विवाह संस्कार

सारिणी


विवाह’ जीवनका एक महत्त्वपूर्ण संस्कार है । धार्मिक संस्कारोंको केवल परंपरागत करनेकी अपेक्षा, उनके शास्त्रीय आधारको समझकर करना महत्त्वपूर्ण होता है । संस्कारका शास्त्रीय आधार समझनेसे उस संस्कारका महत्त्व अधिक सुस्पष्ट होता है । इस कारण वह संस्कार अधिक श्रद्धापूर्वक होता है । इस हेतु यहां विवाह संस्कारांतर्गत कुछ गिने-चुने कृत्योंका मूलभूत अध्यात्मशास्त्र प्रस्तुत करनेपर अधिक बल दिया गया है ।

‘हिन्दू धर्म में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, ये चार पुरुषार्थ बताए गए हैं । उनमें से ‘काम’ पुरुषार्थ साध्य कर धीरे-धीरे ‘मोक्ष’ पुरुषार्थ की ओर जा सकें, इस उद्देश्य से विवाह-संस्कार का प्रयोजन है । हिन्दू धर्म में ईश्‍वर के निकट होने के लिए मनुष्य जीवन में होनेवाले प्रमुख सोलह संस्कार करने के लिए बताए गए हैं । उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है ‘विवाह-संस्कार’ ! विवाह की धार्मिक विधियों के आधारभूत शास्त्र बताने के साथ ही विवाह में होनेवाले अनुचित प्रकरणों के साथ-साथ विवाह आदर्शपूर्ण पद्धति से कैसे करें, आज के धर्मसंवाद में हम इसका दिशादर्शन लेंगे ।

 

विवाह भी एक संस्कार है

सोलह संस्कारों में से ‘विवाह’ संस्कार के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण विधियां एवं उनकी संक्षिप्त जानकारी यहां दी है । ‘गृह्यसूत्र में विवाह संस्कार का विधान है । इसमें ऋग्वेद के विवाह सूक्त का विनियोग है ।

‘विवाह अथवा उद्वाह’ अर्थात वधू को उसके पिता के घर से अपने घर ले जाना । ‘हमारी विवाह संस्था में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, ये चारों पुरुषार्थ साध्य करने की व्यवस्था है ।

दुर्भाग्यवश वर्तमान में विवाह को एक भोगसाधन के रूप में देखा जाता है । आज विवाह की ओर देखने की दृष्टि में ही परिवर्तन होने के कारण विवाह संस्कार में अनेक विकृतियां आ गई हैं । इसे हमें समझना होगा ।

‘कलाकारीयुक्त, सुगंधित इत्यादि विभिन्न संकल्पनाओं की महंगी विवाह पत्रिकाएं अब नित्य की बातें हैं । महंगी विवाह पत्रिका प्रकाशित करने की अपेक्षा वे सात्त्विक होने हेतु प्रयत्न करने चाहिए । इसके लिए –

१. अनेक बार विवाह पत्रिका पर छपे श्री गणेशजी के चित्र से उनका अनादर होता है । (उदा. श्री गणेशजी के केवल मस्तक का चित्र, पत्ते और फूलों से बना श्री गणेशजी का चित्र) उसकी अपेक्षा धर्मशास्त्र में वर्णित श्री गणेशजी का आसनस्थ पूर्ण चित्र प्रकाशित करें ।

२. विवाह पत्रिका के प्रारंभ में आराध्यदेवता, कुलदेवता, ग्रामदेवता इत्यादि के नामों का उल्लेख हो ।

३. विवाह पत्रिका मातृभाषा अथवा अन्य राष्ट्रीय भाषा में छपवाएं; परंतु अंंग्रेजी में न छपवाएं ।

४. विवाह पत्रिका में कलाकारी सात्त्विक हो ।

५. विवाह पत्रिका में लिखे सार का व्याकरण शुद्ध हो, साथ ही उसमें विदेशी भाषा के शब्दों से बचें ।

६. विवाह पत्रिका में धर्मशिक्षासंबंधी अथवा राष्ट्र एवं धर्म जागृति पर लेख हो ।

 

तेल-हलदी लगाना

जिसका विवाह संस्कार होना है, उस संस्कार्य व्यक्तिको तेल-हलदी लगाकर स्नान करवानेकी विधिको ‘तैलहरिद्रारोपणविधि’ कहते हैं । धार्मिक विधिद्वारा निर्माण होनेवाली शक्ति ग्रहण करनेकी क्षमता तेल एवं हलदीके कारण बढती है । हलदीके कारण वातावरणसे पवित्रक आकर्षित होते हैं एवं तेलके कारण वे शरीरमें अधिक समयतक टिके रहते हैं । संस्कार्य व्यक्तिको हलदी लगाते समय, उसे नीचेसे ऊपरतक अर्थात तलुए, घुटने, हाथ एवं माथा, इस क्रममें लगाते हैं ।

 

लौकिक प्रथा

पीढेपर गेहूंका चौकोर बनाकर, वर / वधू तथा उसके माता-पिताको उसपर बिठाते हैं । फिर तीनोंके शरीरपर तेल-हलदी लगाकर सुहागन स्त्रियां उन्हें मंगल स्नान कराती हैं । प्रादेशिक भेद अनुसार वर-वधू परिवारोंके बीच हलदीका आदान-प्रदान होता है तथा इस रीतिके भिन्न नाम हैं । वधूको स्नान करवानेपर उसे हरी चूडिया देनेकी प्रथा है । हरा रंग निर्मितिका प्रतीक है, विवाहोपरांत पुत्र-कन्याके रूपमें निर्मिति हो, ऐसा उसका अर्थ है । इसे वज्रका चूडा भी कहते हैं ।

 

मंगलसूत्रबंधन

मंगलसूत्र को संस्कृत मेंमांगल्य तंतु भी कहते हैं । दो-सुत्री धागेमें काले मणि पिरोए जाते हैं । मध्यभागमें ४ छोटेमणि एवं २ छोटी कटोरियां होती हैं । दो धागेअर्थात पति-पत्नी का बंधन, दो कटोरियां अर्थात पति-पत्नी एवं ४ काले मणि अर्थात धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, ये चार पुरुषार्थ । वर पक्ष की सुहागन वर-वधूकोपूर्वाभिमुख बिठाकर, वधूको अष्टपुत्री नामक दो वस्त्र, कंचुकी (चोली ) एवं कालेमणियोंका एक मंगलसूत्र दे। वर को मंगलसूत्र अपने हाथ में लेकर‘हे पतिव्रते, पतिका (मेरा) जीवन दर्शक (आयुवृद्धि करनेवाला)यह मंगलसूत्र मैं तुम्हारें गलेमें बांध रहाहूं।तुम्हें सौ वर्षकी आयु प्राप्त हो ।’,ऐसाकहकर इष्टदेवताका स्मरण कर वहसूत्रवधूकेकंठमेंबांधना चाहिए।विवाहकेसमय मंगलसूत्रइस तरह पहनाते हैंकि कटोरियोंका छिद्रआगे की ओर रहे ।

सप्तपदी मंत्र

शास्त्रवचन है कि, ‘सात कदम साथ चलनेपर मैत्री होती है ।’ इसीलिए विवाह संस्कारमें सप्तपदीका विशेष महत्त्व है । वरको वधूका हाथ पकड होमकुंडके उत्तरकी ओर रखी चावलकी सातों राशियोंपरसे उसे (वधूको) चलाते हुए ले जाना, इस कृतिको ‘सप्तपदी’ कहते हैं । वर-वधू एक-एक कदम रखते हैं, तब पुरोहित प्रत्येक कदमके साथ आगेके मंत्र पढ़ता है । उस समय वर-वधू्को मनमें मंत्रानुसार संकल्प करना होता है ।

महत्त्व

सप्तपदी अर्थात, सप्तलोकोंसे एवं सप्तकोषोंसे एकसाथ छूटने हेतु लिए जानेवाले कदम हैं । कानूनकी दृष्टिसे समझा जाता है कि, सप्तपदी हो जानेके पश्चात ही विवाह पूर्ण हुआ ।

 

कंकणबंधन

सूत्रवेष्टनके सूत्रको कुमकुम लगाकर, उसे मरोडकर, उस सूत्रमें हल्दीकी गांठ एवं ऊर्णास्तुक (ऊनका टुकडा) बांधते हैं । ‘मंत्रतंत्र हेतु बलि देकर जिसे प्रसन्न किया जाता है, ऐसी दुष्ट स्त्रीदेवता जो वधूको कष्ट देती है, सांप्रत उससे संबंध टूट चुका है । उसका वर्ण नीलरक्त हो गया है । इसके जानेसे वधूके ज्ञातिबांधव सुखवृद्धिको प्राप्त कर, पति उसके साथ बांधा जा रहा है ।’, ऐसा बोलते हुए वर वह सूत्र वधूकी बार्इं कलाईपर बांधे । तदुपरांत कमरका सूत्र उतारकर, उसमें भी उसी प्रकार ऊर्णास्तुक (ऊनका टुकडा) एवं हल्दीकी गांठ बांधकर वधूको वरके दाएं हाथकी कलाईपर यही मंत्र बोलते हुए बांधना चाहिए । कंकणबंधन उपरांत वधू पीली साडी छोड हरी साडी पहनती है । पुत्र-कन्याकी निर्मिति हो, हरा रंग इसका सूचक है ।

 

अक्षतारोपणविधि

वर-वधू पर अक्षत डालने की कृति को अक्षतारोपणविधि बताया गया है । आजकल मंगलाष्टक बोलते हुए ‘शुभमंगल सावधान’ कहने पर प्रत्येक बार उपस्थित लोग वर-वधू की ओर अक्षत डालते हैं । जब वर-वधू एक-दूसरे को वरमाला पहनाते हैं, तब वर-वधू दूर होते हुए भी उनकी ओर हाथ में बचे हुए अक्षत डालते हैं । प्राचीन काल में ‘कंकणबंधन’ विधि पूर्ण होने पर वर-वधू एक-दूसरे की धर्म, अर्थ, काम, संतति आदि इच्छाएं पूर्ण होने हेतु एक-दूसरे पर अक्षत छिडकते थे एवं तिलक लगाकर वरमाला पहनाते थे । तदनुसार मंगलाष्टक के समय उपस्थित लोगों का वर-वधू पर अक्षत डालनेे की अपेक्षा निम्न पद्धति से अक्षत छोडना अधिक उचित है । वर-वधू द्वारा एक-दूसरे को वरमाला पहनाने के उपरांत वर पूर्व की ओर और वधू पश्‍चिम की ओर मुख कर आमने-सामने आसन पर बैठें । दोनों अपने हाथों में अक्षत लेकर प्रथम वधू वर के मस्तक पर तत्पश्‍चात वर वधू के मस्तक पर तीन अथवा पांच बार अक्षत छोडे ।

अक्षत दूर से छोडने से हानि भी है । विवाह के समय जब वर-वधू पर दूर से अक्षत छोडे जाते हैं, तब ये अक्षत वर-वधू के मस्तक पर न पडने के कारण, उन अक्षतों से प्रक्षेपित स्पंदन का लाभ वरवधू को नहीं मिल पाता । देवताओं के तत्त्वों से प्रभारित अक्षत भूमि पर गिरने से वहां उपस्थित लोगों के पैरोंतले रौंदे जाते हैं । इससे उन अक्षत में विद्यमान दैवी तत्त्वों का अनादर होता है ।’

अक्षत में चावल का ही उपयोग क्यों किया गया है ?

अक्षत के चावल जिस प्रकार सुफल, उर्वरता के प्रतीक हैं, उनमें भूत, करनी इत्यादि अनिष्ट शक्तियों का निवारण करने की भी उतनी ही शक्ति होती है । इसलिए अक्षत का उपयोग किया जाता है ।

१. अक्षत में ब्रह्मांड में विद्यमान देवताओं के तत्त्व आकर्षित करने की क्षमता अधिक होती है । अतः पूजाविधि अथवा अन्य धार्मिक विधियों में अक्षत का प्रयोग किया जाता है ।

२. ‘अक्षत’ सुख, समृद्धि, धन-धान्य एवं संतति का प्रतीक है ।

२ अ. इस कारण वर-वधू के मस्तक को अक्षत का स्पर्श होते ही उनका वैवाहिक एवं सांसारिक जीवन समृद्ध होने में सहायता मिलती है ।

३. बडों द्वारा वर-वधू के मस्तक पर अक्षत छोडते ही अक्षत में आकृष्ट देवता के तत्त्व वर-वधू की देह में प्रवेश कर दीर्घकालतक कार्यरत रहते हैं । वर-वधू को इसका आध्यात्मिक लाभ होता है ।

 

सूत्रवेष्टन (सूत लपेटना)

वर-वधूको आमने-सामने बिठाकर कच्चा सूत दोहरा लेकर, दूधमें भिगोकर उससे वर-वधूके कंठ एवं कटि (कमर)के चारों ओर ईशान्य दिशासे आरंभ कर पांच बार लपेटें । उस समय बोले जानवाले मंत्रका अर्थ है – ‘हमारे यह शब्द तुम्हें चारों ओरसे वेष्टित करें और तुम्हारी आयुवृद्धि कर निरंतर तुम्हें सौख्य प्रदान करें ।’ इस प्रकार सूत्रवेष्टन हो जानेके उपरांत कंठका सूत्र नीचे जमीनपर गिरने दें और वर-वधूको खडा कर जमीनपर गिरा हुआ सूत्र उठा लें । मानवी जीवनकी अखंडता (पूर्ण आयु) दर्शानेके लिए संस्कार एवं अन्य मंगल प्रसंगोंमें सूत्रवेष्टन करते हैं ।

 

कन्यादानविधि

वधूका (कन्याका) वरको दान देना, इसे कन्यादान कहते हैं । ‘ब्रह्मलोककी प्राप्ति हो, इस इच्छासे अपनी सुस्वरूप एवं सुवर्णालंकारोंसे युक्त कन्याको आपको विष्णु भगवान समान मानकर देता हूं । विश्वंभर परमेश्वरको, सभी भूतों एवं देवताओंको साक्षि मान, पितरोंका उद्धार करने हेतु यह कन्या आपको देता हूं ।’, ऐसा बोलें । तदुपरांत एक नवीन कांस्यपात्र (कांसेकी थाली) रखकर, उसपर कन्याकी अंजली, उसपर वरकी अंजली और उसपर अपनी अंजली रखें । तदुपरांत कन्यादानके लिए पहलेसे ही अभिमंत्रित किए जलपात्र दार्इं ओर खडी अपनी पत्नीके हाथमें दें तथा उसके हाथसे उस जलपात्रका पानी अपनी अंजलीपर बारीक धारसे सतत डालें । वह इस प्रकार कि, अपनी अंजलीका जल, कन्याकी अंजलीपर रखें वरके दाएं हाथकी अंजलीसे जल कन्याकी अंजलीसे होते हुए कांस्यपात्रमें गिरे । विवाहविधि पूर्ण हो जानेके उपरांत पत्नी पतिके बार्इं ओर खडी रहती है, उसी प्रकार उसकी अंजली, पतिकी अंजलीके नीचे रहती है । ‘विधिपूर्वक कन्यादान होनेके उपरांत ही पतिपत्नीका संबंध स्थापित होता है और कन्या एवं उसकी संतति उस गोत्रकी हो जाती है ।’

 

लाजाहोम

लाजा अर्थात् खीलें । खीलें (उसी प्रकार चावल भी) प्रफुल्लित योनिका, बहुप्रसवताका प्रतीक है । वरको प्रथम पूर्व स्थानपर आकर वधूको खडे रहनेके लिए कहना चाहिए । तदुपरांत स्वच्छ जलसे उसके दोनों हाथ अच्छी तरह धुलवाएं । तब उसे अंजुली बनानेके लिए कहकर वरको स्त्रुवा (आचमनी)से थोडासा घृत लेकर वधूकी अंजुलीमें डालना चाहिए अर्थात उसके हाथमें थोडासा घृत (घी) चुपडना चाहिए । वधूके भाईको या उसके स्थानपर किसी अन्य व्यक्तिको खडे रहकर सूपमें रखी खीलें (धान) मुट्ठी-मुट्ठी
लेकर दो बार कन्याकी अंजुलीमें डालनी चाहिए । (पंचप्रवरी हो तो तीन बार खीलें डालें ।) इसकेद्वारा वधूका भाई विवाहके लिए सहमति दर्शाता है । वरको सूपकी व अंजुलीकी खीलों (धान)पर अभिधार करना चाहिए अर्थात घी (घृत) डालना चाहिए । ‘कन्याको अर्यमा नामक जिस अग्निदेवताकी पूजा की, वह अर्यमण इस कन्याको यहांके (पितृगृहके) पाशसे मुक्त करें; पतिके (मेरे) पाशसे न छूटने दें’, ऐसा बोलते हुए अपने दोनों हाथोंसे वधूकी अंजुली पकड उसमें जो खीलें हैं, उन्हें होमकुंडमें डाले । फिर वरको सिल-बट्टा छोडकर, होमकुंड, जलकुंभ और अग्नि, इन सबकी वधूसहित प्रदक्षिणा करनी चाहिए । प्रदक्षिणा करते समय वधूका हाथ पकड स्वयं आगे चलना चाहिए तथा वधूको पीछे आना चाहिए । लौकिक प्रथानुसार इस विधिके समय वधूका भाई वरके कान खींचता है ।

संदर्भ – सनातनका ग्रंथ ‘सोलह संस्कार व अन्य कुछ विधियां’

Leave a Comment