किसीकी मृत्यु हो जानेपर क्या करें ?

१. मृत्योपरांत कृतियोंका शास्त्रीय महत्त्व

मृत्योत्तर क्रियाकर्मको श्रद्धापूर्वक व विधिवत् करनेपर मृत व्यक्तिको सद्गति प्राप्त होती है । पूर्वजोंकी अतृप्तिके कारण, परिजनोंको होनेवाले कष्टों तथा अनिष्ट शक्तियोंद्वारा लिंगदेहके वशीकरणकी संभावना भी कम हो जाती है । मृत्योत्तर क्रियाकर्मके प्रति शुष्क भाव समाप्त हो, इस दृष्टिसे यहां मृत्योपरांतकी कुछ विधियोंका अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टिकोण दे रहे हैं । इससे स्पष्ट होगा कि, मनुष्यजीवनमें साधनाका महत्त्व अनन्यसाधारण है ।

 

२. किसीकी मृत्यु हो जानेपर क्या करें ?

मृतकका सिर दक्षिणमें तथा पैर उत्तर दिशामें हों, इस प्रकार लिटाएं । उसके मुखमें गंगाजल / विभूति-जल डालें और तुलसीदल रखें । तुलसीदलके गुच्छेसे मृत व्यक्तिके कानों और नासिकाओंको बंद करें। परिवारका विधिकर्ता पुरुष अपना सिर मुडवाए । (केश कष्टदायक तरंगोंको आकर्षित करते हैं । मृत्योपरांत कुछ समयके लिए जीवकी सूक्ष्म देह परिजनोंके आस-पास ही घूमती रहती है । उससे प्रक्षेपित रज-तम तरंगें परिजनोंके केशके काले रंगकी ओर आकर्षित होते हैं । इस कारण सिरदर्द, सिरमें भारीपन, अस्वस्थता, चक्कर आना जैसे कष्ट होते हैं । मृत्योत्तर क्रियाकर्ममें पुरुष प्रत्यक्ष सहभागी होते हैं, इसलिए उन्हें ऐसे कष्ट होनेकी आशंका अधिक रहती है । इसलिए वे अपना सिर पूरा मुडवाएं ।) `श्री गुरुदेव दत्त ।’ का जाप ऊंचे स्वरमें करते हुए, मृत व्यक्तिको नहलाएं । गोमूत्र अथवा तीर्थ छिडककर, यदि संभव हो तो धूप दिखाकर, शुद्ध किए गए नए वस्त्र मृत व्यक्तिको पहनाएं । घरमें गेहूंके आटेका गोला बनाकर उसपर मिट्टीका दीप जलाएं । दीपकी ज्योति दक्षिण दिशाकी ओर हो ।

 

३. विद्युत् दाहसंस्कार न कर, विधिवत् करें

मानवनिर्मित अशुद्ध लोहेका विद्युत्दाह यंत्र व विद्युत्प्रवाह रज-तमयुक्त व चैतन्यहीन है । इसलिए विद्युत्-दहनमें मृत व्यक्तिके शरीरसे वायुमंडलमें रज-तमका प्रक्षेपण होता है और वायुमंडल दूषित होता है । इस कारण विद्युत्-दहनसे मृत व्यक्तिको आगेकी गति हेतु उतना लाभ नहीं मिलता । विधिवत् दाहसंस्कारमें प्रयुक्त नैसर्गिक वस्तुओंमें (लकडी, उद इत्यादिमें) चैतन्य होता है । इसलिए एवं विधिवत् दाहसंस्कारमें मंत्रोच्चारके कारण मृत व्यक्तिको आगेकी गति मिलती है । अत: मंत्रोच्चारसहित मृतदेहका दहन करें ।

 

४. दहनोपरांत चिताके आस-पास मटकीके जलको गिराते हुए परिक्रमा लगाएं

मटकीके छिद्रसे गिरनेके कारण जलकी तरंगोंको गति प्राप्त होती है । परिणामस्वरूप उत्पन्न ऊर्जाके कारण वायुमंडलकी शुद्धि होती है । तीन बार परिक्रमा लगानेसे मृतदेहके आस-पास सूक्ष्म-मंडल बनता है । इससे मृत व्यक्तिको आगेकी गति मिलती है ।

 

५. चिताके धुएंका स्पर्श शरीरको क्यों न होने दें ?

मृतदेहके अंत्यसंस्कारकी अग्निकी ज्वालाओंका धुआं मृत व्यक्तिकी वासनाओंसे संबंधित है । कुछ अतृप्त लिंगदेह इस धुएंकी ओर आकर्षित होती हैं और इस धुएंके साथ-साथ किसी व्यक्तिकी देहमें प्रवेश कर सकती हैं । इसलिए अपने शरीरको इस धुएंका स्पर्श न होने दें ।

 

६. १ वर्षतक के बालकोंको अग्नि न देकर मृत्योपरांत दफनाया क्यों जाता है ?

एक वर्षतक के बालकपर संस्कारोंकी संख्या अत्यल्प होती है, इसलिए उन्हें नष्ट करने हेतु भिन्न अग्निसंस्कार करनेकी आवश्यकता नहीं रहती ।

मृतदेह को श्मशान ले जाते समय उसकी अंतिम यात्रा में सम्मिलित होेनेवाले ऊंचे स्वर में ‘श्री गुरुदेव दत्त’ का नामजप करें
‘पूर्वजों को गति देना’ दत्ततत्त्व का कार्य है, इसलिए दत्तात्रेय देवता के नामजप से अल्पावधि में लिंगदेह को और वातावरण-कक्षा में अटके हुए उसके अन्य पूर्वजों को गति प्राप्त होती है ।’

 

७. मृतदेह को चिता पर रखते समय उसके पैर उत्तर दिशा की ओर रखते हैं

१. अग्निसंस्कार के समय मृतक को अग्निदेवता को अर्पण करना होता है । उपास्यदेवता सदैव उत्तर दिशा से आते हैं । जीव के पैर आगे बढने के प्रतीक हैं । मृतक को देवताओं को सौंपना सुलभ हो इसके लिए उसे चिता पर रखते समय उसके पैर उत्तर दिशा में रखते हैं ।

२. इस दिशा में ही मृतदेह की कटि के नीचे के भाग से प्रक्षेपित होेनेवाले कष्टदायक स्पंदन अधिक मात्रा में विघटित किए जाते हैं ।

३. उत्तर दिशा के देवता ‘सोम’ हैं । जीव का शिव से मिलन करवाने में इस शिव तत्त्व का महत्त्वपूर्ण सहभाग होता है । अंतिम क्षण में जीव का शिव से मिलन होने हेतु यह दिशा अत्यंत पूरक होती है; इसलिए चिता पर रखते समय मृतदेह के पैर उत्तर दिशा की ओर रखते हैं ।

४. मंत्राग्नि के तेजतत्त्व के कारण उत्तर दिशा की ओर निवास करनेवाले क्षुद्रदेवताओं तथा अनेक इष्ट देवताओं की तरंगें जागृत होती हैं । उत्तर दिशा से इन तरंगों के पृथ्वी तथा आप तत्त्वसदृश आगमन के कारण उस व्यक्ति को अंतिम क्षण में भूलोक से अधिकतम मात्रा में सुरक्षा प्राप्त होती है तथा उसे आगे की गति प्राप्त होने में सहायता मिलती है ।’

 

८. मृत व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त वस्तुओं का क्या करें ?

जब व्यक्ति मर जाता है, तब उसके जीवनकाल में पहने हुए उसके सभी वस्त्र, वस्तु आदि का उपयोग घर के अन्य सदस्य करें अथवा किसी बाहरी व्यक्ति को दान कर दें, इस संदर्भ में धर्मशास्त्र में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती ।

अध्यात्मशास्त्र के अनुसार साधारण व्यक्ति के नित्य उपयोग की वस्तुओं में उसकी आसक्ति रह सकती है । यदि ऐसा हुआ, तो मृत व्यक्ति की लिंगदेह उन वस्तुओं में फंसी रहेगी, जिससे उसे मृत्यु के पश्‍चात गति नहीं मिलेगी । अतः मृत व्यक्ति के परिजनों को आगे दिए अनुसार आचरण करना चाहिए ।

अ. मृत व्यक्ति द्वारा अंतिम दिन पहने हुए वस्त्र और ओढना-बिछौना अंतिमयात्रा के साथ ले जाकर चिता में रख दें । मृत व्यक्ति ने जो वस्त्र पहले कभी पहने थे और जो ओढना-बिछावन पहले कभी उपयोग किया था, वह सब एकत्र कर अंतिमयात्रा में ले जाना बहुधा नहीं हो पाता । ऐसी वस्तुओं को कुछ दिन पश्‍चात अग्नि में जला दें ।

आ. मृत व्यक्ति ने जिन वस्त्रों को कभी नहीं पहना था, वे (कोरे) वस्त्र उसके परिजन अथवा अन्य व्यक्ति पहन सकते हैं ।

इ. ‘व्यक्ति की मृत्यु जिस खाट पर हुई हो, वह खाट अथवा पलंग ब्राह्मण को दान करें’, ऐसा धर्मशास्त्र कहता है । यदि वह पलंग दान नहीं कर सकते, तो मृत व्यक्ति के परिजन अपनी आर्थिक क्षमतानुसार ब्राह्मण को नया पलंग बनाने का मूल्य दान कर सकते हैं ।

ई. मृत व्यक्ति की घडी, चल-दूरभाष (मोबाइल), लेखन-सामग्री, पुस्तकें, ‘झोले (बैग)’ आदि वस्तुओं को गोमूत्र अथवा तीर्थ से शुद्ध कर लें । इन पर यज्ञ की विभूति अथवा सात्त्विक उदबत्ती की विभूति की फूंक मारें । पश्‍चात इन वस्तुओं पर दत्तात्रेय भगवान के सात्त्विक चित्र चिपकाएं, इनके चारों ओर दत्तात्रेय की सात्त्विक नामजप-पट्टियों का मंडल अथवा चौखट बनाएं । परिजन यदि इन वस्तुओं का उपयोग करना चाहें, तो मृत्यु के ६ सप्ताह पश्‍चात भगवान दत्तात्रेय से प्रार्थना कर ऐसा कर सकते हैं ।

उ. संतों का शरीर चैतन्यमय होता है । इसलिए देहत्याग के पश्‍चात भी उनकी वस्तुओं में चैतन्य रहता है । इस चैतन्य का लाभ सबको मिले, इसके लिए उन्हें धरोहर की भांति संभालकर रखें ।

९. अंत्यसंस्कार के तीसरे दिन ही अस्थिसंचय क्यों करते हैं ?

‘मंत्रोच्चार की सहायता से मृतदेह को दी गई अग्नि की धधक, अर्थात अस्थियों में आकाश एवं तेज तत्त्वों की संयुक्त तरंगों का प्रक्षेपण । तीन दिन के उपरांत यह क्षीण होने लगता है । इस कारण अस्थियों के चारों ओर निर्मित सुरक्षा-कवच की क्षमता भी घटने लगती है । ऐसे में अस्थियों पर विधि कर, अनिष्ट शक्तियां उस जीव की लिंगदेह को कष्ट दे सकती हैं और उसके माध्यम से परिजनों को भी कष्ट दे सकती हैं । इस कारण परिजन तीसरे दिन ही श्मशान जैसे रज-तमात्मक वातावरण में से अस्थियों को इकट्ठा कर वापस ले आते हैं ।

 

१०. पिण्डदान नदी के तट अथवा घाट पर क्यों किया जाता है ?

‘मृत्यु के उपरांत स्थूलदेह-त्याग के कारण लिंगदेह के आसपास पृथ्वीतत्त्व अर्थात जडता की मात्रा घटती है और आपतत्त्व की मात्रा बढ जाती है । लिंगदेह के चारों ओर विद्यमान कोष में सूक्ष्म आर्द्रता की मात्रा सर्वाधिक होती है । पिंडदान कर्म लिंगदेह से संबंधित होता है, इस कारण लिंगदेह के लिए पृथ्वी की वातावरण-कक्षा में प्रवेश करना सरल बनाने हेतु, अधिकतर ऐसी विधियां नदी के तट अथवा घाट पर की जाती हैं । ऐसे स्थानों में आपतत्त्व के कणों की प्रबलता होती है और वातावरण आर्द्रता (नमी)दर्शक होता है । अन्य जडतादर्शक वातावरण की अपेक्षा उक्त प्रकार का वातावरण लिंगदेह को निकट का एवं परिचित लगता है और उसकी ओर वह तुरंत आकर्षित होता है । इसलिए पिंडदान जैसी विधि को नदी के तट अथवा घाट पर ही किया जाता है ।

संदर्भ : सनातन निर्मित लघुग्रंथ – ‘मृत्युपरांत के शास्त्रोक्त क्रियाकर्म´

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