देवालय के प्रांगणमें एवं सभामंडपमें कौनसे कृत्य करें ?

१. देवालय के प्रवेशद्वार एवं गरुडध्वजको नमस्कार करनेका महत्त्व

देवालयमें प्रवेश करनेसे पूर्व देवालयके प्रवेशद्वार एवं गरुडध्वजको नमस्कार किया जाता है । देवालय देवताके अधिराज्य होते हैं । इसलिए देवताके गण सूक्ष्मरूप प्रवेशद्वारपर खडे रहते हैं । प्रवेशद्वारको नमस्कार करना, अर्थात् देवताके दर्शनके लिए देवालयमें प्रवेश करनेकी अनुमति मांगना । ऐसा करनेसे हमपर लीनताका संस्कार होता है तथा हमें देवताके आशीर्वाद भी प्राप्त होते हैं ।

गरुडध्वजका आध्यात्मिक महत्त्व

स्थितिरूपी धर्मकणोंको धारण करनेवाला तत्त्व है, गरुड । इस तत्त्वद्वारा इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान, इन तीन शक्तियोंके स्तरपर वायुमंडलमें सत्त्वकणोंको चैतन्य प्राप्त होता है । संपूर्ण सृष्टिके वातावरणकी स्थितिको संतुलित रखनेमें यह सहायक होता है । इन धर्मकणोंके आधारपर देवालयकी सगुण रचना एवं उसमें संचार करनेवाले ईश्वरीय तत्त्व स्थितिस्वरूपमें बने रहते हैं । इस गरुडके प्रतीकस्वरूप सभी देवालयोंके प्रवेशद्वारपर गरुडध्वज स्थापित किया जाता है ।

गरुडध्वजको नमस्कार करना

अपनी रक्षाके लिए कार्यरत वायुरूपी देवत्वको नमन करना एवं उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना । गरुडध्वजको नमस्कार करनेसे देवालयमें प्रवेश हेतु बाधक वायुमंडलकी त्याज्य वायु प्रतिबंधित होती है तथा जीव देवालयमें सहजतासे प्रवेश कर पाता है ।

 

२. देवालयके प्रांगणसे देवालयके कलशका दर्शन एवं कलशको नमस्कार

देवालयके प्रांगणसे कलशके दर्शन करनेसे जीवमें ईश्वरके प्रति भाव बढनेमें सहायता मिलती है । देवालयके कलशसे सात्त्विक तरंगोंका प्रक्षेपण होता रहता है । ये सात्त्विक तरंगें देवालयके परिसरमें संचार करती हैं । कलशको नमस्कार करनेसे ये तरंगें कार्यरत होती हैं तथा जीवको इनका लाभ होता है । साथही जीवके स्थूलदेहके चारों ओर इन सात्त्विक तरंगोंका कवच बनता है । इससे देवालयमें प्रवेश करनेपर जीवमें सात्त्विक तरंगोंको अधिकाधिक ग्रहण करनेकी क्षमता उत्पन्न होती है । इस प्रकार देवालयके प्रांगणसे ईश्वरीय तरंगें प्राप्त करते हुए जीव सभामंडपकी ओर, बढता है । फलस्वरूप उसमें भाववृद्धि होती है । साथही देवालयमें देवताके प्रत्यक्ष दर्शन कर वहांका चैतन्य ग्रहण करनेमें जीव सक्षम बनता है ।

 

३. देवालयके प्रांगणसे सभामंडपकी ओर दोनों हाथ जोडकर नमस्कारकी मुद्रामें जानेका महत्त्व

देवालयके प्रांगणमें ईश्वरकी निर्गुणदर्शक आशीर्वादात्मक तरंगें निरंतर प्रक्षेपित होती रहती हैं । नमस्कारकी मुद्राके कारण जीवको इन तरंगोंका लाभ मिलता है । हाथकी उंगलियां सर्वाधिक संवेदनशील घटक हैं । इन्हें देवालयकी दिशामें रखनेसे देवालयसे प्रक्षेपित निर्गुण तरंगें उंगलियोंमें घनीभूत होकर अंगूठेके माध्यमसे आज्ञा-चक्रकी ओर संचारित होती हैं । इससे कुंडलिनीचक्रमें ईश्वरीय तत्त्व ग्रहण करनेकी संवेदनशीलता कार्यरत होती है । साथही कुछ कष्ट हुए बिना, जीव अपनी क्षमतानुसार ईश्वरीय तत्त्व ग्रहण कर पाता है ।

 

४. सभामंडपके निकट सीढियोंको नमन करना

सभामंडपके निकट सीढियां हों, तो चढनेसे पहले प्रथम सीढीको दोनो हाथोंसे स्पर्श कर नमन करें। इस प्रकार सीढीको नमन करनेसे देवालयकी भूमिमें विद्यमान चैतन्य कार्यरत होकर, जीवके देहपर आच्छादित रज-तम कणोंको नष्ट करनेमें सहायक होता है । ये सीढियां जीवको ईश्वरकी ओर अर्थात् अद्वैतकी ओर ले जानेकी एक कडी हैं ।

 

५. देवालयकी सीढीको दोनो हाथोंसे स्पर्श कर नमस्कार करना

५ अ. देवालयकी प्रथम सीढीको स्पर्श करनेके लिए झुकनेसे व्यक्तिमें शरणागतभावके वलय जागृत होते हैं ।

५ आ. अनिष्ट शक्तियां देवालयमें प्रवेश न कर पाएं इसलिए देवालयकी सीढियोंसे शक्तिकी कार्यरत तरंगें एवं चैतन्यकी तरंगें प्रवाहित होती रहती हैं ।

५ इ. ये तरंगें देवालयकी सीढीको स्पर्श करनेवाले दर्शनार्थीके देहमें संचारित होती हैं ।

५ ई. उसके अनाहत-चक्रके स्थानपर शक्ति तथा चैतन्यके वलय जागृत होते हैं ।

५ उ. दर्शनार्थीके देहपर बना काला आवरण नष्ट होता है एवं उसके देहकी शुद्धि होती है ।

५ ऊ. देवालयके प्रांगणमें चैतन्यके कण कार्यरत रहते हैं । देवता अथवा संतोंके दर्शनके लिए जाते समय अहं न्यून एवं शरणागतभाव अधिक हो, तो देवता अथवा संतोंसे प्रक्षेपित चैतन्यके स्पंदनोंका श्रद्धालुको अधिक लाभ मिलता है ।

संदर्भ-सनातनका ग्रंथ-‘देवालयमें दर्शन कैसे करें ?’

Leave a Comment