परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा सिखाई गई ‘भावजागृति के प्रयास’ की प्रक्रिया ही आपातकाल में जीवित रहने के लिए संजीवनी !

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अनुक्रमणिका

श्रीचित्‌शक्‍ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ

१. स्वयं में विद्यमान दैवी गुणों को पहचानकर उसके अनुसार प्रयास करने चाहिए !

प्रत्येक व्यक्ति में भगवान के द्वारा ऐसा एक उत्तम गुण प्रदान किया गया होता है, जिसका उचित उपयोग करने से उसकी सेवा और साधना की फलोत्पत्ति बढती है । ‘वह गुण कौनसा है ?, इसका स्वयं चिंतन कर और उसके लिए अन्यों से सहायता लेकर पहचानना चाहिए और उसका उचित उपयोग कर उसके लिए तीव्रगति से प्रयास करने चाहिए ।

 

२. एक गुण के संपूर्ण समर्पण से ही भगवान का विश्व समझ में आकर
भगवान के प्रति निकटता प्रतीत होने लगना और उससे ही भावनिर्मिति होना

हमें जो आता है, वह सबकुछ भगवान को अर्पण करने का प्रयास करना चाहिए । एक गुण भी हमें बहुत कुछ सिखाता है । ‘हमने कितना सीखा ?’, इसकी अपेक्षा ‘हमने क्या सीखा ?’, इसका अधिक महत्त्व है । एक गुण के संपूर्ण समर्पण से ही हमें भगवान का विश्व समझ में आने लगता है और साधना के कारण अनंत गुणों से युक्त भगवान के प्रति हमें निकटता प्रतीत होने लगती है । इसी को ‘भगवान के प्रति भाव उत्पन्न होना’ कहते हैं ।

 

३. स्वयं में देवत्व आना

एक बार हममें भाव उत्पन्न हुआ, तो सभी गुणों के भंडार भगवान ही हमारे हृदय में आकर वास करते हैं । जब वे ही हममें विराजमान होते हैं, तब अपनेआप ही हम उनके सभी गुणों के साथ एकरूप होने लगते हैं और इसी को ‘स्वयं में देवत्व उत्पन्न होना’ कहते हैं ।

 

४. अन्यों से पूछकर कृत्य करने से भगवान प्रसन्न होकर
वे कठिन परिस्थिति में भी साधकों का पालन-पोषण करते हैं !

‘काल की गति को समझकर किया गया वर्तमानकालीन कर्म उस जीव के उद्धार के लिए प्रमाण सिद्ध होता है; इसलिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने पहले ही ‘काल के अनुसार साधना’, यह वचन बता दिया है । कभी भी कुछ भी नहीं करना चाहिए । प्रत्येक बार उन्नत पुरुषों से पूछकर ही कर्म करना चाहिए । इस गुण पर प्रसन्न होकर भगवान कठिन परिस्थिति में भी हमारा पालन-पोषण करते हैं ।

 

५. बाह्य नातों में फंसने की अपेक्षा आंतरिक नाते से मनुष्य
में विद्यमान भगवान को निकट लेने से भगवान हमें कभी दूर नहीं करेंगे

हमें बाह्य देह की अपेक्षा साधक के अंतर में विद्यमान भगवान से प्रेम करना चाहिए, जिससे कुछ कारणवश वह साधक हमारे साथ न हो, तब भी उसके विरह का हमें दुख नहीं होता । हमारा मन साधक की देह के तत्त्व से प्रेम करने का अभ्यस्थ होने से ऐसा लगता है कि वह ‘तत्त्व रूप में हमारे पास ही है ।’ इसमें अकेलेपन का दुख नहीं होता, अपितु ‘भगवान सर्वत्र होने से वह साधक भी हमारे पास ही है’, इस आनंद में हम सेवा कर सकते हैं । ‘आनेवाले आपातकाल में कौन कहां होगा ?, यह हमें ज्ञात नहीं है; इसलिए बाह्य नाते में मत फंसिए । आंतरिक नाते से मनुष्य में विद्यमान भगवान से निकटता बनाइए । ऐसा करने से भगवान कभी दूर नहीं करते ।

 

६. परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा साधकों को साधना का महामंत्र दिए
जाने से साधक आपातकाल में भी आनंदस्वरूप भगवान के सान्निध्य में आनंदित रहेंगे !

अब ईश्वर ने काल के अनुसार समाजमंथन करना आरंभ किया है । जो लोग ईश्वर की छननी से छाने जाएंगे, वही जाकर आनेवाले कठिन काल में बचेंगे । अब सभी को सबकुछ त्यागना पडेगा । साधकों ने पहले ही तन, मन और धन का त्याग किया है; इसलिए साधकों को इस कठिन काल का कुछ नहीं लगेगा; क्योंकि उनके पास कुछ है ही नहीं, तो उनके लिए गंवाने के लिए कुछ नहीं है; परंतु आपातकाल में सामान्य लोगों को बहुत कष्ट सहने पडेंगे । उन्हें अपना सर्वस्व गंवाने का दुख होगा । ‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने साधकों को साधना का महामंत्र दिया है; इसलिए वे आपातकाल में भी आनंदस्वरूप भगवान के सान्निध्य में आनंदित रहेंगे’, इसमें कोई संदेह नहीं है ।’

 

७. ‘भावजागृति के प्रयास करना’, यह परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा
सिखाई गई प्रक्रिया ही आपातकाल में जीवित रहने के लिए संजीवनी सिद्ध होगी

गुरुदेवजी ने हमें जो भाव दिया है, उसे हमें आपातकाल में निरंतर जागृत रखना होगा । ‘जहां भाव, वहां भगवान’, इस वचन के अनुसार ‘भावजागृति के प्रयास करना’, यह परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा सिखाई गई प्रक्रिया ही आपातकाल में जीवित रहने के लिए संजीवनी सिद्ध होगी । उसका नाम ही ‘आंतरिक संजीवनी’ है । आंतरिक संजीवनी के कारण आपातकाल में देह के साथ प्राणों की भी रक्षा होनेवाली है ।

 

८. मानव-निर्मित बातें क्षणिक आनंद देती हैं;
परंतु भगवान की निर्मिति में शाश्वत आनंद होना

‘आपकी दृष्टि सुंदर होनी चाहिए । तब मार्ग पर स्थित पत्थरों, मिट्टी, पत्तों और फूलों में भी आपको भगवान दिखाई देंगे; क्योंकि प्रत्येक बात के निर्माता भगवान ही हैं । भगवान द्वारा निर्मित आनंद शाश्वत होता है; परंतु मानव-निर्मित प्रत्येक बात क्षणिक आनंद देनेवाली होती है । क्षणिक आनंद का नाम ‘सुख’ है ।

– श्रीचित्‌शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (४.४.२०२०)

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