आरोग्यदाता भगवान श्रीधन्वंतरीदेवता जयंती

 

हमारे हिंदुधर्मकी कुछ विशेषताएं और आदर्श हैं । इसमें किसी वर्गविशेषको लक्ष करके नहीं; अपितु सर्व सजीव-निर्जीव सृष्टिकी ऐहिक एवं पारमार्थिक उन्नति हो, ऐसा अत्यंत व्यापक दृष्टिकोन है । इसमें स्थूल-जगत् के साथ-साथ सूक्ष्म- जगत् का भी अध्ययन करके हमारे मुनि तथा ईश्वरीय अवतारोंने हमारी सभ्यता-संस्कृति, व्रत-पर्व, संस्कार-त्यौहार, परंपराएं, नीति-नियम, वेश-भूषा, रहन-सहन, खान-पानसे लेकर दैनिक आचरणतकको विज्ञानाधिष्ठित बनाया है । हमारे सबसे मंगलमय तथा संपूर्ण भारतवर्षमें बडे हर्षोल्लासके साथ मनाया जानेवाला त्यौहार है, ‘दीपावली’, जो हमारे धर्मका मर्म ‘तमसो मा ज्योर्तिगमय’ अर्थात् अंधकारसे निकलकर प्रकाशकी ओर बढो, इस बातका कृतिपूर्ण पाठ है । इस मंगलपर्वका एक विशेषदिन जो शंख, चक्र, अमृत-कलश एवं औषधि लेकर कमलपर आसनस्थ श्रीधन्वंतरीदेवताके पृथ्वीपर अवतरणके उपलक्ष्यमें मनाया जाता है ।

आइए, इस पावनपर्वपर श्रीविष्णुके अंशावतार श्रीधन्वंतरीदेवताके श्रीचरणोंमें कृतज्ञताभावसे वंदन करते हुए प्रार्थना करें कि, ‘हे श्रीधन्वंतरीदेवता ! सर्व प्रकारके रोगोंसे आप ही हमारी रक्षा करें ।’ भगवान श्रीधन्वंतरीदेवताकी हमपर महान कृपा है । उनका विग्रह ही कृपामय है । न केवल सांसारिक प्राणियोंपर ही आपका अनुग्रह है; अपितु देवता भी आपके ही आश्रयसे असुरोंकी विभीषिकासे मुक्त होकर स्वस्थ, निर्भीक एवं आनंदित हो सके थे । समुद्रमंथनसे भगवान श्रीधन्वंतरीदेवता अमृत-कलश लेकर प्रकट हुए थे । प्रकट होते समय वे श्रीविष्णुका नामजप कर रहे थे । उनको श्रीनारायणके अंश तथा ‘नार’ (आप) तत्वसे प्रकट होनेसे श्रीविष्णुने ‘अब्ज’ कहकर उनका नामकरण किया और कहा कि ‘वत्स ! तुम्हारा अविर्भाव लोककल्याणके लिए हुआ है । इस समय तुम्हारे अमृतकी देवताओंको अति आवश्यकता है, इसलिए तुम स्वर्गमें प्रतिष्ठित हो जाओ ।

अगले जन्ममें काशीके एक महान धर्मात्मा राजा ‘धन्व’के पुत्ररूपमे अवतरित होकर पृथ्वीपर अति कीर्ति प्राप्त करोगे । तुम्हें सर्व सिद्धियां प्राप्त होंगी एवं उसी जन्ममें तुम्हे अपने सेवाकार्यके कारण देवत्व प्राप्त होगा । तुम महर्षि भरद्वाजजीका शिष्यत्व प्राप्तकर आयुर्वेदको आठ अंगोंमें विभाजित कर आरोग्यके अवदानसे जीवमात्रका कल्याण करोगे ।’ भगवान् श्रीविष्णुसे कृपाशीर्वाद पाकर वे स्वर्गलोक जाकर देवताओंकी सेवा करने लगे । उन्हींकी कृपासे देवी-देवता ‘अजरः’ (वृद्धावस्थासे रहित) ‘अमरः’ (मृत्युरहित) तथा ‘निरामयः’ (सर्व प्रकारके आधि-व्याधि और रोग-शोकसे मुक्त) हो गए । इस वरके अनुसार धन्व काशी नगरीके संस्थापक काशके पुत्र थे । अगले जन्ममें वे राजा धन्वके पुत्र तथा महर्षि भरद्वाजजीके शिष्यके रूपमें ‘श्रीधन्वंतरी’के नामसे प्रसिद्ध हुए ।

उन्होंने महर्षि भरद्वाजजीसे संपूर्ण आयुर्वेदशास्त्र और शल्य-चिकित्साका (सर्जरी) ज्ञान प्राप्तकर आयुर्वेदको शल्य, शालक्य आदि आठ भागोंमें वर्गीकृत किया । वैदिक परंपराके अनुसार श्रीधन्वंतरीको आयुर्वेदके जनकके रूपमें माना जाता है । उनका शल्य -चिकित्सामें विशेष योगदान होनेसे ही उनको विश्वके प्रथम शल्य चिकित्सक (सर्जन) माना जाता है । उन्हें आजकी आधुनिक ‘प्लास्टिक सर्जरी’का भी जनक माना जाता है; क्योंकि वे संज्ञाहरण द्रव्योंका प्रयोग किए बिना ही शल्यक्रिया करनेमें अत्यंत कुशल थे । वे सभी रोगोंके निवाराणमें निष्णात थे ।

श्रीधन्वंतरीकी परंपरा इस प्रकार है – काश-दीर्घतपा-धन्व-धन्वंतरी-केतुमान-भीमरथ (भीमसेन)-दिवोदास-प्रतर्दन- वत्स-अलर्वâ । यह वंश-परंपरा श्रीहरिवंश पुराणके अनुसार है; परंतु श्रीविष्णुपुराणमें यह थोडी भिन्न है – काश-काशेय-राष्ट्र-दीर्घतपा-धन्वंतरि-केतुमान-भीमरथ- दिवोदास । वैदिक कालमें जो महत्त्व और स्थान अश्विनीकुमारोंको प्राप्त था, वही पौराणिक कालमें श्रीधन्वंतरीको प्राप्त हुआ । इनके वंशमें दिवोदास हुए जिन्होंने ‘शल्य चिकित्सा’ का विश्वका पहला विद्यालय काशीमें स्थापित किया । जिसके प्रधानाचार्य ऋषि सुश्रुत को बनाया गया । आयुर्वेदिक चिकित्सक इन्हें अपना आराध्य मानते हैं ।

आज भी भगवान श्रीधन्वंतरीकी पूजा संपूर्ण भारतमें की जाती है, विशषतः दक्षिण भारतमें तमिलनाडूके श्रीरंगममें स्थित रंगास्वामी मंदिर भगवान श्रीधन्वंतरीका मंदिर है, जहां उनकी उपासना की जाती है, मंदिरके ठीक सामने १२ वीं शताब्दीका एक पत्थर है, जिसमें महान आयुर्वेदिक चिकित्सक गरुडवाहन भट्टरकी लिखावट है और वहां आज भी लोगोंको प्रसादके रूपमें जडी बूटियोंका पेय दिया जाता है । केरलमें अनेक मंदिर और विग्रह प्रतिष्ठित हैं । केरलकी अष्टवैद्य परंपराके चिकित्सक भी शताब्दियोंसे भगवान श्रीधन्वंतरीकी उपासना करते आए हैं ।

भगवान श्रीधन्वंतरीकी कृपा प्राप्तिके लिए उनके मंत्र है :

१. ॐ श्री धन्वंतरये नमः ।

२. ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतरायेः अमृतकलश हस्ताय
सर्वभय विनाशाय सर्वरोगनिवारणाय त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री
महाविष्णुस्वरूप श्री धन्वंतरी स्वरूप श्री श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नमः ।

अर्थ : परम भगवनको, जिन्हें सुदर्शन वासुदेव श्रीधन्वंतरी कहते हैं, जो अमृत- कलश लिए हैं, सर्वभय नाशक हैं, सर्वरोगोंका नाश करते हैं, तीनों लोकोंके स्वामी हैं और उनका निर्वाह करनेवाले हैं; उन श्रीविष्णु स्वरूप श्रीधन्वंतरीको नमन है । इनकी सबसे बडी विशेषता यह है कि श्रद्धा-भक्तिपूर्वक इनके स्मरणमात्रसे सब प्रकारके रोग, शोक, आधि-व्याधि दूर हो जाते हैं – ‘स्मृतमात्रार्तिनाशनः’ (श्रीमद्भा. ९।१७।४) ऐसे वे कृपालु भगवान श्रीधन्वंतरी सदा हमारी रक्षा करें ।

‘धन्वन्तरिः स भगवानवतात सदा नः ।’

संदर्भ :

हरिवंश पुराण (पर्व १ अ २९)
ब्रह्मवैवर्त पुराण (३.५१)
विष्णु पुराण
श्रीमद्भागवत
जालस्थान
कल्याण (आरोग्यांक)

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