पूजा की थाली में विभिन्न घटकों की रचना किस प्रकार करें ?

१. पूजासामग्री का महत्त्व क्या है ?

देवतापूजन में पूजासामग्री होना आवश्यक ही है । धार्मिक कृत्यों में सहायक यह घटक धार्मिक कृत्यों के माध्यम से ईश्वरीय कृपा प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण कडी है । इस प्रत्येक घटक का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व समझ लेने से, इन घटकों के प्रति मन में भाव उत्पन्न होता है और धार्मिक एवं सामाजिक कृत्य अधिक भावपूर्वक हो पाते हैं ।

२. पूजा की थाली में विभिन्न घटकों की रचना किस प्रकार करें ?

प्रत्यक्ष में देवतापूजन आरंभ करने से पूर्व, पूजनसामग्री एवं अन्य घटकों की संरचना उचित ढंग से करनी आवश्यक है । उक्त संरचना यदि पंचतत्त्वों के स्तरपर आधारित होगी, तो वह अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टिकोण से उचित होगी । इसलिए कि ऐसी संरचना से ब्रह्मांड में कार्यरत पंचतत्त्वों का उचित संतुलन एवं नियमन होकर, जीव को देवता से प्रक्षेपित सगुण एवं निर्गुण तरंगों का अधिकाधिक लाभ मिलता है ।

अ. ‘थाली में पूजक की दाहिनी ओर हलदी-कुमकुम एवं बार्इं ओर बुक्का, गुलाल और सिंदूर रखें ।

आ. पूजक थाली में सामने इतर (इत्र)की डिब्बी, उसके नीचे तिलक (चंदन)की छोटी थाली और पुष्प, दूर्वा एवं पत्री रखे । इतर, तिलक एवं पुष्प के गंधकणों के कारण तथा दूर्वा एवं पत्री के रंगकणों के कारण देवताओं की सूक्ष्म तरंगें कार्यरत होती हैं ।

इ. थाली में नीचे की दिशा में पान-सुपारी एवं दक्षिणा रखें; क्योंकि पान-सुपारी देवताओं की तरंगें प्रक्षेपित करने का एक प्रभावी माध्यम है।

ई. मध्य भाग में सर्वसमावेशक अक्षत रखें । अक्षत के थाली का केंद्रबिंदु बनने से उसकी ओर शिव, श्री दुर्गादेवी, श्रीराम, श्रीकृष्ण एवं श्री गणपति, इन पांच उच्च देवताओं की तत्त्व-तरंगें आकर्षित होती हैं । ये तरंगें आवश्यकतानुसार उसके सर्व ओर गोलाकार में रखे कुमकुम, हलदी इत्यादि की ओर प्रक्षेपित की जाती हैं ।’

३. पूजासामग्री के कुछ घटकों का महत्त्व एवं विशेषताएं

३ अ. सप्तनदियों के जल का क्या महत्त्व है ?

सप्तनदियों का जल अर्थात् गंगा, गोदावरी, यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरी एवं नर्मदा के एकत्रित जल को पूजा के कलश में डालते हैं ।
‘सप्तनदियों के जल में ब्रह्मांड के सात उच्च देवताओं की तरंगों को आकृष्ट एवं प्रक्षेपित करने की क्षमता होती है । भारतभूमि को सर्वाधिक सात्त्विक भूमि माना जाता है; क्योंकि इस भूमिपर ये सात नदियां प्रवाहित होती हैं । अधिकांश योगियों ने ब्रह्मांड के सातों उच्च देवताओं के तत्त्वों को प्राप्त करने हेतु इन नदियों के तटपर तपस्या की । पूजा के कलश में डाले गए जल से हम देवता की मूर्ति का अभिषेक करते हैं । कलश का जल तीर्थ के रूप में भक्तिभाव से ग्रहण करनेपर जीव को पूजा करने का सात्त्विक संतोष प्राप्त होता है एवं परिणामस्वरूप मन आनंदित एवं उल्लासित होता है ।

वर्तमान काल में सप्तनदियों का जल सरलता से उपलब्ध नहीं होता । पूजा हेतु कलश में डालने के लिए सप्तनदियों का जल उपलब्ध न हो, तो सामान्य जल का प्रयोग करते हैं । यह जल डालते समय ‘गंगे च यमुनेचैव ।’ इस मंत्र का उच्चारण कर सप्तनदियों का आवाहन किया जाता है ।

३ आ. पूजा विधि में हलदी-कुमकुम का क्या महत्त्व है ?

‘हलदी धरती के नीचे उगती है, इसलिए धरतीपर उगनेवाली वस्तुओं की अपेक्षा हलदी में भूमि तरंगों की मात्रा बहुत अधिक होती है । कुमकुम हलदी से ही बनाया जाता है । देवता को हलदी-कुमकुम चढाने से देवता द्वारा प्राप्त तरंगों के साथ हलदी-कुमकुम की भूमि तरंगों का लाभ पूजक को होता है, जिससे उपासक की सात्त्विकता में वृद्धि होती है तथा वातावरण के अन्य रज-तम (कष्टदायक) तरंगों को सहने की क्षमता बढती है ।’

शुद्ध कुमकुम को कैसे पहचानें ? : ‘शुद्ध हलदी, चूने का निथरा हुआ जल एवं थोडे से शुद्ध कर्पूर द्वारा शुद्ध कुमकुम बनाया जाता है । यद्यपि यह कुमकुम हलदी से बना है, फिर भी इस कुमकुम में हलदी की सुगंध पूर्णरूप से नष्ट हो जाती है एवं उसके स्थान पर दैवी सुगंध निर्मित होकर सर्वत्र फैल जाती है । हलदी की सुगंध का बोध उसे सूंघनेपर होता है; परंतु शुद्ध कुमकुम की सुगंध एक निश्चित दूरीतक फैलती है । आद्र्रता होते हुए भी शुद्ध कुमकुम पूर्णरूप से सूखा होता है । उसका स्पर्श बर्फ समान ठंंडा होता है । शुद्ध कुमकुम रक्तवर्ण का होता है; इसलिए उसमें लौह घटक की मात्रा अधिक होती है । इस कुमकुम को माथेपर लगाने से अनिष्ट शक्तियां भ्रूमध्य से प्रवेश नहीं कर सकतीं ।

प्राचीन काल (सत्ययुग, त्रेतायुग एवं द्वापरयुग) में शुद्ध कुमकुम मिलता था; परंतु युगानुसार कुमकुम की सात्त्विकता घटती गई । वर्तमान कलियुग में गिने-चुने लोग ही सात्त्विक कुमकुम बनाते हैं ।’

सिंदूर का महत्त्व क्या है ? : सिंदूर का उपयोग हनुमानजी की पूजा में किया जाता है । सिंदूर में तेल मिलाकर हनुमानजी की मूर्तिपर लेप किया जाता है । इस कारण हनुमानजी की मूर्ति में विद्यमान मारक तत्त्व इस सिंदूर में आकृष्ट होकर उसी में संचित रहता है ।’

३ इ. गुलाल की विशेषता क्या है ?

‘गुलाल से निर्मित सूक्ष्म-वायु की गंंध-तरंगों की ओर ब्रह्मांड से शक्तितत्त्व आकृष्ट होता है । उसी प्रकार, गुलाल के कारण वायुमंडल की चैतन्ययुक्त सुप्ततरंगें प्रवाही बन जाती हैं और इसका लाभ पूजक को मिलता है ।’

३ ई. बुक्का क्या होता है ? प्रमुखरूप से कौन-से देवता की पूजाविधि में इसका उपयोग होता है ?

बुक्का काले रंग का सुगंधित चूर्ण है जिसका उपयोग अधिकांशतः महाराष्ट्र में विट्ठल देवता की पूजा में किया जाता हैै । यज्ञ की विभूति में, घी के दीये से निर्मित सााqत्त्वक तेजरूपी काजल मिलानेपर बुक्का बनता है । बुक्के को प्रक्षोेभक माना जाता है । ‘प्रक्षोभक’का अर्थ है, ‘विध्वंसकारी बीजों को अपने मारक सामथ्र्य से धराशायी करनेवाला ।’ बुक्के में विद्यमान विभूति के चैतन्य को घी के काजल में विद्यमान रजोगुण की जोड मिलनेपर उससे प्रक्षेपित चैतन्य प्रक्षोभक, अर्थात् वायुमंडलपर मारक तत्त्वरूपी परिणाम करता है । इससे वातावरण के रज-तम कणों की संचार प्रक्रिया प्रतिबंधित होती है ।

३ उ. पूजाविधि में उपयोगी अष्टगंध कितने प्रकार के होते हैं ?

अष्टगंध में केशर, कपूर, अगर (एक सुगंधी वनस्पती), तगर, कस्तूरी, अंबर (एक झाड), गोरोचन (गाय के पेट में से पित्त की पथरी) एवं रक्तचंदन, इन आठ प्रकार की गंधों का समावेश होता है ।

३ ऊ. चंदन की क्या विशेषताएं हैं ?

चंदनं शीतलं रूक्षं तिक्तमाह्लादनं लघु । श्रमशोषविषश्लेष्मतृष्णापित्तास्रदाहनुत् ।।
– भावप्रकाशनिघण्टु, वर्ग २, श्लोक १३

अर्थ : ‘चंदन’ शीतल, रूक्ष एवं स्वाद में कडवा होता है तथा पचने में हलका एवं आह्लाददायक होता है । यह श्रम, क्षय, विष, कफ, तृषा (प्यास), रक्तपित्त एवं दाह का नाशक है ।

चंदन कितने प्रकार का होता है ?

लाल चंदन, रक्तचंदन, सफेद चंदन, पीला चंदन, शबर चंदन, पतंग चंदन, पर्वर चंदन एवं हरि चंदन ।

रक्तचंदन के क्या उपयोग हैं ?

१. गायत्री मंत्र के उपासकों के लिए उपयुक्त : ‘रक्तचंदन मूलतः ही तेजोमय है, इसलिए गायत्री मंत्र के उपासकों के लिए इसका उपयोग लाभकारी है ।

२. काले शक्तिबीजों के नाश के लिए उपयुक्त : रक्तचंदन के लेप से जीव की सूर्यनाडी कार्यरत होती है एवं उसके शरीर में तेजकणों की वृद्धि होती है । यह बढा हुआ तेज जीव की आत्मशक्ति जाग्रत कर उसके शरीर में विद्यमान काले शक्तिबीजों का नाश करता है ।

३. संकट दूर करने के लिए जिस देवता की मनौती मांगी गई है, उन्हें लेप करना : परिवार का संकट दूर करने के लिए देवता से मनौती मांगी जाती है । उस समय उन्हें रक्तचंदन का लेप लगाकर उनमें विद्यमान पृथ्वी एवं तेज के संयोग से कार्यरत सगुण तत्त्व जाग्रत किया जाता है तथा उस तत्त्व की सहायता से इच्छित अनिष्ट परिणामों को नष्ट कर परिवार को संकटमुक्त करने का प्रयत्न किया जाता है ।

४. वास्तु की अनिष्ट शक्तियों से रक्षा हेतु आसरा (एक कनिष्ठ देवी) एवं स्थानदेवता की प्रतिमाओं को लेप करना : आसरा एवं स्थानदेवता की प्रतिमाओं को रक्तचंदन का लेप लगाकर प्रार्थना करनेपर उनका तेजतत्त्वरूपी शक्तितत्त्व जाग्रत होकर वास्तु में संचार करनेवाली अनिष्ट शक्तियों को नियंत्रित किया जाता है ।

५. त्वचापर दिखाई देनेवाले करनी के लक्षणोंपर लेप लगाना : साधारणतः मारण कर्म में रक्तचंदन का उपयोग किया जाता है । करनी के (टिप्पणी) कष्ट में शरीरपर लाल फुन्सियां उभरना, गुणाकार का चिह्न उभरना, स्त्री की आकृति उभरना जैसे लक्षण दिखाई देते हैं । शरीर के उस भागपर रक्तचंदन का लेप लगाने से करनी के ये लक्षण घटकर त्वचा में विद्यमान काली शक्ति के बीज नष्ट होने में सहायता मिलती है ।’

टिप्पणी १ – गुडिया, नींबू, टाचनी इत्यादि घटकों को माध्यम बनाकर उसपर विशिष्ट मंत्र का प्रयोग कर काली शक्ति व्यक्ति की ओर प्रक्षेपित कर उसे कष्ट पहुंचाने का प्रयास किया जाता है ।

चंदन को घिसते समय हलदी-कुमकुम का प्रयोग क्यों नहीं करना चाहिए ?

चंदन को घिसते समय उसमें हलदी-कुमकुम मिलाने से, हलदी एवं कुमकुम से प्रक्षेपित रजोगुणी तरंगों के कारण तथा कुमकुम से प्रक्षेपित तेजतत्त्व के कणों के कारण, चंदन के सत्त्वकणों का विघटन होता है । इससे चंदन की सात्त्विकता नष्ट हो जाती है, अर्थात् हलदी एवं कुमकुम के कारण चंदन रजोगुणी बनता है । चंदन को घिसने की घर्षण प्रक्रिया से हलदी एवं कुमकुम के रजकणों की गतिविधि को वेग प्राप्त होता है तथा चंदन में शेष सात्त्विक कणों का भी ह्रास हो सकता है । इस कारण चंदन घिसते समय, उसमें हलदी-कुमकुम नहीं मिलाना चाहिए ।’

३ ओ. पूजाविधि में इतर (इत्र) का क्या स्थान है ?
देवताओं को उग्र गंध के इतर अर्पित नहीं करना चाहिए ! ऐसा क्यों ?

‘देवता गंधप्रिय एवं नादप्रिय होते हैं । गंध-तरंगें पृथ्वीतत्त्व से संबंधित होती हैं । इस कारण वे जीव को प्रत्यक्ष स्थूलदेह के स्तरपर चैतन्य का लाभ प्राप्त करवाती हैं । जहांतक संभव हो, देवताओं को उग्र गंध के इतर अर्पित न करें । उग्र गंध से प्रक्षेपित गंध-तरंगों की ओर देवता का केवल सगुणतत्त्व आकृष्ट होता है; इसके विपरीत मंद एवं मन को आह्लाददायक लगनेवाले गंध से प्रक्षेपित गंध-तरंगों की ओर ब्रह्मांड में विद्यमान देवता का निर्गुणतत्त्व अल्पावधि में आकृष्ट होता है एवं जीव को चैतन्य का लाभ दीर्घकालतक मिलता रहता है ।

संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ ‘पूजासामग्री का महत्त्व’

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