकत्रित करते हैं और कार्य सिद्ध होता है । सनातन का कार्य २५ वर्षों में बढा, अर्थात संगठन बडा हुआ, ऐसा नहीं है, अपितु हिन्दुत्वनिष्ठों की सहायता से धर्मकार्य व्यापक हुआ है । साधकों ने यह व्यापकता परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से ही सीखी है ।

 

५. किसी भी संकट का सामना निर्भयता से करने जितनी ईश्‍वर पर श्रद्धा

संकट कितना भी बडा हो, ईश्‍वर भक्त की रक्षा करते हैं, इसकी अनुभूति परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने समय-समय पर ली है । यही श्रद्धा उन्होंने साधकों में उत्पन्न की है । पिछले ७ – ८ वर्षों में सनातन पर अनेक संकट आए हैं; परंतु साधक डगमगाए नहीं । पुलिस ने ७०० – ८०० साधकों से कष्टदायक पूछताछ की । तीन बार सनातन पर प्रतिबंध लगाने के प्रयास हुए; परंतु साधकों की ईश्‍वर पर श्रद्धा अडिग थी; इसलिए ही उन्होंने धर्मकार्य रोकने का विचार भी नहीं किया । पूर्णकालीन धर्मकार्य करनेवाले साधकों के मन में सनातन पर प्रतिबंध आने पर हमारा क्या होगा, ऐसा प्रश्‍न भी नहीं आया । संकटकाल में भी सनातन का कार्य ऐरावत जैसा ही चलता रहा, इसका श्रेय परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा साधकों में ईश्‍वर के प्रति श्रद्धा निर्माण करने की सीख को जाता है ।

– श्री. भूषण केरकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

 

६. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन
में अनेक साधकों द्वारा साधना आरंभ करने के कारण

६ अ. चैतन्य का प्रभाव

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा किए गए मार्गदर्शन में चैतन्य होने के कारण वह साधक के अंतर्मन तक पहुंचने से उसे साधना की प्रेरणा मिलती है ।

६ आ. प्रीति की वर्षा

साधकों की साधना के संदर्भ में शंकाआें का समाधान करना, प्रसंग के अनुरूप साधक की प्रशंसा करना, उसे प्रसाद देना, साधना में सहायता होने की दृष्टि से उसे उसकी चूकें बताना, अडचन में साधक को पूर्णरूप से सहायता करना, जैसे विविध प्रकार से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी साधकों पर अपना प्रेम व्यक्त करते हैं । यह प्रेम ईश्‍वरीय होने से उसका परिणाम साधकों पर दीर्घकाल तक बना रहता है और साधक उनके प्रेम के बंधन में बंध जाता है ।

६ इ. ईश्‍वरीय ज्ञान का प्रभाव

अ. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने अध्यात्मशास्त्र का कठिन विषय सुलभ कर समाज को बताया, जिससे जिज्ञासु साधना करने लगे ।

आ. साधकों द्वारा किए गए प्रश्‍न और अडचनों के उत्तर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने ईश्‍वरीय ज्ञान से दिए । यह उत्तर ईश्‍वरीय होने से वे अचूक और परिपूर्ण हैं । साधकों द्वारा उसके अनुसार कृत्य करने से उनकी साधना की अडचनें न्यून होने में सहायता हुई । परिणाम स्वरूप साधकों की श्रद्धा बढी और वे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से स्थायी रूप से जुड गए ।

उक्त आध्यात्मिक पहलुआें का ज्ञान नास्तिक और धर्मद्रोहियों को न होने से वे सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी पर साधकों को सम्मोहित करने का आरोप लगाते हैं ।

– श्री. राम होनप, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

 

कार्य बढते बढते बढा और सूर्यमंडल को भी भेद गया

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने १९९१ में सनातन का बीजारोपण किया, उस समय संस्था का एक ही आश्रम था, जो शिव, मुंबई में प.पू. डॉक्टरजी का निवास स्थान था । उस समय एक संगणक पर एक साधक ग्रंथसंकलन की सेवा करता था । उसके सोने के पश्‍चात दूसरा साधक उसी संगणक पर टंकन करता था । आज यह संख्या अनेक गुना बढी है, तथा ध्वनिचित्रीकरण, कला, नियतकालिक जैसे धर्मशिक्षा और धर्मरक्षा के लिए आरंभ किए गए कार्य के प्रत्येक अंग ने आज व्यापक रूप धारण किया है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने प्रारंभ में अध्यात्म का सर्वांगस्पर्शी एक साइक्लोस्टाईल ग्रंथ प्रकाशित किया था । उस ग्रंथ के प्रत्येक प्रकरण का एक खंड बनकर उस खंड में अनेक ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं । सनातन की विचारधारा पर आधारित ६ जालस्थल लोकप्रिय हुए हैं । सनातन के विचारों से एकरूप होकर देशभर में ४ आश्रम हैं । सनातन के कार्य की प्रगति का यह संक्षिप्त परिचय केवल प्रातिनिधिक है । इससे सनातन के कार्य के बढते आलेख का परिचय आपको होगा । यह बताने का तात्पर्य इतना ही है कि परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा दी गई सीख के कारण साधकों में यह दिव्य गुण निर्माण होते गए हैं और देखते ही देखते यह दिव्य कार्य खडा हो गया ।

संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

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