पूजाविधि के संदर्भ में शंकानिरसन – भाग २

१. गंधाक्षत, अष्टगंध, तिलक (चंदन), रक्तचंदन,
हलदी, कुमकुम, बुक्का एवं सिंदूर का महत्त्व क्या है ?

इनमें ब्रह्मांड के तत्त्व को आकृष्ट करने, अच्छी तरंगों को ग्रहण एवं प्रक्षेपित करने की क्षमता होती है ।
(गंध, हलदी, कुमकुम, सिंदूर, बुक्का एवं अक्षत अपनेआप को तथा दूसरों को लगाने का कृत्य तथा उसका शास्त्रीय आधार, इस संबंधी जानकारी सनातन के ग्रंथ ‘पूजापूर्व आवश्यक व्यक्तिगत सिद्धता’ में दी है ।)

२. पान का पत्ता एवं सुपारी का महत्त्व क्या है ?

१. पान के पत्तों का ब्रह्मलोक की सूक्ष्म वायु-तरंगों के गुणों से साधम्र्य होता है । पान के पत्तों के रंगकणों के घर्षण से उत्पन्न होनेवाली सूक्ष्म वायु-तरंगें ब्रह्मलोक के सूक्ष्म वायुतरंगों के गुणों से साधम्र्य दर्शाती हैं । देवता की मूर्ति से प्रक्षेपित सात्त्विक-तरंगें पान के पत्ते के डंठल से ग्रहण की जाती हैं । इससे पत्तों के रंगकणों में होनेवाली गतिविधि से उत्पन्न सूक्ष्म वायु पत्तों के आपतत्त्व-संबंधी कणोंद्वारा पत्तों के अग्र भाग की ओर प्रवाहित की जाती है और वहां से वातावरण में प्रक्षेपित होती है । इन वायु-तरंगों में ब्रह्मांड में कार्यरत आवश्यक देवता की इच्छा-तरंगों को जागृत करने की क्षमता होती है । इन तरंगों के कारण जीव के मनोमयकोष की शुद्धि होती है एवं जीव को इच्छित फलप्राप्ति होती है ।

३. देवता के पूजन में पान के पत्तेपर सिक्का एवं
सुपारी रखकर देवता का आवाहन क्यों किया जाता है ?

पूजा में रखी हुई सुपारी, सिक्का एवं पान की ओर पूजा में आवाहित देवता के तत्त्व का प्रवाह आकृष्ट होता है ।’ सुपारी देवताओं से जीव की ओर प्रक्षेपित चैतन्य के आदान-प्रदान में मुख्य कडी है ।

४. नारियल का महत्त्व क्या है ?
इसे श्रीफल अर्थात् सर्वाधिक शुभफल क्यों कहा जाता है ?

‘नारियल में शिव, दुर्गा, गणपति, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण, इन पांच देवताओं की तरंगें आकृष्ट करने की एवं उन्हें आवश्यकता के अनुसार प्रक्षेपित करने की क्षमता है । इसलिए नारियल को सर्वाधिक शुभ फल अर्थात् श्रीफल, सर्वाधिक सात्त्विकता प्रदान करनेवाला फल कहते हैं ।’

इसके साथ ही नारियल में कल्याणकारी तरंगों समान अनिष्ट तरंगों को भी आकृष्ट करने की क्षमता होती है । अनिष्ट शक्ति से पीडित व्यक्ति के कष्ट को दूर करने के लिए नारियल से उसकी कुदृष्टि (नजर) उतारी जाती है । इसी प्रकार नारियल फोडते समय उसमें से मारक-मंत्र ‘ॐ फट्’ जैसी ध्वनि निकलती है, जिससे अनिष्ट शक्तियां दूर भागती हैं ।

५. अगरबत्ती जलाने का क्या महत्त्व है ? उसकी विभूति से क्या लाभ है ?

‘देवताओं में पंचतत्त्व होते हैं; उनमेंसे पृथ्वीतत्त्व से गंध प्रक्षेपित होती है । यह गंध अति सूक्ष्म होती है, इसलिए वह सामान्य जीवद्वारा ग्रहण नहीं की जा सकती । अगरबत्ती में देवताओं से प्रक्षेपित सूक्ष्म-गंध ग्रहण करने की क्षमता है । इसलिए अगरबत्ती लगानेपर उससे उसकी सुगंध के साथ-साथ उक्त सूक्ष्म-गंध भी प्रक्षेपित होती है, उदा. चंदन की अगरबत्ती लगानेपर अगरबत्ती की सुगंध के साथ देवताओं से आकृष्ट चंदन की सूक्ष्म-गंध भी प्रक्षेपित होती है । अगरबत्ती की एक और विशेषता यह है कि वह आवश्यक देवता के तत्त्व को उनके गंध के रूप में स्वयं ग्रहण कर उसे प्रक्षेपित करती है, उदा. केवडे की अगरबत्ती से साधकों को चंदन के सूक्ष्म-गंध की अनुभूति होती है ।’

अगरबत्ती की विभूति के लाभ : अगरबत्ती के जलने से उत्पन्न राखको विभूति कहते हैं । विभूति अत्यधिक सात्त्विक एवं विविध गुणों से संपन्न होती है । सात्त्विकता बढाने हेतु तथा अनिष्ट शक्तियों के कष्टों के निवारण हेतु इसका प्रयोग किया जाता है ।’

६. धूप अनिष्ट शक्तियों द्वारा हो रहे कष्ट
को कम करने में धूप जलाने का क्या महत्त्व है ?

‘धूप की सुगंध तीव्र होती है । यह सुगंध मारक रूप का कार्य करती है । इस सुगंध से विशिष्ट देवता का तत्त्व कार्यरत होकर, वह धूप के धुएं के माध्यम से सूक्ष्म-शस्त्रों का रूप लेकर वातावरण के रज-तम से लडती है, जिससे वातावरण में सत्त्वगुण की प्रबलता बढ जाती है और स्वाभाविक ही वातावरण तथा वास्तु की शुाqद्ध होती है । वातावरण में देवताओंद्वारा प्रक्षेपित सूक्ष्मतम-तरंगें अत्यधिक मात्रा में ग्रहण की जाती हैं । इस कारण वास्तु एवं वातावरण में अनिष्ट शक्तियों का कष्ट हो, तो वह ३० प्रतिशत तक न्यून (कम) हो जाता है । इस प्रकार भगवान का कार्य करते समय अनिष्ट शक्तियों की बाधा न्यून हो जाती है । इस हेतु पूजा अथवा आरती से पहले धूप दिखाना उचित होता है ।’

‘धूप दिखाने से पूजास्थल के सर्व ओर वायुमंडल की कष्टदायक तरंगों का समूल नाश होता है । इस कारण देवता से जीव की ओर सात्त्विक चैतन्य के प्रक्षेपण में उत्पन्न बाधाएं दूर होती हैं एवं जीव देवता के चैतन्य को अल्प कालावधि में ग्रहण कर पाता है ।’

७. कर्पूर जलाने का महत्त्व क्या है ?

‘कर्पूर जलाने से उत्पन्न सूक्ष्म-वायु की उग्र गंध में शिवगणों को आकृष्ट करने की क्षमता अधिक होती है । वास्तु में कनिष्ठ अनिष्ट शक्तियों को नियंत्रित रखने का कार्य शिवगण करते हैं । वास्तु में विद्यमान शिवगणों के अस्तित्व से स्थानदेवता एवं वास्तुदेवता के आशीर्वाद प्राप्त करने में सहायता मिलती है । कर्पूर की उग्र गंध से प्रक्षेपित सूक्ष्म गंध-तरंगोंद्वारा निर्मित वायुमंडल शिवलोक के वायुमंडल की उग्र गंध से साधम्र्य दर्शाता है । इन गंध-तरंगों से युक्त वायुमंडल की ओर ब्रह्मांड में विद्यमान शिवतत्त्व की तरंगें आकृष्ट होती हैं और वास्तु में विद्यमान अनिष्ट शक्तियों के संचारपर अंकुश लगता है । पूजाविधि के माध्यम से होनेवाले सात्त्विक तरंगों के प्रक्षेपण में कष्टदायक तरंगों की बाधा को दूर कर वातावरण को चैतन्यमय बनाए रखने में पूजाविधि सहायक होती है एवं उससे वातावरण की शुद्धि भी होती है ।’

‘कर्पूर में सुगंध अर्थात् पृथ्वीतत्त्व होता है । कर्पूर जलानेपर उसका तेजतत्त्व प्रगट होता है । सुगंध एवं अग्नि के माध्यम से कर्पूर में विद्यमान शिवतत्त्व वातावरण में प्रचूर मात्रा में कार्यरत होकर, वातावरण की सात्त्विकता को बढाता है । कर्पूर की सुगंध के कारण श्वासद्वारा शरीर में शिवतत्त्व प्रवेश करता है और वह श्वसनमार्ग की काली शक्ति एवं कष्टदायक वायु को नष्ट करता है । कर्पूर की सुगंध के कारण श्वसन के विकार घट जाते हैं ।’

८. प्रत्येक देवता का नैवेद्य निर्धारित क्यों होता है ?

उस देवता को वह नैवेद्य प्रिय होता है, उदा. श्रीविष्णु को खीर अथवा सूजी का हलवा, गणेशजी को मोदक, देवी को पायस (गुड की खीर) इत्यादि । उस विशिष्ट नैवेद्य में उस विशिष्ट देवता की शक्ति अधिक आकृष्ट होती है । तदुपरांत वह नैवेद्य, अर्थात् प्रसाद हमारे द्वारा ग्रहण किए जानेपर उसकी शक्ति हमें प्राप्त होती है ।

९. पूजा में दक्षिणा क्यों रखी जाती है ?

‘दक्षिणा रखने से जीव में त्याग की भावना उत्पन्न होती है । त्याग से ही विरक्ति की भावना उत्पन्न होती है एवं विरक्ति से वैराग्य उत्पन्न होता है । वैराग्य भाव के कारण माया में रहते हुए भी जीव के लिए ईश्वरीय सायुज्य अखंड रूप से बनाए रखना संभव होता है । हिन्दू धर्म का मूल त्याग में छुपा है । दक्षिणा देकर त्याग सीखना कर्मकांड की पहली सीढी है । इसीलिए दक्षिणा देने का महत्त्व अनन्य है । दक्षिणा को (धन को) लक्ष्मीरूप, अर्थात् शक्तिस्वरूप मानकर उसकी पूजा करें । इससे हमारे किसी भी कर्म को शक्ति की संधि मिलकर, वह अकर्म-कर्म बन जाता है । उस कर्म से प्राप्त फल, लेन-देन निर्मित न कर, पुण्य कर्म में जमा होता है ।

१०. दक्षिणा को सुपारी अथवा नारियल सहित पान के दो पत्तोंपर क्यों रखना चाहिए ?

दक्षिणा कभी भी अकेले नहीं दी जाती । सुपारी अथवा नारियल को पान के पत्तोंपर रखकर देना महत्त्वपूर्ण है । इस प्रक्रिया में दक्षिणा शक्तिरूप में तथा सुपारी अथवा नारियल शिवरूप में कार्य करते हैं । शिव-शक्ति को उनके कार्य के लिए पान के पत्तों की कर्मभूमि दी जाती है, अर्थात् उन्हें एक प्रकार से आसन ही दिया जाता है । पान के पत्ते सदा दो रखे जाते हैं; दो पत्ते शिव-शक्ति के कार्य के द्वैत को दर्शाते हैं । इस प्रकार शिव-शक्ति को सुपारी अथवा नारियल एवं दक्षिणा के (धन के) रूप में पान के पत्तों की कर्मभूमिपर आसनस्थ करना चाहिए । उनका उचित आदर रख, उन्हें सगुण में कार्य करने की प्रार्थना करनी चाहिए ।’

संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ ‘पूजासामग्री का महत्त्व’

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