जीवन तथा साधना की भी हानि करनेवाले भय को मिटाने के लिए श्रीमती श्‍वेता क्लार्क के प्रयत्न और उन्हें श्रीकृष्ण से मिली सहायता

मुझमें अनेक प्रकार के अहं, जैसे – भय लगना, हीनता-ग्रंथि और क्रोध करना प्रबल हैं । मेरी स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया के अंतर्गत जनवरी २०१५ में स्पिरिचुुअल साइन्स रिसर्च फाउण्डेशन (एस.एस.आर.एफ.) की ओर से आयोजित कार्यशाला में पूज्य लोलाजी, पूज्य सिरियाक, कुमारी एना ल्यु और श्री मिलुटीन से मिले मार्गदर्शन के कारण मैं भय लगने के मूल तक पहुंची और उसकी व्याप्ति ढूंढकर बही में लिख सकी । मैं पिछले एक वर्ष से अपना यह दोष दूर करने का प्रयत्न कर रही हूं । श्रीकृष्ण की सहायता मिलने से यह और भी अच्छे ढंग से कर पा रही हूं । – श्रीमती श्‍वेता क्लार्क

 

१. भय के कारण जीवन के अनेक प्रसंग
प्रभावित होना और साधना में पिछड रही हूं, ऐसा लगना

मुझपर भय का बहुत प्रभाव था । इसके कारण मैं बहुत दुर्बल होती जा रही थी । मेरे जीवन की प्रत्येक घटना पर भय का प्रभाव रहता था । मुझसे कोई प्रेम नहीं करता, साधना में मैं पिछड जाऊंगी अथवा मैं कितना भी प्रयत्न करूं, अच्छी साधना नहीं कर सकती, ऐसे विचार मन में आते थे । पहले मुझे लगता था कि मन में ऐसे विचार आना साधारण बात है; पर इन विचारों से मेरे जीवन पर बुरा प्रभाव पडता था और अब साधना में भी पिछड रही थी ।

 

२. पति के विषय में दूसरी बार हुई अपनी चूक के लिए उनसे क्षमा मांगना,
पश्‍चात मन में अपने विषय में आनेवाले अनावश्यक विचारों के कारण रोना आना

दिसंबर २०१५ से जनवरी २०१६ के मध्य होनेवाली कार्यशाला का समय निकट आ रहा था । इससे मुझे उत्साह लग रहा था । मैं इस बात की बडी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही थी कि कब कार्यशाला में आनेवाले साधकों से भेंट होगी, स्वभावदोष निर्मूलन के लिए उनके प्रयत्न जानने का कब अवसर मिलेगा और मेरे मन की गहराई में बैठे भय के संस्कार को मिटाने के लिए उनसे कब मार्गदर्शन मिलेगा । कार्यशाला आरंभ होने के २ दिन पहले एक घटना घटी । मेरे पति श्री शॉन के विषय में मुझसे एक चूक हुई और उन्हींने यह चूक मेरे ध्यान में लाई । इसके पहले भी मुझसे चूक हुई थी, जिसे उन्होंने मुझे बताया था । यह चूक पुनः होने पर वे मुझपर क्रोधित हुए थे । मैंने उनसे तुरंत क्षमा मांगी थी । परंतु, थोडे समय पश्‍चात मेरे मन में विचारों का संघर्ष बहुत बढ गया । मैं रोने लगी । ऐसा लग रहा था कि मैं कितना भी प्रयत्न करूं, सफल नहीं हो सकती । मैं किसी के लिए भी महत्त्वपूर्ण नहीं हूं । एक निश्‍चित सीमा तक ही लोग मुझसे प्रेम करेंगे; परंतु मैं महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हूं, ऐसा किसी को नहीं लगेगा । इन नकारात्मक विचारों से मैं ग्रस्त थी ।

 

३. मनमें आनेवाले विचारों से भय लगने के कारण,
मुझसे कोई प्रेम नहीं करता, यह बात सत्य लगना और चूक होने पर,
बचपन में परिवार की ओर से हुई उपेक्षा के प्रसंग का स्मरण होने से रो पडना

इसके पहले भी मेरे मन में जब ऐसे विचार आते थे, तब बहुत भय लगता था और यह सत्य भी लगता था । इसलिए, मेरे विचार स्पष्ट नहीं होते थे । भय से संबंधित कोई चूक अथवा घटना होने पर मुझे बचपन की घटनाएं स्मरण होती थीं । इसका बुरा प्रभाव मेरी सेवा और साधना पर होता था ।

 

४. भय से दुखी होकर नकारात्मक स्थिति में जाते समय
लगना कि यह अहंकार के कारण हो रहा है तथा लोग मुझे
बहुत प्रेम करते हैं, इस बात का बोध श्रीकृष्ण की कृपा से होना और
भय से निकालकर मुझे अपने चरणों के पास रखें, यह श्रीकृष्ण से प्रार्थना होना

परंतु इस समय श्रीकृष्ण ने सब परिवर्तित कर दिया । श्री शॉन ने जब मेरी चूक बताई और मुझ पर क्रोध किया, तब मुझे भीतर से अकेलापन अनुभव होने लगा । मैं नकारात्मक स्थिति में जाने लगी । तभी श्रीकृष्ण से आर्तभाव से प्रार्थना हुई । मैं असहाय होकर उनसे विनती करने लगी, हे श्रीकृष्ण, मुझसे कोई प्रेम नहीं करता, ऐसे अनेक विचार मन में आते हैं । यह असत्य है । मेरा अहंकार मुझसे चूक करवा रहा है । हे दयाघन, विचारों की यह शृंखला टूट जाए । हे श्रीकृष्ण, सब साधक मुझसे प्रेम करते हैं, मुझे बोध हो । श्री शॉन मेरे सहसाधक हैं । वे मेरा बहुत ध्यान रखते हैं । उन्होंने आजतक मुझे साधना में जो सहायता की है, उसके लिए मैं उनके प्रति बहुत कृतज्ञ हूं । आश्रम के सब साधक मुझसे बहुत प्रेम करते हैं । हे दयासागर, मुझे इस भयरूपी पिंजरे से निकालिए । मैं दुःख से ऊब गई हूं । मुझे शीघ्रातिशीघ्र उत्तम साधिका बनकर आपके चरणों में विश्राम लेना है । परंतु, इस भय से मैं विचलित हो जाती हूं । मैं असहाय हूं, मेरी सहायता कीजिए । इस स्थिति से निकलने के लिए मुझे बल दीजिए !

 

५. भय का प्रकटीकरण किस प्रकार
होता है, यह श्रीकृष्ण के समझाने पर तनाव दूर होना

उस समय श्रीकृष्ण ने मुझे समझाया कि मेरे भय का प्रकटीकरण किस प्रकार होता है । श्रीकृष्ण ने कहा, ‘तुम अपने विषय में सोचती हो कि सब लोग मुझसे एक सीमा तक ही प्रेम करते हैं । मेरे लिए प्रत्येक के जीवन में द्वितीय स्थान है । लोग मुझे महत्त्व दें, इसके लिए आवश्यक गुण भी मुझमें नहीं हैं । भगवान मुझे अपने पास रखें, इतना भी भाव मुझमें नहीं है । अन्य साधकों में अधिक भाव और समष्टि गुण है, इसलिए वे भगवान को अधिक प्रिय हैं । सबलोग मेरी उपेक्षा करते हैं ।’ तुम्हारे ये विचार पूर्णतः अनुचित हैं ।

यह बोध होते ही, मेरा तनाव ५० प्रतिशत घट गया । ऐसा लगा कि मेरे सिरपर से बडा बोझ उतर गया है । मैंने श्रीकृष्ण के दोनों चरणों को कसकर पकड लिया । श्रीकृष्ण जब यह बता रहे थे, तब मुझे रोना आ रहा था ।

 

६. मन भय का संस्कार बढा रहा है, यह बात श्रीकृष्ण द्वारा स्पष्ट करना

श्रीकृष्ण ने आगे कहा, अहंभाव के कारण तुम रो रही हो, इसे रोक दो; नहीं तो इससे नया कर्म उत्पन्न होगा । अपना धैर्य और मनोबल बढाने के लिए मुझसे प्रार्थना करो । तुम्हारी अबतक की अधिकतर चूकें, घटित प्रसंग और उससे निकाले गए निष्कर्ष तथा साधकों के विषय में बनी धारणा, ये सब भय पर आधारित हैं । पिछले जन्मों के अनेक संस्कारों के आधार पर मन ने एक प्रकार का भ्रमजाल बुना है । तुम यदि यह भ्रमजाल तोडने में सफल हो जाओगी, तो तुम्हारी ८० प्रतिशत समस्याएं समाप्त हो जाएंगी ।

 

७. श्रीकृष्ण के इस उपदेश से, अहं के
कारण विचार स्पष्ट नहीं हैं, यह बात ध्यान में आना

श्री शॉन ने तुझे जो चूक बताई है, वह उचित है । उसे स्वीकार कर, उसके लिए कारणीभूत दोष दूर करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए । मैं किसी को महत्त्वपूर्ण नहीं लगती, यह विचार तुम्हारे मन में नहीं आना चाहिए । उसका इस घटना से कोई संबंध नहीं है । तुम्हारा मन घटना से असंबंधित विचारों से जुडकर, भय का संस्कार गहरा कर रहा है । श्रीकृष्ण की उपर्युक्त बातों से समझ में आया कि अहं के कारण बात बिगड जाती है, स्पष्टता कहीं नहीं रहती । इसके विपरीत, जब हम सोचते हैं कि भगवान ही सब करते हैं, तब सबकुछ स्पष्ट और सरल हो जाता है ।

 

८. मनपर विश्‍वास करना छोडने पर, श्रीकृष्ण
द्वारा चैतन्य देने से पिछले अनेक जन्मों में मन पर अंकित
भय के संस्कारों का मिटना और मनसे भय का बोझ धीरे-धीरे घटना

जीवन में मैंने पहली ही बार मन पर विश्‍वास करना छोडा । मुझे ऐसा लग रहा था कि मन से संस्कार मिटाने के लिए श्रीकृष्ण मेरे मन और बुद्धि में चैतन्य भर रहे हैं । कुछ ही समय में मेरा रोना थम गया । ऐसा लगा कि मन में भरा हुआ भय, धीरे-धीरे निकलता जा रहा है । मुझे उत्तम साधिका बनना है, यह विचार दृढ हो रहा है । भय से मेरा अकेलापन बढता है और ध्यान स्वयं पर केंद्रित हो जाता है । श्रीकृष्ण अपने चैतन्य से इन संस्कारों को नष्ट कर रहे थे और मन को चैतन्यमय बना रहे थे । इससे मुझे बहुत कृतज्ञता लग रही थी । इसके पश्‍चात मैंने निश्‍चय किया कि कार्यशाला के अन्य साधकों से सहायता लेकर इन संस्कारों को और घटाने का प्रयास करूंगी ।

 

९. भय के विचार से ग्रस्त साधिका कुमारी एना ल्यु ने
भय के मूल तक जाकर उसे कैसे नष्ट किया, यह कार्यशाला
में सुनकर उसके अनुसार अपने दोषे दूर करने का निश्‍चय करना

२९.१२.२०१५ को शिविर के पहले ही दिन कुमारी एना ल्यु ने बताया कि कुछ वर्ष पहले मैं यह सोचकर भयभीत होती थी कि मेरा उपयोग कर छोड दिया जाएगा और उसके पश्‍चात मैं मर जाऊंगी । परंतु, जब मैंने जीवन के प्रत्येक प्रसंग को प्रभावित करनेवाले इस भय के विषय में चिंतन कर इसके मूल तक जाने का प्रयास किया, तब भय से छुटकारा मिला । उस समय लगा कि श्रीकृष्ण एक ही समय सब साधकों को साधना की बाधाएं दिखाकर उन्हें दूर कर रहे हैं । इस बोध से उनके प्रति बहुत कृतज्ञता लगी । कुमारी एना के उदाहरण से मैं अनेक बातें सीख पाई । मैंने भी निश्‍चय किया कि भय के समय इसी प्रकार प्रयत्न कर, उस पर विजय प्राप्त करूंगी ।

हे श्रीकृष्ण, हमें साधना में सहायता करनेवाले संत और सब साधकों के रूप में यह जो साधक-समाज दिया है, उसके लिए आपके चरणों में कृतज्ञ हूं । हम अपने अहंकार दूर कर तथा मन के संस्कार मिटाकर आपके पास पहुंच सकें, इसके लिए आप हमें सतत सहायता करते रहें, यह आपसे प्रार्थना है ।

– श्रीमती श्‍वेता क्लार्क, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा

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