भाव का अनुभव कैसे करेंगे ?

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के भावविश्‍व में रहनेवाली सद्गुरु (कु.) अनुराधा वाडेकरजी !

सद्गुरु (कु.) अनुराधा वाडेकरजी का निम्नलिखित लेखन उनके संत एवं सद्गुरुपद प्राप्त करने से पहले का है । उस अवधि में प्रत्येक कृती करते समय उनके द्वारा रखा गया भाव सभी को सिखने के लिए योग्य तथा विशेषतापूर्ण है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के प्रति उनमें विद्यमान उत्कट भाव के कारण ही आज वे सद्गुरुपदतक पहुंची हैं । सभी साधकों को उनके प्रयासों से सीख मिले; इसके लिए उनके प्रयासों में विद्यमान सूत्र यहां दिए गए हैं ।

१. सुबह उठना : ‘मैं प्रतिदिन सुबह प.पू. डॉक्टरजी की कृपा से ही जग जाती हूं और उन्हीं की कृपा सेे ही मैं जीवित हूं ।

२. व्यक्तिगत समेटना : मुझे ईश्‍वर से मिलने जाना है; इसलिए मैं समेट रही हूं । समेटन ने के लिए उपयोग की जानेवाली वस्तुओं में चैतन्य है और उनके माध्यम से मुझे चैतन्य मिल रहा है ।

३. किसी भी कक्ष का द्वार खोलना अथवा बंद करना : मैं प.पू. डॉक्टरजी के कक्ष में ही जा रही हूं, साथ ही मेरे मन के द्वार खोलकर मैं अपने अंतर्मन में प्रवेश कर रही हूं ।

४. लेखन करना : प.पू. डॉक्टरजी ही मेरे माध्यम से लेखन कर रहे हैं । उनके सात्त्विक अक्षरों से मुझे चैतन्य मिलनेवाला है, साथ ही उन्होंने यह लेखन सूक्ष्म से पहले ही किया हुआ है । अब वे स्थूल से मेरे माध्यम से लिखवा रहे हैं ।

५. साधकों के साथ साधना के विषय में बोलना : मेरे साथ बोलनेवाला साधक और मैं, हम दोनों को चैतन्य मिलें । प.पू. डॉक्टरजी, आप ही मेरे माध्यम से बोलें । उससे हम दोनों की साधना हो ।

६. साधकों की बातें सुनना : सामने के साधक के माध्यम से प.पू. डॉक्टरजी ही मेरे साथ बोल रहे हैं और वे ही मेरे स्थानपर बैठकर सुन रहे हैं । इस सुनने से मुझे चैतन्य मिल रहा है ।

७. साधकों को देखना : साधकों के कारण ही मेरी साधना होती है और उनके गुण सीखना मेरे लिए संभव होता है । उनमें ईश्‍वर विराजमान हैं । उनके माध्यम से ईश्‍वर मेरी सहायता करनेवाले हैं । मेरे माध्यम से प.पू. डॉक्टरजी ही सभी की ओर प्रशंसा की दृष्टि से देख रहे हैं । उनकी इस दृष्टि से भी मुझे चैतन्य मिल रहा है ।

८. बैठना : मैं चैतन्य की गद्दीपर बैठ रही हूं ।

– कु. अनुराधा वाडेकर (अब की सद्गुरु (कु. अनुराधा वाडेकरजी)

 

ईश्‍वर के भावविश्‍व का अनुभव करने के
विषय में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का अमूल्य मार्गदर्शन !

‘हमें ईश्‍वर के पास जाना नहीं है, अपितु हमें भाव को इतना बढाना होगा कि ईश्‍वर को हमारे पास आने की इच्छा हो

निरंतर भाव की स्थिति में होने से सेवा में शरीर,
मन एवं बुद्धि का साथ न मिलने के विषय में विचार न करें !

एक साधक : सेवा में जब शरीर साथ देता है, तब मन एवं बुद्धि साथ नहीं देते और जब मन एवं बुद्धि साथ देते हैं, तब शरीर साथ नहीं देता ।

प.पू. डॉक्टरजी : निरंतर भाव की स्थिति में होने से शरीर, मन एवं बुद्धि द्वारा साथ देने के विषय में समस्या नहीं आएगी । सनातन द्वारा प्रकाशित ग्रंथ ‘भावजागृति हेतु साधना’ को पढकर दिनभर भाव की स्थिति में रहने हेतु प्रयास करें । भाव होगा, तो आप आगे बढेंगे । भाव और आनंद की अनुभूति होती हो, तो और क्या चाहिए ? शब्दों में बोलने से क्या मिलेगा ? आनंद और भावजागृति ही अच्छे हैं ।

बुद्धि से अध्यात्म का कुछ सिखने की अपेक्षा भाव की स्थिति में रहना महत्त्वपूर्ण

इसका कारण यह है कि अध्यात्म बुद्धि से परे का शास्त्र है और भाव भी बुद्धि से परे का है ।

साधक का भावावस्था में रहना ही मेरे लिए आनंद की बात !

प.पू. डॉक्टरजी (तीव्र कष्ट होकर भी अनेक वर्षों से साधनारत तथा जिस में अब भाव उत्पन्न हुआ है, ऐसे साधक से पूछते हैं : आप ने स्वयं में भाव कैसे उत्पन्न किया ?

साधक : आप ही सब करवा लेते हैं । भरभरकर आनंद देते हैं; किंतु हे भगवन्, आपको आनंद मिले, ऐसे कोई भी प्रयास मुझसे नहीं होते ।

प.पू. डॉक्टरजी : आप भाव की स्थिति में हैं, यही मेरे लिए सबसे बडा आनंद है ।

(परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी साधकों की साधना हा तथा साधक आनंदित रहें; इसके लिए अखंड परिश्रम करते हैं, जिसे हम चुका नहीं सकते; किंतु हम उनके द्वारा बताए गए प्रयास निरंतर और मन से कर, साथ ही भावावस्था का अनुभव कर उन्हें थोडा तो आनंद दे सकते हैं ।)

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