नवविधा भक्ति : दास्य भक्ति

ईश्‍वर को मन से स्वामी स्वीकार कर स्वयं को उनका दास समझना दास्य भक्ति है । ईश्‍वर की सेवा कर प्रसन्न होना । भगवान को अपना सर्वस्व मान लेना ‘दास्य भक्ति’ कहलाता है । हनुमानजी और लक्ष्मणजी दास्य भाव के भक्त हैं । इसमें भक्त जो भी करता है, पूजा, अर्चना, किसी मंदिर की सेवा, ईश्‍वर का कीर्तन अथवा वंदन, वह यही समझकर करता है कि मैं ईश्‍वर का तुच्छ सेवक हूं । तन, मन, धन, वाणी आदि से स्वयं का ईश्‍वर की सेवा में समर्पित करने को आतुर रहता है । हम कोई भी भक्ति करें, उसमें दास्य भाव का होना आवश्यक है । तभी हमारे अहं का नाश होकर भक्त ईश्‍वर की कृपा का पात्र बनता है ।

हम सभी को पता है कि हनुमानजी की रामजी के प्रति भक्ति दास्यभक्ति का सबसे श्रेष्ठ उदाहरण है । ऋष्यमूक पर्वत पर भगवान राम और हनुमानजी की जब पहली भेंट हुई और रामसेवक हनुमानजी ने रामचरणों में अपना देह अर्पण किया । हनुमानजी की दास्यभक्ति ने उन्हें श्रीरामजी के हृदय में चिरस्थान दिया । वह अपने प्रभु के हित के लिए कभी भी प्राण अर्पण करने के लिए तैयार थे । श्रीरामजी की सेवा के आगे उन्हें मोक्ष की इच्छा भी कौडी के मोल लगती है । हनुमान अर्थात सेवक और सैनिक का मिश्रण हैं । अर्थात हनुमान भक्ति और शक्ति का संगम हैं ।

हम भी हनुमानजी से यह सीखेंगे और अपनी उपास्यदेवता, इष्टदेवता अथवा कुलदेवता के इसी प्रकार शरण जाने का प्रयास करेंगे । कारण वही तो हमारी रक्षा करती हैं ।

आश्‍चर्य है कि इतने प्रचंड शक्ति से संपन्न, सदगुणों के आश्रयस्थान, साक्षात नम्रता के प्रतीक, ऐसे हनुमानजी राजाओं के भी सम्राट हो सकते थे, ऐसा होने पर भी उन्होंने श्रीरामजी की दास्यता स्वीकारी । राम ही उनके प्राण हैं । ऐसी थी हनुमान जी की दास्य भक्ति ।

 

स्वयं का श्रीराम जी का दास कहकर परिचय करवाने वाले हनुमान !

स्वयं एक उच्च देवता होते हुए भी अपना देवत्व न स्वीकार कर रामजी की भक्ति कर स्वयं को ‘रामदास’ कहलाने में श्रीहनुमानजी ने अपना गौरव अनुभव किया । जिस समय अशोकवाटिका से हनुमानजी को बंदी बनाकर राजदरबार में रावण के सामने खडा किया गया, उस समय राक्षसों ने उनसे पूछा ‘तू कौन है ? अपना परिचय बता ।’ प्रत्यक्ष में श्रीहनुमान ११वें रुद्र, सूर्यनारायण भगवान के शिष्य, वायुपुत्र, वानरराज केसरी के राजपुत्र, सुग्रीव के मंत्री और प्रभु श्रीराम के परम भक्त थे; परंतु उन्होंने स्वयं का इनमें से कोई भी परिचय नहीं बताया । उन्होंने क्या कहा ? कि, ‘मैं त्रिलोकी पति प्रभु श्रीरामचंद्र का दास और सेवक हुनमान हूं और रावण के पास श्रीराम का दूत बनकर आया हूं ।’

हनुमानजी की पूर्ण श्रद्धा थी कि स्वयं में जो भी सामर्थ्य है, अपना जो भी प्रभाव है, वह सब श्रीराम जी की कृपा का ही परिणाम है । वह श्रीराम की कृपा ही है । हनुमान जी स्वयं को श्री राम प्रभु का सेवक समझते हैं और आज भी अदृश्य स्वरूप में भी राम जी के दास ही हैं ।

 

राम सेवा ही उनका जीवन

‘हनुमानजी को किसी भी प्रकार की आवश्यकता नहीं थी । संक्षेप में हनुमानजी का जीवन स्वयं के लिए था ही नहीं । राम सेवा यही उनका जीवन था । श्री राम प्रभु स्वयं हनुमानजी से कहते हैं कि सुग्रीव और विभीषण की दृष्टि सिंहासन पर थी । इसके लिए उन्हें मेरी सहायता चाहिए थी, इसलिए उन्होंने मेरी सहायता की । किंतु हनुमान जी की एक ही उत्कट इच्छा थी वह है राम सेवा । रामसेवा के लिए उनका अंतकरण तडपता ही रहता था ।

 

हनुमानजी की भक्ति ही उनकी शक्ति है ।

हनुमानजी पूर्ण आत्मविश्‍वास से कहते हैं,

न मे समा रावणकोट्योऽधमाः ।
रामस्य दासोऽहम् अपारविक्रमः ।।

अर्थ : करोड़ों रावण भी पराक्रम में मेरी बराबरी नहीं कर कर सकते, इसलिए नहीं कि मैं बजरंगबली हूं, अपितु इसलिए कि प्रभु श्रीराम मेरे स्वामी हैं, मुझे उन्हीं से अपरंपार शक्ति प्राप्त होती है ।

ज्ञानी हनुमानजी ने श्रीरामजी के साथ उनके संबंध का इस प्रकार वर्णन किया है

 

सर्वोच्च स्तर के भक्त का भगवान में विलीन होना

‘एक बार श्रीराम ने हनुमान से पूछा कि आपमें और मुझमें क्या संबंध है ?’

हनुमानजी ने श्रीरामजी से कहा,

‘देहदृष्ट्या तू दासोऽहं जीवदृष्ट्या त्वदंशकः ।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्‍चला मतिः ।।

अर्थ :
१. देह दृष्टि से मैं आपका दास हूं । आप जो कहेंगे मैं वह करूंगा (कर्मयोग)
२. जीव दृष्टि से मैं आपका अंश हूं (भक्ति योग)
३. आत्मदृष्टि से आप और मैं एक ही हैं; क्योंकि सभी की आत्मा एक ही है (ज्ञानयोग)

यदृच्छया लब्धमपि विष्णोर्दाशरथेस्तु यः ।
नैच्छन्मोक्षं विना दास्यं तस्मै हनुमते नमः ।। – भक्तिरसामृतसिन्धु,

अर्थ : साक्षात श्री विष्णु का अवतार रहे दशरथ पुत्र श्रीरामजी से अनायास ही मोक्ष मिलना संभव होने पर भी उनका दास होकर रहना ही स्वीकार करनेवाले हनुमानजी को मेरा नमस्कार है ।

 

गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी हनुमानजी की दास्य भक्ति की महिमा इस प्रकार बताते हैं ।

दाशरथी श्रीरामजी का ‘दास्यत्व’ परमभाग्य से हनुमानजी को मिला । अब उन्हें मोक्ष की भी इच्छा नहीं । अब केवल ‘दास्यत्व’ ‘रामजी का दास्यत्व’ यही उनका वैभव है । रामजी का दास्यत्व ही उनका ज्ञान-विज्ञान है । रामजी का दास्यत्व ही उनका सुख है । वही उनका परमभोग, वही परमशांति, वही कैवल्य है और वही परम मुक्ति है ।’– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (साप्ताहिक सनातन चिंतन, १८.११.२०१०)

हनुमानजी के इन प्रसंगों से उनके दास्यभाव, शरणागत भाव और उनका अपार कृतज्ञताभाव हमें अनुभव करने मिला है । हनुमानजी सर्व सामर्थ्यशाली, सर्व गुण संपन्न व महान ज्ञानी होते हुए भी कितने विनम्र भाव से स्वयं को श्रीरामजी की सेवा में लीन रखते हैं ।

 

दास्य भक्ति का अनुपम उदाहरण

सीताजी का प्रेम श्रीरामजी के प्रति ऐसा उच्च कोटि का प्रेम है जिसमें पत्नी दास्य-भाव में आकर पति के चरण-कमलों को दबाती हैं, उनकी एक दास की भांति सेवा करना चाहती हैं । यहां भक्ति की श्रेष्ठता है, उनके प्रेम में अभिमान और अद्वैत का लेश-मात्र भी अंश नहीं है, इसलिए कि उनकी प्रेममयी भक्ति दास्यभाव से भरी है । सीताजी सदा अपने पति के चरणों की सेवा करना चाहती हैं । वे इसीसे अपने प्राणधन को संतुष्ट करना चाहती हैं । वे श्रीराम से एकरूप होते हुए भी भक्ति के कारण भगवान से एकत्व भाव में नहीं आतीं । वे स्वयं भगवान राम की अर्धांगिनी हैं और सकल सृष्टि की स्वामिनी हैं । उनकी भक्ति श्रीराम को भी अपने प्रेम के वश में रखनेवाली है, परंतु इसका उन्हें तनिक भी अहं नहीं है । अतः भगवान श्रीराम को कभी भी सीताजी में गर्व देखने नहीं मिला । सीताजी विनती करती हैं –

तौ भगवानु सकल उर बासी । करिहि मोहि रघुबर कै दासी ॥
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ॥

भावार्थ – सबके हृदय में वास करनेवाले भगवान, मुझे रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी की दासी बनने का सौभाग्य प्रदान करें । जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कोई संदेह नहीं ।

यहां वह भगवानके आगे दास की भांति याचना कर रही हैं । इससे हमें सीखने मिलता है कि सीताजी सर्वगुण संपन्न, राम की शक्ति होते हुए भी उनमें पराकोटि की लीनता, नम्रता और दास्य भाव है ।

वनप्रस्थान से पहले सीताजी प्रभु से कहती हैं –

पाय पखारि बैठि तरु छाहीं । करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं ॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें । कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें ॥

भावार्थ – आपके पैर धोकर, पेडों की छाया में बैठकर मैं प्रसन्नचित्त से पंखा झलूंगी । पसीने की बूंदों सहित श्याम शरीर प्राणपति के दर्शन करते दुःख के लिए मुझे समय ही कहां रहेगा ।

सम महि तृन तरुपल्लव डासी । पाय पलोटिहि सब निसि दासी ॥
बार बार मृदु मूरति जोही । लागिहि तात बयारि न मोही ॥

भावार्थ – समतल भूमि पर घास और पेडों के पत्ते बिछाकर यह दासी रातभर आपके चरण दबाएगी । बार-बार आपकी कोमल मूर्ति को देखकर मुझको गरम हवा स्पर्श भी न करेगी ।

माता सीता का सेवाभाव की पराकाष्ठा कितनी है, रामजी की भक्ति में अपने को पूर्णत: उनके चरणों में समर्पित करना चाहती हैं । इसमें ही उनको आनंद मिलता है । सीता माता से हमें सीखने मिलता है कि दास्य भक्ति में भक्त को देवता की शरण जाना आवश्यक है । हम सीता माता के श्रीचरणों में याचना करेंगे कि हे सीता माते ! जैसे आपकी दास्य भक्ति है, वैसी दास्य भक्ति हममें भी बढने दें ।

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