समाज के उत्थान हेतु ‘साधना’ विषय पर प्रवचनों की ध्वनिफीतियों की निर्मिति के माध्यम से यज्ञ करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

श्री. दिनेश शिंदे

१. अध्यात्मप्रसार का कार्य बढाने के लिए प्रारंभ में
परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने अध्यात्म के विषय में अभ्यासवर्ग लेना

परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने सनातन संस्था के माध्यम से अध्यात्मप्रसार का कार्य आरंभ किया । इस कार्य-स्वरूप वर्ष १९९० से १९९६ की कालावधि में कुछ जनपद, तहसील तथा शहरों में प.पू. डॉक्टरजी अभ्यासवर्ग लेते थे । इन अभ्यासवर्गों का विषय होता था ‘अध्यात्म का तात्त्विक विवेचन एवं व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति ।’ इन वर्गों में स्वयं से तथा शीव गुरुकुल में रहनेवाले साधकों से हुई चूकें बताना, अपने गुरु संत भक्तराज महाराज से सीखने मिले सूत्र, अभ्यासवर्ग में आनेवाले जिन साधकों में भाव था, ऐसे साधकों की साधना का ब्योरा लेना, किसी का नामजप न होता हो अथवा अल्प होता हो, तो उसे बढाने के लिए क्या करना चाहिए ?, सेवावृत्ति एवं प्रेमभाव बढाने के लिए क्या करना चाहिए ?, ऐसे विभिन्न विषय होते थे ।

२. प्रारंभ में साहित्य उपलब्ध न होने के कारण कभी-कभार ही अभ्यासवर्ग का ध्वनिमुद्रण होना

इस कालावधि में संस्था के पास ध्वनिचित्रीकरण करने के उपकरण उपलब्ध न होने से यदि कभी कोई ध्वनिमुद्रण करे अथवा अन्य व्यवस्था हो सके, तो ही ध्वनिमुद्रण होता था । डोंबिवली में एक अभ्यासवर्ग में आनेवाले श्री. श्रीकांत पाटीलजी ने अभ्यासवर्ग का चित्रीकरण किया और आगे चलकर अपना विडियो कैमरा संस्था को अर्पण कर दिया ।

३. संत भक्तराज महाराजजी को शिष्य डॉ. आठवलेजी ने बताना कि उन्हें
अर्जुन अच्छा लगता है और वर्ष १९९६ से ‘साधना’ विषय पर छोटे-छोटे प्रवचन लेना

वर्ष १९९५ में संत भक्तराज महाराजजी (प.पू. बाबा) की अंतिम बीमारी में शिष्य डॉ. आठवलेजी ने उनकी सेवा की । उस समय एक बार वे प.पू. बाबा से बोले, ‘‘अब मुझे आपने सिखाए नाम, सत्संग की अपेक्षा अर्जुन अधिक अच्छा लगने लगा है ।’’ इस पर प.पू. बाबा ने उन्हें कहा, ‘‘भविष्य में आपको आंदोलन करने पडेंगे, वैचारिक क्रांति करनी पडेगी । इसलिए आपको अर्जुन अच्छा लगने लगा है ।’’ इस प्रसंग के पश्‍चात वर्ष १९९६ से प.पू. डॉक्टरजी ने गांव-गांव जाकर ‘साधना’ इस विषय पर छोटे-छोटे प्रवचन देकर समाज को जागृत करना आरंभ किया ।

४. प्रत्येक कृति के परिणामों का बारीकी से तथा दूरदर्शिता से विचार करनेवाले प.पू. डॉक्टर !

४ अ. सर्वत्र के प्रवचनों का चित्रीकरण कर उनका एकत्रित संकलन करने में अडचन न आए, इसलिए सभी प्रवचनों के समय एक ही कुर्ता और पैन्ट पहनना :

आगे चलकर वर्ष १९९७ से १९९९ तक के काल में प.पू. डॉक्टरजी ने महाराष्ट्र, गोवा तथा कर्नाटक इन राज्यों में १०० से भी अधिक सार्वजनिक प्रवचन दिए । इन प्रवचनों के समय प.पू. डॉक्टरजी ने एक ही कुर्ता और पैन्ट पहनी । प्रवचन होने के उपरांत कुर्ता और पैन्ट धोकर सुखाना और दूसरे दिन प्रवचन से पूर्व इस्त्री कर वही कपडे पहनना, ऐसा उनका नित्यक्रम था । इसका कारण यह था कि प्रत्येक प्रवचन के समय प.पू. डॉक्टरजी को साधना के संदर्भ में कुछ नए सूत्र सूझते । प्रसार हेतु सर्वत्र भेजने के लिए इन सभी सूत्रों को एकत्रित कर उनकी ध्वनिचित्र चक्रिका बनानी थी । प.पू. डॉक्टरजी भिन्न-भिन्न कपडे पहनते, तो अंतिम ध्वनिचित्र चक्रिका अच्छी नहीं बन पाती । इससे ध्यान में आता है कि प.पू. डॉक्टरजी प्रत्येक कृति के परिणामों का कितनी बारीकी तथा दूरदर्शिता से विचार करते हैं । कितनी यह परिपूर्ण सेवा की उत्कट इच्छा और उसके लिए समर्पित होकर सबकुछ त्यागने की वृत्ति !

४ आ. चित्रीकरण की दृष्टि से प्रवचन परिपूर्ण होने की लगन रखनेवाले प.पू. डॉक्टर !

प.पू. डॉक्टर प्रवचनों का चित्रीकरण करने की दृष्टिसे केवल कपडों के विचार पर ही नहीं रुके, अपितु उन्होंने प्रवचन के समय चित्रीकरण करनेवाले साधक को कुछ संकेत बताकर रखे थे, जैसे कि बोलते समय ध्वनिवर्धक (माईक) होठों के समीप होने पर मुख का आधा भाग ढंक जाता है । यह चित्रीकरण में अच्छा नहीं दिखता । तब साधक हाथ की मुट्ठी मुख से नीचे कर बताता । कभी प्रवचन देते समय बोलने की गति बढ जाए, तो साधक हाथ से संकेत करता, प.पू. डॉक्टरजी के कुर्ते पर सिलवटें आ गईं हो तो, चित्रीकरण करनेवाला साधक अपना कुर्ता हाथ से हिलाकर बताता, केश ठीक करने हो, तो चित्रीकरण करनेवाला साधक अपने केश पर हाथ फेरता । ऐसे कई प्रकार के संकेत प्रवचन के समय प.पू. डॉक्टरजी और चित्रीकरण करनेवाले साधक में होते थे; परंतु श्रोताआें को इसकी भनक तक नहीं लगती थी । वैसे सार्वजनिक प्रवचनों के समय प.पू. डॉक्टरजी एक लयमें ही बोलते थे ।

४ इ. व्यासपीठ पर अत्यधिक गर्मी में भी निरंतर २ घंटे प्रवचन देना

इन सार्वजनिक प्रवचनों में चित्रीकरण के लिए व्यासपीठ पर एक हजार वॉट के (१-१ केवी के) ८-१० हैलोजन लगाए जाते थे । चित्रीकरण की ध्वनि स्पष्ट हो (पंखे की ध्वनि सुनाई न दे), इसलिए पंखा भी बंद रहता था । हैलोजन के कारण व्यासपीठ पर अत्यधिक गर्मी भी होती थी । हैलोजन का तेज प्रकाश तथा गर्मी के कारण प.पू. डॉक्टरजी पसीने से लथपथ हो जाते थे । ऐसे में प्रवचन बीच में ही रोककर वे मुख पोंछ लेते तथा पानी पी कर पुनः आगे का प्रवचन आरंभ करते । इस प्रकार २ घंटे बैठकर प.पू. डॉक्टरजी प्रवचन देते थे । इन प्रवचनों के चित्रीकरण का संकलन करते समय एक महत्त्वपूर्ण सूत्र ध्यान में आया कि ऊपर बताए अनुसार प.पू. डॉक्टरजी की लगन के कारण भिन्न-भिन्न स्थानों पर हुए प्रवचनों का चित्रीकरण जोडने पर भी देखनेवाले को लगता था कि एक ही प्रवचन का चित्रीकरण देख रहे हैं !

४ ई. संकलन की सेवा से श्रद्धा बढाकर परिपूर्ण सेवा का आनंद देनेवाले प.पू. डॉक्टर !

आगे चलकर ध्वनिचित्रीकरण की सेवा में प.पू. डॉक्टरजी के प्रवचनों का ध्वनिमुद्रण तथा उसका संकलन होने लगा । ध्वनिमुद्रित ध्वनिफीति का कैसेट रेकार्डर पर संकलन करते समय कई बार प.पू. डॉक्टर किसी वाक्य से शब्द हटाने के लिए कहते । बुद्धि से विचार कर मैं उन्हें बताता कि ऐसा करना संभव नहीं होगा । उस पर प.पू. डॉक्टरजी प्रयत्न करने के लिए कहते । तब वह एक ही शब्द हटाने के लिए ध्वनिफीति सैंकडों बार आगे-पीछे घुमानी पडती । अंत में वह शब्द संकलन में से हटाया जाता था । यह करने के लिए ३-४ घंटे लगते ही थे; परंतु उतना समय सेवा से एकरूप हो जाता था और स्वयं का भान नहीं रहता था । उस शब्द को हटाने के लिए अथक प्रयास होते थे । शब्द हटाने पर सेवा परिपूर्ण होने का आनंद मिलता था और बुद्धि से विचार करनेवाले मेरे जैसे जीव की प.पू. डॉक्टरजी के प्रति श्रद्धा और भी बढती थी ।

४ उ. मन पर नियंत्रण कैसे रखना है और परिश्रम में कृति कर बचत कैसे करनी है, यह प्रत्यक्ष कृति से सिखाना

प. पू. डॉक्टरजी के प्रवचन मराठी, हिन्दी तथा १-२ स्थानों पर अंग्रेजी भाषा में हुए थे । अन्य भाषिक लोगों के लिए अंग्रेजी भाषा में भी ध्वनिफीति बनाने के उद्देश्य से इस विषय का ध्वनिमुद्रण करना निश्‍चित हुआ । यह ध्वनिमुद्रण प.पू. डॉक्टरजी के चिकित्सालय के एक कक्ष में करना था । आने-जानेवालों की तथा मार्ग पर चलनेवाले वाहनों की ध्वनि के कारण दिन में ध्वनिमुद्रण करने में कठिनाइयां आती थी । इस कारण ध्वनिमुद्रण रात्रि ११ बजे के पश्‍चात करना पडता था । तब भी बीच-बीच में अनेक ध्वनियों के कारण रुकना पडता था । इस प्रकार लगभग २-३ घंटे ध्वनिमुद्रण होता था । ध्वनिमुद्रण में पंखे की ध्वनि न आए, इसलिए पंखे बंद रखने के कारण प.पू. डॉक्टरजी पसीने से भीग जाते थे । ऐसी स्थिति में वे ध्वनिमुद्रण पूरा करते थे । इतने पर ही वे न रुकते, ध्वनिमुद्रण में अपेक्षित साध्य परिणाम की स्वयं जांच करते थे । चिकित्सालय के एक कक्ष में वातानुकूलित यंत्र था । यह सेवा उस कक्ष में करने के लिए पूछने पर उन्होंने मना किया और बताया कि जहां दो जन अच्छे से बैठ पाते हैं, ऐसे ४x८ फुट के छोटे से कक्ष में हम यह सेवा करेंगे । इस प्रसंग से उन्होंने मन पर कैसे नियंत्रण रखना है, यह सिखाया । कुछ परिश्रम कर जहां काम हो सकता है, वहां अधिक व्यय करने की अपेक्षा बचत कैसे करनी चाहिए, इसका उच्च आदर्श भी हमारे समक्ष रखा । साथ ही ‘अध्यात्म तो प्रवाह के विरुद्ध तैरने का/ शास्त्र है । जिस प्रकार वह सरल नहीं है, उसी प्रकार कठिन भी नहीं है’, यह भी सिखाया । आज भी आश्रम में उनके कक्ष में लगा हुआ वातानुकूलित यंत्र चलाने के लिए पूछने पर वे मना करते हैं ।

५. अपनी ध्वनिफीतियों का विषय ‘मनोरंजन हेतु नहीं, प्रबोधन के लिए है’, यह बतानेवाले प.पू. डॉक्टर !

कुछ प्रवचनों का ध्वनिमुद्रण तांत्रिक अडचनों के कारण अच्छा नहीं हो पाया; परंतु उनमें साधना के संदर्भ में कुछ अच्छे सूत्र थे । इसलिए उन सूत्रों को बिक्री के लिए बनाई गई ध्वनिफीतियों में अंतर्भूत किया गया । इस कारण ध्वनिफीतियों की ध्वनि में कई स्थानों पर उतार-चढाव थे । आगे चलकर ध्वनि में उतार-चढावों के कारण ‘यह ध्वनिफीति खराब है’, ऐसा मानकर प्रसार के कई साधकों से शिकायतें आने लगी । ‘क्या करें ?’ ऐसा प्रश्‍न उत्पन्न हुआ । इस पर प.पू. डॉक्टरजी बोले, ‘‘हमारी ध्वनिफीतियां ‘साधना कैसे और कौनसी करनी है’, इस विषय में मार्गदर्शन करने के लिए; अर्थात प्रबोधन हेतु हैं, मनोरंजन अथवा अच्छा ध्वनिमुद्रण चाहिए, उनके लिए नहीं । जिन्हें नहीं चाहिए, उनके पैसे लौटा दीजिए । जो खरे साधक एवं जिज्ञासु हैं, वे ही ध्वनिफीतियां लेंगे । लोगों को इन प्रवचनों के विषय का आंकलन १० वर्ष उपरांत होगा ।’’ इस प्रकार समाज के उत्थान हेतु प.पू. डॉक्टरजी ने प्रवचनों का यज्ञ ही किया है, ऐसा प्रतीत होता है ।’

– श्री. दिनेश शिंदे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१३.५.२०१६)

संदर्भ – सनातन प्रभात

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