गंगा नदी उत्तर भारत की केवल जीवनरेखा नहीं, अपितु हिन्दू धर्म का सर्वोत्तम तीर्थ है । ‘आर्य सनातन वैदिक संस्कृति’ गंगा के तट पर विकसित हुई, इसलिए गंगा भारतीय संस्कृति का मूलाधार है । इस कलियुग में श्रद्धालुओं के पाप-ताप नष्ट हों, इसलिए ईश्वर ने उन्हें इस पृथ्वी पर भेजा है । वे प्रकृति का बहता जल नहीं; अपितु सुरसरिता अर्थात देवनदी हैं । उनके प्रति हिन्दुओं की आस्था उतनी ही सर्वोच्च है जितनी की शिव पार्वती के प्रति । गंगाजी मोक्षदायिनी हैं । नारदपुराण में तो कहा गया है कि ‘अष्टांग योग, तप एवं यज्ञ, इन सबकी तुलना में गंगाजी का निवास उत्तम है । गंगाजी भारत की पवित्रता की सबसे श्रेष्ठ केंद्रबिंदु हैं, उनकी महिमा का वर्णन नहीं कर सकते । आध्यात्मिक क्षेत्र में जो स्थान गीता का है, वही स्थान धार्मिक क्षेत्र में गंगा का है ।
अब हम गंगा माता की कुछ अद्भुत विशेषताएं जानकर लेते हैं
उत्तरवाहिनी नदी
‘सभी नदियां दक्षिणवाहिनी होती हैं अर्थात दक्षिण दिशा की ओर जाती हैं । गंगा नदी एकमात्र नदी है, जो काशी में उत्तरवाहिनी होती हैं ।’
जीवनदायिनी नदी
हिमालय पर्वत की गंगोत्री से उद्गम पानेवाली गंगा नदी गंगासागर में लुप्त होती हैं । इस मार्ग में वह करोडों भारतीयों को जल की आपूर्ति करती हैं, धरती का ताप दूर करती हैं, फसलें उगाती हैं एवं श्रद्धालुओं को गंगास्नान का अवसर प्रदान करती हैं । गंगा नदी ‘जीवनदायिनी’ हैं ।
आरोग्यदायिनी नदी
सैकडों औषधीय वनस्पति गंगा परिसर में पाई जाती हैं । ये वनस्पतियां मनुष्य के प्रत्येक रोगपर उपचार हेतु उपयुक्त हैं । इसलिए गंगाजी को ‘आरोग्यदायिनी नदी’ कहते हैं ।
गंगाजी का जल प्राणवायुसंपन्न है । वर्षा ऋतु के अतिरिक्त शेष समय अन्य नदियों के जल की तुलना में गंगाजी के जल में २५ प्रतिशत अधिक प्राणवायु (ऑक्सीजन) होती है ।
गंगाजल के नित्य सेवन से क्या लाभ मिलता है उसकी महिमा सुनते हैं
१. ‘गंगाजल के नित्य सेवन से शरीर की रोगप्रतिकारक शक्ति बढती है ।
२. अपच, जीर्ण ज्वर, दमा आदि रोग भी धीरे-धीरे नष्ट होते हैं ।
३. गंगाजल में घाव भरने का सामर्थ्य है ।
४. विविध प्रकार की औषधियों से प्रभावित न होनेवाले रोगी की स्थिति शुद्ध गंगाजल के प्राशन से अच्छी होती है ।
गंगा जलप्रदूषणनाशिनी है तथा उसमें कीटाणुनाशक क्षमता है । कॉलरा की (हैजा – एक महामारी) की भांति प्लेग आदि रोगों के कीटाणु भी गंगाजल में जीवित नहीं रह सकते । गंगाजी की कीटाणुनाशक क्षमता के विषय में वैज्ञानिकों ने संशोधन द्वारा सिद्ध किया है ।
गंगा में नित्य शुद्ध (ताजा) रहने की क्षमता है । शुद्धिकरण क्षमता के कारण भी गंगाजी विश्वविख्यात हैं । इस शुद्धिकरण क्षमता का वैज्ञानिक आधार है । गंगा नदी में ‘बैक्टीरियोफेज’ नामक जीवाणु होते हैं एवं वे अन्य विषाणु तथा अन्य हानिकारक सूक्ष्म-जीवों को नष्ट करते हैं ।
गंगा जी की आध्यात्मिक विशेषताएं क्या हैं ?
पवित्रतम
१. भारत की सात पवित्र नदियों में से गंगाजी प्रथम, अर्थात पवित्रतम नदी हैं । जिस पदार्थ में अलौकिक सत्शक्ति अथवा पुण्य होता है, वह पदार्थ पवित्र होता है । पवित्र पदार्थ के अल्प से अल्प अंश में भी संपूर्ण पदार्थ की भांति ही पवित्रता होती है, उदा. गंगाजल की एक बूंद भी संपूर्ण गंगा की भांति ही पवित्र होती है ।
२. ‘गंगा नदी में आध्यात्मिक गंगाजी का अंशात्मक तत्त्व है, इसलिए प्रदूषण से वे कितनी भी अशुद्ध हो जाएं, उनकी पवित्रता सदासर्वकाल बनी रहती है; इसीलिए ‘विश्व के किसी भी जल से तुलना करने पर गंगाजल सबसे पवित्र है’, ऐसा केवल उच्च आध्यात्मिक स्तर होनेवाले संत ही नहीं, अपितु वैज्ञानिकों को भी प्रतीत होता है ।’
३. गंगाजल स्वयं पवित्र है एवं अन्यों को भी पवित्र करता है । गंगाजल का प्रोक्षण किसी भी व्यक्ति, वस्तु, वास्तु अथवा स्थान पर करने से वे वस्तुएं पवित्र हो जाती हैं ।
‘यज्ञदानादि कृत्यों से प्राप्त पुण्यफल सुलभ हैं; परंतु तिलसहित गंगाजल द्वारा किया जानेवाला पितृतर्पण अत्यंत दुर्लभ है ।’
सर्वकल्याण गंगाजी की साधना के लिए उपयुक्त क्या है ?
‘देवतापूजन, जप, तप, यज्ञ, दान, श्राद्धादि धार्मिक कृत्य गंगातटपर करने से करोड गुना अधिक फल प्राप्त होते हैं । गंगातट पर अनेक ऋषि-मुनियों ने तप किए हैं । आज भी अनेक ऋषियों के आश्रम गंगातट पर बसे हुए हैं ।’ ऐसा गंगा का किनारा साधना के लिए अत्यंत उपयुक्त है ।
सर्वपातकनाशिनी
गंगा नदी सर्वदेवमयी, सर्वतीर्थमयी, सरित्श्रेेष्ठा और महानदी तो हैं ही; परंतु ‘सर्वपातकनाशिनी’, उसकी प्रमुख पहचान है ।
जगन्नाथ पंडित गंगा नदी से प्रार्थना करते हुए कहते हैं, ‘जलं ते जम्बालं मम जननजालं जरयतु ।’
अर्थात हे गंगामाता ! कीचड से युक्त आपका जल मेरे पाप दूर करे ।’ प्रत्येक हिन्दू अपने जीवन में कम से कम एक बार पतितपावन गंगा में स्नान करने की अभिलाषा रखता है । हिन्दू धर्म ने ‘गंगास्नान’को एक धार्मिक विधि माना है ।
गंगा नदी के सभी तट तीर्थस्थल बन गए हैं और वे हिन्दुओं के लिए अतिवंदनीय एवं उपासना के लिए पवित्र सिद्धक्षेत्र हैं । ‘गंगाजी पर साढेतीन करोड तीर्थस्थल हैं । धर्माचार्यों ने यह सत्य स्वीकार किया है कि गंगादर्शन, गंगास्नान एवं पितृतर्पण के मार्ग से मोक्ष साध्य किया जा सकता है । गंगातट पर पिंडदान करने से पितरों को मुक्ति मिलती है ।
गंगासप्तमी
वैशाख शुक्ल पक्ष सप्तमी को उच्च लोक में गंगाजी की उत्पत्ति हुई । इस दिन गांव-गांव से लोगों के समूह गंगाजी के गीत गाते हुए काशी पहुंचते हैं । इस दिन काशी में बडा स्नानपर्व होता है ।
इस दिन स्त्रियां ‘गंगाव्रत’ रखती हैं । ‘गंगास्नान, सूर्यपूजा एवं दस ब्राह्मणोंको अन्नवस्त्रदान’ ऐसी इस व्रत की विधि है । ‘पापनाश और इक्कीस पीढियोंका उद्धार’, ऐसा व्रत का फल बताया गया है ।
सर्वश्रेष्ठ तीर्थ
गंगानदी पृथ्वीतल का सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है ।
१. ब्रह्मदेव ने कहा है कि ‘गंगाजी समान तीर्थ नहीं, विष्णुसमान देवता नहीं और ब्राह्मण से कोई श्रेष्ठ नहीं ।’
२. सत्ययुग में सभी स्थान पवित्र थे । त्रेतायुग में ‘पुष्कर’, जबकि द्वापरयुग में ‘कुरुक्षेत्र’ सभी तीर्थों में पवित्र तीर्थ थे और कलियुग में गंगाजी परमपवित्र तीर्थ हैं ।
३. महाभारत में बताया गया है, ‘गंगाजी में कहीं भी स्नान करने से गंगाजी कुरुक्षेत्र की भांति (द्वापरयुग में सरस्वती नदी के तटपर कुरुक्षेत्र नामक पवित्र तीर्थ था ।) पवित्र हैं; ‘जिस प्रकार देवताओं के लिए अमृत है, उसी प्रकार मनुष्य के लिए गंगाजल ही अमृत है ।’
४. श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्णने अर्जुन को विभूतियोग बताते हुए कहा, ‘सभी प्रवाहों में मैं गंगा हूं ।’
शिवतत्त्वदायिनी
‘गंगाजी से शिवतत्त्वरूपी सात्त्विक तरंगों का स्रोत मिलता है ।
ज्ञानमयी तथा ज्ञानदायिनी
‘ज्ञानं इच्छेत् महेश्वरात् मोक्षम् इच्छेत् जनार्दनात् ।’, अर्थात ‘महेश्वर से (शिवजी से) ज्ञान की तथा ‘जनार्दन से (श्रीविष्णुसे) मोक्ष की इच्छा करनी चाहिए ।’ शंकरजी ज्ञानमय होने के कारण उनकी जटाओं से निकली गंगाजी भी सरस्वती नदी की भांति ज्ञानमयी एवं ज्ञानदायी हैं ।’
मोक्षदायिनी
पुराणादि धर्मग्रंथों में गंगाजीको ‘मोक्षदायिनी’ संबोधित किया गया है । कलियुग में मनुष्य को सुलभता से मोक्ष प्रदान करनेवाली गंगाजी का अनन्य महत्त्व है ।
आदिशंकराचार्यजी ने गंगास्तोत्र रचा ।
इसमें वे कहते हैं – हे गंगे, आपसे दूर जाकर कुलीन राजा बनने की अपेक्षा आपके इस जल में कच्छप (कछुआ) अथवा मछली होना अथवा आपके तट पर वास करनेवाला क्षुद्र रेंगनेवाला प्राणी अथवा दीन-दुर्बल चांडाल होना सदैव श्रेष्ठ है ।
हिन्दू जीवनदर्शन में गंगोदक का स्थान
दैनिक जीवन – नित्य स्नान के समय स्मरण
नित्य स्नान करते समय गंगाजी सहित पवित्र नदियों का स्मरण किया जाता है । स्नान के समय कौन-से श्लोक का उच्चारण कर सकते हैं ? यह देखेंगे ।
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धुकावेरी जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ॥
गंगोदक से स्नान करना अधिकांश लोगों के लिए संभव नहीं होता, इसलिए पूर्वकाल में महाराष्ट्र में तांबे अथवा पीतल से बने बडे मुंहवाले ‘घंगाळ’ नामक बर्तनमें पानी लेकर उस पानी से स्नान किया जाता था ।
धार्मिक जीवन
१. करोडों हिन्दुओं की इच्छा होती है कि गंगा में एक बार तो स्नान करें ।
२. यात्री हरिद्वार, प्रयाग (इलाहाबाद) आदि तीर्थस्थानों से गंगाजल घर में लाकर उसकी पूजा करते हैं । साथ ही अपने परिजनों को आमंत्रित कर उन्हें वह तीर्थ देते हैं ।
धार्मिक परंपराएं
स्थान एवं जलशुद्धि के लिए भी गंगाजल का उपयोग करते हैं । नए खोदे कुएं में गंगाजल डालते हैं । गंगाजल हाथ में लेकर शपथ लेते हैं । नवविवाहित दंपति पर गंगाजल का अभिषेक करते हैं ।
नित्य गंगास्नान की तुलना में पर्वकाल में गंगास्नान करने के लाभ
पापक्षालक
‘गंगास्नान से शरीर की शुद्धि के साथ ही मन एवं बुद्धि के पापों का भी क्षय होता है । अतः गंगास्नान करते समय ‘कायिक-वाचिक-मानसिक-सकल-पापक्षयार्थं गङ्गास्नानम् अहं करिष्ये । (कायिक, वाचिक, मानसिक एवं सकल पापक्षय के लिए मैं गंगास्नान करता हूं ।)’, ऐसा संकल्प करते हैं ।’
गंगास्नानद्वारा होनेवाली शुद्धि
गंगास्नान सेे चैतन्यस्रोत की प्राप्ति होकर जीव की साधनाशक्ति का व्यय न होना
‘एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने में मन, चित्त एवं बुद्धि का संघर्ष आरंभ होता है । इससे साधना करने से संचित शक्तिस्रोत घट जाता है तथा जीव को आगे की अवस्था में जाने के लिए साधना व्यय (खर्च) करनी पडती है । चैतन्यस्रोत के माध्यम से यह यात्रा करने से जीव की अपनी ऊर्जा व्यय नहीं होती, तब भी जीव ईश्वरेच्छा के बल पर अगले चरण में जा पाता है । गंगास्नान के माध्यम से जीव को इसी चैतन्यस्रोत से लाभ होता है । विशिष्ट दिन पर गंगास्नान करने से जीव अपनी यात्रा चैतन्य के बल पर कर सकता है; इसीलिए महान संत भी गंगास्नान का महत्त्व बताते हैं तथा स्वयं भी करते हैं ।’
गंगास्नान से जीव का, देह के स्तर पर अल्प मात्रा में; किंतु कर्म के स्तर पर अधिक मात्रा में शुद्ध होता है ।
गंगास्नान के समय जीव द्वारा किए जानेवाले संकल्प में मूलतः‘मुझ से होनेवाली चूक क्षम्य हो एवं उसके लिए ईश्वरीय बल की सहायता प्राप्त हो’, ऐसी याचना की जाती है । इस याचना से एक सूक्षम नाद उत्पन्न होता है । उस नाद के प्रतिसाद में जीव की सहायता के लिए ईश्वरीय तत्त्व दौडा चला आता है तथा चूकों का क्षालन करवा लेता है । इससे गंगास्नान द्वारा अधिक मात्रा में कर्मशुद्धि होती है ।
सुवर्ण
‘गंगाजी एवं अग्नि के संगम से ही सुवर्ण की उत्पत्ति हुई ।’
श्रद्धालुओं के लिए आवश्यक गंगासंबंधी व्यष्टि साधना (उपासना)
गंगास्मरण
१. ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि सैकडों योजन (१ योजन = १२ कि.मी.) दूर से भी जो कोई ‘गंगा, गंगा, गंगा’, इस प्रकार गंगा का स्मरण करता है, वह सर्व पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक जाता है ।’
२. भविष्यपुराण के अनुसार ‘जो व्यक्ति आते-जाते, स्थिर रहने पर, भोजन करते हुए, ध्यान में, जागृतावस्था में और श्वास लेते समय निरंतर गंगास्मरण करता है, वह व्यक्ति बंधनमुक्त हो जाता है ।’
३. गंगासहस्रनाम स्तोत्र का महत्त्व
एक बार अगस्त्य ऋषि ने पूछा, ‘बिना गंगास्नान के मनुष्यजन्म निरर्थक है, ऐसे में दूर देश में रहनेवाले लोगों को गंगास्नान का फल कैसे प्राप्त होगा ?
तब शिवपुत्र कार्तिकेय ने गंगासहस्रनाम रचा तथा उसका पाठ करने का महत्त्व भी बताया ।
तब से आज तक गंगाजी के उपासक प्रतिदिन ‘गंगासहस्रनामस्तोत्र’ का पाठ करते हैं ।
गंगादर्शन
अनादि काल से कहा जाता है, ‘गङ्गे तव दर्शनात् मुक्तिः ।’, अर्थात ‘हे गंगे, आपके दर्शन से मुक्ति मिलती है ।’