आध्यात्मिक उपचारोंकी अभिनव पद्धतियों के जनक !

देवताकी सात्त्विक नामजप-पट्टीसे उस देवताकी शक्ति प्रक्षेपित होती है । इस शक्तिसे आध्यात्मिक उपचार होते हैं ।

सनातन पंचांग, संस्कार-बही और सनातन के सात्त्विक उत्पाद

समाज को धर्मशिक्षा मिले, समाज साधना करे, समाज में धर्म और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के विषय में जागृति हो आदि उद्देश्य सामने रखकर परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने वर्ष २००६ से वार्षिक सनातन पंचांग प्रकाशित करना आरम्भ किया । वर्ष २००६ से संस्कार-बही का उत्पादन आरम्भ हुआ है ।

धर्मशिक्षा देनेवाली और साधना-सम्बन्धी मार्गदर्शन करनेवाली श्रव्य चक्रिकाआें (ऑडिओ सीडी), दृश्य-श्रव्य चक्रिकाआें (वीसीडी) का निर्माण

परात्पर गुुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में साधना, अध्यात्म-सम्बन्धी शंकासमाधान, देवताआें के नामजप की उचित पद्धति और उपासनाशास्त्र (३ भाग), आरती, क्षात्रगीत आदि विषयोंपर श्रव्य-चक्रिकाआें का निर्माण किया गया है ।

ग्रन्थ-निर्मिति का कार्य

अप्रैल २०१७ तक सनातन के २९९ ग्रन्थ-लघुग्रन्थों की १५ भाषाआें में ६८ लाख ५१ सहस्र से अधिक प्रतियां प्रकाशित हो चुकी हैं । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा संकलित ग्रन्थों की कुछ अद्वितीय विशेषताएं देखते है ।

साधकोंकी आध्यात्मिक उन्नतिकी दृष्टिसे किया गया कार्य

शीघ्र गुरुप्राप्ति हो और गुरुकृपा निरन्तर होती रहे इसलिए परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने गुरुकृपायोग नामक सरल साधनामार्ग बताया है । साधकों की साधना की ओर व्यक्तिगत ध्यान देने हेतु व्यष्टि साधना और समष्टि साधना का ब्यौरा देने की पद्धति निर्माण की । साधना की दृष्टि से १४ विद्या एवं ६४ कलाआें की शिक्षा का बीजारोपण किया ।

श्रीविष्णु के अष्टावतारों में से प्रत्येक अवतार द्वारा किए कार्य की भांति परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा किए जा रहे अवतारी कार्य का साधिका द्वारा किया यथार्थ वर्णन !

कलियुग के अंतकालतक अधिकांश जीवों की देह रोगादि के कारण जर्जर हो जाएगी; उस समय गुरुदेवजी का उदाहरण उनके सामने रखने के लिए श्रीविष्णु ने प्रौढावस्था की लीला की है ।

अहर्निश सेवारत परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के सत्संग में श्री. रमेश शिंदे द्वारा अनुभव किया गया उनका प्रेम, सीख एवं द्रष्टापन !

प.पू. डॉक्टरजी का (प्रोस्टेट का) शस्त्रकर्म हुआ था । उस समय चिकित्सालय में भी वे ग्रंथ के लेखन संबंधी कागज पढने हेतु मंगवा लेते थे । वहां पर भी वे समय व्यर्थ नहीं गंवाते थे ।

स्वयं के कृत्य से ही ‘साधक आचरण कैसे करें ?’, इसका आदर्श सभी के समक्ष रखनेवाले प.पू. डॉक्टरजी !

किसी भी प्रकार की अर्थप्राप्ति न होते हुए भी अपना धन भी धर्मकार्य हेतु देकर त्याग करना, किसी भी प्रकार के आडंबर के बिना ‘प्रत्येक बात सादगी से तथा साधना स्वरूप करना, मान-सम्मान की अपेक्षा न रखनेवाले, कर्तापन ईश्‍वर को देकर निष्काम भावना से कार्य करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवले !

जातिभेद का विषैला कलंक पोंछकर साधनारूपी अमृत देनेवाले प.पू. डॉक्टरजी के चरणों में साधक द्वारा व्यक्त की गई कृतज्ञता !

मेरा जन्म पिछडे वर्ग के वीरशैव ढोर कक्कया जाति में हुआ है । इस जाति के लोगों का मुख्य व्यवसाय जानवरों की चमडी उतारना है ।

नृत्य करने का मूल उद्देश्य साध्य करने के लिए ‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए नृत्यकला’ यह दृष्टिकोण सबके सामने प्रस्तुत करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

हमारी संस्कृति में नृत्यकला का प्रादुर्भाव मंदिरों में ही हुआ है । इसका विकास एक उपासना माध्यम के रूप में हुआ । इसके माध्यम से भी ईश्‍वरप्राप्ति हो, इसके लिए सनातन की साधिका श्रीमती सावित्री इचलकरंजीकर और डॉ. (कुमारी) आरती तिवारी ने नृत्य आरंभ किया है ।