परात्पर गुरु डॉ. आठवले इनका सूक्ष्म ज्ञान-सम्बन्धी कार्य

१ अ. सूक्ष्म ज्ञान और उससे सम्बन्धित संज्ञाएं

जो स्थूल पंचज्ञानेन्द्रिय, मन एवं बुद्धि के परे है, वह सूक्ष्म है । तथा पंचज्ञानेन्द्रिय, मन एवं बुद्धि के उपयोगके बिना प्राप्त ज्ञान सूक्ष्म ज्ञान है ।

श्रीमद्भागवत (स्कन्ध ५, अध्याय २६, सूत्र ३८) में लिखा है, भगवानका उपनिषदोंमें वर्णित निर्गुण स्वरूप मन और बुद्धि के परे है । ऐसा होते हुए भी, जो उनके स्थूल रूपके वर्णनका वाचन करता है, सुनता अथवा सुनाता है, उसकी बुद्धि, श्रद्धा और भक्ति के कारण शुद्ध होती है और उसे भगवानके सूक्ष्म रूपका भी ज्ञान होता है अथवा अनुभूति होती है । तात्पर्य यह है कि साधना करनेवालोंकी श्रद्धा और भक्ति वृद्धिंगत होती है; जिससे उन्हें भगवानके सूक्ष्म रूपका ज्ञान अथवा सूक्ष्मसे सम्बन्धित अनुभूतियां होती हैं ।

१ आ. सूक्ष्मरूपको समझनेकी क्षमताका विकास करनेकी प्रक्रिया खोज निकालना !

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी वर्ष १९८२ से सूक्ष्म ज्ञानसम्बन्धी अध्ययन कर रहे हैं । उन्हें १५.७.१९८२ से, अर्थात साधना आरम्भ करनेके पहलेसे ही सूक्ष्मज्ञान अवगत होने लगा । आरम्भिक वर्षोंमें उन्हें किसी प्रसंग अथवा प्रक्रियाके सन्दर्भमें उत्तर सूक्ष्मरूपसे हां अथवा नहीं के रूपमें मिलता था । साधनामें आनेके पश्‍चात, उन्हें इन उत्तरोंका कार्यकारणभाव भी अवगत होने लगा । उन्होंने ऐसे साधकोंको, सूक्ष्म-सम्बन्धी ज्ञान ग्रहण करना, सूक्ष्म ज्ञानका परीक्षण करना, सूक्ष्मचित्र बनाना आदि सिखाया, जिनकी सूक्ष्मज्ञानेन्द्रियां पहलेसे ही जागृत थीं । इसलिए आज सनातनके अनेक साधकोंको सूक्ष्म स्तरीय ज्ञान मिल रहा है ।

परात्पर गुरु डॉक्टरजीने साधकोंकी सूूक्ष्मगत बातें समझनेकी क्षमता किस प्रकार विकसित की, उसकी जानकारी आगे दी है ।

१ अा १. प्रत्यक्ष वस्तु देखनेपर क्या लगता है, इसका अध्ययन करना !

अध्यात्म अनुभूतिका शास्त्र है । वर्ष १९९१ में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी अध्यात्म विषयपर अभ्यासवर्ग लेते थे । उसमें वे साधकोंसे कुछ प्रयोग करवाते थे; उदा. वे, बाएं सूंडके गणपति और दाएं सूंडके गणपति, दो वस्तुएं, दो साधक आदि दिखाकर अभ्यासवर्गके साधकोंसे पूछते, इनकी ओर देखनेपर आपको क्या लगता है ? पश्‍चात उसका विश्‍लेषण करते थे । इन प्रयोगोंमें एक समय एक चित्र, एक वस्तु अथवा एक व्यक्ति की ओर देखना होता है । ऐसा कर वे प्राथमिक अवस्थाके साधकोंकी सूक्ष्म आयामको समझनेकी क्षमताका अध्ययन करते थे ।

१ अा २. कागदमें (कागजमें) लिपटी वस्तुआेंकी
ओर देखने तथा हाथमें लेनेपर सूक्ष्मसे क्या अनुभव होता है, इसका अध्ययन करना !

अध्यात्मशास्त्रके अभ्यासवर्गमें आनेवाले साधकोंकी जैसे-जैसे प्रगति होने लगी, वैसे ही परात्पर गुरु डॉक्टरजी दो वस्तुएं अलग-अलग कागदमें लपेटकर साधकोंको दिखाते और उनसे पूछते कि, इनकी ओर देखनेपर क्या लगता है ? तत्पश्‍चात पूछते, कागदमें लिपटी इन वस्तुआेंको हाथमें लेनेपर क्या लगता है ? उत्तर मिलनेके पश्‍चात, वे कागद हटाकर वस्तुएं दिखाते थे । वस्तु हाथमें लेकर उसके सूक्ष्म स्पन्दन जाननेकी अपेक्षा उसकी ओर केवल देखकर उसके स्पन्दन समझ पाना, अधिक सूक्ष्म है । अध्यात्म मन और बुद्धि से समझनेका विषय नहीं है, यह बात समझानेके लिए वे इस प्रकारके सूक्ष्म-ज्ञान सम्बन्धी प्रयोग करवाते थे । इन प्रयोगोंके माध्यमसे वे, मन और बुद्धि का उपयोग किए बिना, सूक्ष्म आयामको समझना सिखाते थे । उसका शास्त्र भी समझाते थे । वे कहते थे, जब हम मन और बुद्धि का उपयोग नहीं करते, तब हमें विश्‍वमन एवं विश्‍वबुद्धि से ज्ञान मिलता है ।

१ अा ३. विविध प्रसंगोंमें सूक्ष्मसे क्या अनुभव होता है, इसका परीक्षण करना !

जो साधक सूक्ष्म आयाम को समझनेकी अपनी क्षमताका विकास करना चाहते थे, उन्हें परात्पर गुरु डॉक्टरजी धार्मिक कृत्य, आध्यात्मिक उपचार, आचारधर्मका पालन आदि विविध विषयोंका सूक्ष्म परीक्षण करनेके लिए बताने लगे । इस प्रकार, उन्होंने साधकोंकी सूक्ष्म आयामको समझनेकी क्षमता बढाई ।

१ अा ४. कालके परे (भूतकाल और भविष्यकाल)की घटनाआेंका सूक्ष्म परीक्षण करना !

साधकोंकी साधनामें जैसे-जैसे प्रगति होती गई, वैसे-वैसे परात्पर गुरु डॉक्टरजीकी कृपासे साधकोंको कालके परे होनेवाली घटनाआेंका ज्ञान होने लगा ।
– श्री. विवेक पेंडसे एवं श्री. प्रकाश जोशी, फोंडा, गोवा. (१९.४.२०१६)

 

१ इ. साधकोंको अपौरुषेय सूक्ष्म-ज्ञान प्राप्त करना सिखाना !

वेदोंका ज्ञान अपौरुषेय है अर्थात ऋषि-मुनियों द्वारा रचित न होकर ईश्‍वरीय है । इसलिए ऋषि-मुनियों को वेदोंका रचनाकार नहीं, द्रष्टा कहा गया है ।) वर्ष १९८४ से मुझे अनेक आध्यात्मिक प्रश्‍नोंके उत्तर ध्यानावस्थामें मिलने लगे । सूक्ष्मसे मिलनेवाला यह ज्ञान अपौरुषेय था; क्योंकि वह पृथ्वीपर उपलब्ध किसी ग्रन्थमें नहीं है । तबसे मैं जो लिख रहा हूं, उनमें केवल बुद्धिसे समझा हुआ ज्ञान नहीं, अपितु सूक्ष्म माध्यमसे मिला ज्ञान भी है । २०.३.१९८७ को प्रकाशित अध्यात्मशास्त्र नामक पहले चक्रमुद्रांकित (साइक्लोस्टाइल) ग्रन्थमें भी इस प्रकारका विपुल ज्ञान है । वर्ष २००३ से सनातनके कुछ ज्ञानप्राप्तकर्ता साधकोंको भी ऐसा सूक्ष्म-स्तरीय ज्ञान मिल रहा है, जो पृथ्वीपर कहीं उपलब्ध नहीं है । – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

१ इ १. साधकोंको उनके योगमार्गानुसार विश्‍वमन एवं विश्‍वबुद्धि से उत्तर, अर्थात सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करना सिखाना !

वेदोंमें वर्णित सर्व पदार्थोंका ज्ञान विश्‍वमन और विश्‍वबुद्धि में निहित है । इसलिए उसे ईश्‍वरीय ज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान ध्यानयोगी साधक ध्यानमें, ज्ञानयोगी साधककी प्रतिभा जागृत होनेपर, भक्तियोगी साधक ईश्‍वरसे और किसी भी मार्गसे आध्यात्मिक उन्नतिप्राप्त साधक विश्‍वमन तथा विश्‍वबुद्धि से एकरूप होनेके कारण अर्जित कर सकता है । परात्पर गुरु डॉक्टरजीने साधकोंको अपनी-अपनी साधनाके योगमार्गानुसार विश्‍वमन व विश्‍वबुद्धि से उत्तर अर्थात सूक्ष्म-स्तरीय ज्ञान प्राप्त करना सिखाया – श्री. चेतन राजहंस, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१३.४.२०१७)

१ इ २. ज्ञानप्राप्तिके लिए जिज्ञासा आवश्यक है, ऐसा बताना !

ज्ञान अनन्त है । इसलिए हममें जिज्ञासा होगी तभी, ज्ञानके विविध आयाम खुलेंगे । जिज्ञासा न होगी, सीखनेका स्वभाव नहीं होगा, तब ज्ञान मिलना रुक जाएगा । परम पूज्य भक्तराज महाराजने परात्पर गुरु डॉक्टरजीको सिखाया था, जिज्ञासु ही ज्ञानका खरा अधिकारी है । यह सीख परात्पर गुरु डॉक्टरजीने साधकोंके मनपर अंकित की । वे स्वयं उच्चतम आध्यात्मिक स्तरपर हैं; तब भी, अपनी जिज्ञासाके कारण साधकोंसे ज्ञान प्राप्त करते हैं । अब इस ज्ञानपर आधारित सनातनके सैकडों ग्रन्थ प्रकाशित हो रहे हैं । – (पूज्य) डॉ. मुकुल गाडगीळ, महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय, गोवा. (१३.४.२०१७)

१ इ ३. साधकोंको प्राप्त सूक्ष्म-ज्ञानकी सत्यता जांचना !

कुछ ज्ञानप्राप्तकर्ता साधकोंको होनेवाले अनिष्ट शक्तियोंके कष्ट तथा उनके आध्यात्मिक स्तरके परिणामस्वरूप उनकी विश्‍वमन और विश्‍वबुद्धि से एकरूपता स्थिर नहीं रहती, घटती-बढती रहती है । इसी प्रकार, अनिष्ट शक्तियां कभी-कभी असत्य ज्ञान भी देती हैं । इसलिए साधकोंको मिले आध्यात्मिक ज्ञानकी सत्यता जांचनी पडती है । – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (१५.३.२०१७)

१ इ ४. ज्ञानमें सत्यका अंश अधिकाधिक आनेके लिए अहं घटानेका महत्त्व समझाना !

साधकमें जब अहं अधिक होगा, तब वह विश्‍वमन और विश्‍वबुद्धि से एकरूप नहीं हो पाएगा । इससे ज्ञानप्राप्तिमें बाधाएं आती हैं । इसी प्रकार, अहं अधिक होनेपर अनिष्ट शक्तियां ज्ञानप्राप्तकर्ता साधकपर आक्रमण कर, उसे कष्ट पहुंचा सकती हैं और कर उसे मिलनेवाले ज्ञानमें हस्तक्षेप कर असत्य ज्ञान भी देती हैं । अतः साधकमें मैं-पन का बोध जितना अल्प तथा कृतज्ञताभाव और शरणागतभाव जितना अधिक होगा, मिलनेवाले ज्ञानमें सत्यता उतनी अधिक होगी, यह बात परात्पर गुरु डॉक्टरजीने समझाई तथा उसके अनुसार उन्होंने साधकोंसे अहं अल्प भी करवा लिया । – (पूज्य) डॉ. मुकुल गाडगीळ, महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय, गोवा. (१३.४.२०१७)

१ इ ५. ज्ञानप्राप्तकर्ता साधक

वर्ष २००३ से सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ और श्री. राम होनप को तथा वर्ष २००५ से पूज्य डॉ. चारुदत्त पिंगळे, कुमारी मधुरा भोसले और श्री. निषाद देशमुख इन साधकोंको ज्ञान मिल रहा है । इसके अतिरिक्त १५-२० अन्य साधकोंको भी ज्ञान मिलता है । इन सभीको प्राप्त ज्ञानको सनातनके ग्रन्थोंमें संकलित किया गया है ।

 

१ र्इ. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजीका साधकोंको सूक्ष्म ज्ञान-सम्बन्धी चित्र बनाना सिखाना !

प्राणी, पशु, पक्षी, मनुष्य और देवता, इन सबकी अपनी-अपनी भाषा होती है । उसी प्रकार, कलामें आकृतियोंकी भाषा होती है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजीने ऐसे कुछ चित्रकार-साधकोंको जिनकी सूक्ष्म-दर्शनेन्द्रिय जागृत थीं, अध्यात्मशास्त्रानुसार वास्तविक आकृतिकी भाषा सिखाई । ९० प्रतिशतसे अधिक आध्यात्मिक स्तरके उन्नत पुरुषोंकी सूक्ष्म दर्शनेन्द्रियकी क्षमता अच्छी होगी और वे चाहेंगे तभी वह भाषा वे समझ सकेंगे; परन्तु सनातनके लगभग ५० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तरके चित्रकार-साधक भी सूक्ष्म-चित्र बनाना जानते हैं । परात्पर गुरु डॉक्टरजीने चित्रकार-साधकोंको समय-समय पर मार्गदर्शन कर, कला और आध्यात्मिक क्षेत्रको सूक्ष्म जगतसे परिचित करवाया । चित्रकार-साधकोंने कुछ सूक्ष्मचित्र व्यक्ति अथवा वस्तु को देखकर, कुछ छायाचित्र अथवा दृश्य-श्रव्य चक्रिकाएं (वीडियो) देखकर, तो कुछ बिना देखे ही बनाए हैं । परात्पर गुरु डॉक्टरजीने सूक्ष्म-चित्रके साथ ही चित्रकार-साधकोंकी भी उन्नति करवा ली । चित्रका सम्बन्ध तेजतत्त्व (प्रकाश) से तथा ज्ञानका सम्बन्ध आकाशतत्त्वसे होता है । किसी विषयको सहजतासे समझानेके लिए चित्रका आधार लिया जाता है; परन्तु प्रत्येक बातका चित्र नहीं बनाया जा सकता । इसलिए उसे समझानेके लिए सूक्ष्म ज्ञानकी आवश्यकता पडती है । परात्पर गुरु डॉक्टरजीने सूक्ष्म-चित्र से सूक्ष्म-ज्ञान तक की यात्रा सूक्ष्म-ज्ञान सम्बन्धी चित्र बनानेवाले साधकोंको सिखाई । – कुमारी प्रियांका लोटलीकर, महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय, गोवा.

 

१ उ. सूक्ष्म ज्ञानसे व्यक्तिका आध्यात्मिक स्तर
प्रतिशतमें बतानेवाले एकमेवाद्वितीय परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

साधनाका उच्च और कनिष्ठ स्तर मापनेके लिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी, निर्जीव वस्तुका आध्यात्मिक स्तर ० प्रतिशत और ईश्‍वरका आध्यात्मिक स्तर १०० प्रतिशत इस परिमाणका उपयोग करते हैं । इस मापदण्डसे लोगोंका आध्यात्मिक स्तर समझना और उन्हें बताना सरल होता है । अध्यात्ममें इस प्रकारका मानकीकरण करनेमें निपुण, परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी विश्‍वके पहले व्यक्ति हैं ।

सन्दर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजीके सर्वांगीण कार्यका संक्षिप्त परिचय’

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