पूजाविधि के संदर्भ में शंकानिरसन – भाग १

१. पंचोपचार एवं षोडशोपचार में पुष्प अर्पित करने का महत्त्व क्या है ?

१. विशिष्ट देवता से संबंधित पुष्प, उदा. श्री गणेश को लाल पुष्प चढाने से, विशिष्ट देवता से संबंधित तत्त्व का अधिक लाभ होता है । पुष्पों की ओर आकृष्ट देवतातत्त्वों की सूक्ष्मतर तरंगों को ‘तरंगें’ कहते हैं एवं पुष्पों द्वारा प्रक्षेपित देवता के तत्त्वों को ‘पवित्रक’ कहते हैं । पूजाविधि के समय पूजक को इन्हीं पवित्रकों का लाभ मिलता है ।

किसी वस्तुकी तरंगें अथवा पवित्रकों का आकृष्ट होना जीव के भावपर निर्भर करता है । जीव का व्यक्त भाव अधिक हो, तो पुष्प की तरंगें अधिक मात्रा में कार्यरत होकर अधिकाधिक सगुण रूप में, अर्थात् पवित्रकों के रूप में विशिष्ट जीव के लिए व्यक्तिगत स्तरपर प्रत्यक्ष कार्य करती हैं । जिस व्यक्ति का भाव अव्यक्त हो, उसके लिए प्रत्यक्ष-तरंगें ही सूक्ष्म स्तरपर कार्य करती हैं ।

 

२. सूर्यास्त के उपरांत कलियां क्यों नहीं तोडते ?

‘ब्राह्ममुहूर्तपर देवताओं के पवित्रक पृथ्वीपर अधिक मात्रा में प्रक्षेपित होते हैं । जिन पुष्पों में जिस देवता के पवित्रक आकृष्ट करने की क्षमता होती है, उन्हीं पुष्पों की ओर ये पवित्रक अधिक मात्रा में आकृष्ट होते हैं । सूर्य के तेज के कारण वातावरण के रज-तम कणों का विघटन होता रहता है । इसलिए सूर्यास्त से पूर्व का वातावरण सूर्यास्त के उपरांत के वातावरण की तुलना में अधिक सात्त्विक होता है । सूर्यास्त के उपरांत वायुमंडल में रज-तम की मात्रा बढती है, जिससे अनिष्ट शक्तियों का वातावरण में संचार बढता है एवं वातावरण दूषित होता है । इसलिए सूर्यास्त के उपरांत कलियां रज-तम कणों से आवेशित होती हैं एवं देवताओं के पवित्रक आकृष्ट करने की उनकी क्षमता अल्प हो जाती है । इसलिए सहसा सूर्यास्त के उपरांत कलियां नहीं तोडते ।

मोगरा (बेला), जाही (एक प्रकारकी चमेली), रजनीगंधा इत्यादि पुष्पों में ऐसी लगन होती है कि देवताओं के पवित्रक अधिकाधिक उनकी ओर आकृष्ट हों । उन पुष्पों की कलियां सूर्यास्त से खिलना आरंभ होकर ब्राह्ममुहूर्त की आतुरता से प्रतीक्षा करती हैं । उनकी लगन के कारण देवताओं के पवित्रक उनकी ओर अधिक मात्रा में आकृष्ट होते हैं । इसलिए उनकी सुगंध भी अन्य पुष्पों की तुलना में अधिक होती है एवं मन को संतुष्ट करती है । कुछ पुष्प (उदा. श्वेत एवं गुलाबी रंग के अडहुल के पुष्प) सूर्योदय के उपरांत भी खिलते रहते हैं । ऐसे पुष्पों में देवताओं के पवित्रक अल्प अथवा ना के बराबर होते हैं; उनमें सुगंध भी नहीं होती है । देवता को ऐसे पुष्प चढाना कागद के (कागज के) पुष्प चढाने समान ही है । ऐसे पुष्प चढाने से पूजक को अधिक लाभ नहीं होता ।

तुलसी (मंजिरी), गेंदा, गुलाब, केवडा इत्यादि पुष्प प्रतिदिन थोडे-थोडे खिलते हैं एवं वृक्षपर अधिक दिन नवनूतन (तरो-ताजा) रहते हैं । ऐसे पुष्पों की सुगंध मंद होती है और उनमें गुरुतत्त्व को आकर्षित करने की क्षमता अधिक होती है । जहां गुरुतत्त्व कार्यरत अथवा प्रगट होता है, वहां इन पुष्पों की सूक्ष्म-सुगंध पुष्पों का अस्तित्व न होते हुए भी दूरतक फैलती रहती है । तुलसी (मंजिरी), गुलाब, गेंदा एवं केवडे की मिश्रित सूक्ष्म-सुगंध हो, तो समझ लें कि गुरुतत्त्व आपके लिए दौडा चला आया है ।’ – ब्रह्मतत्त्व (श्रीमती पाटील के माध्यम से प्राप्त ईश्वरीय ज्ञान)

 

३. सूखे अथवा कीटक लगे पत्ते, पुष्प एवं
फलों से देवता का पूजन क्यों नहीं करना चाहिए ?

हमें देवता को जो अर्पित करना है, वह सदा सर्वोत्तम होना चाहिए । अर्पित की गई वस्तु को देवता सूक्ष्म रूप से ग्रहण करते हैं एवं तत्पश्चात् प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं ।

 

४. कमल एवं आंवला ३ दिनतक शुद्ध क्यों रहते हैं
एवं आगे उन्हें पानी में विसर्जित क्यों करना चाहिए ?

कमल से ४० प्रतिशत लक्ष्मीतत्त्व एवं आंवले से ३० प्रतिशत ब्रह्मतत्त्व प्रक्षेपित होता है । प्रक्षेपण हेतु प्राणवायु एवं धनंजय-वायु आवश्यक है । कमल एवं आंवले में निरंतर ३ दिन रज-तम से लडने की क्षमता होती है । कमल एवं आंवले की प्राणवायु तथा धनंजयवायु ३ दिनतक ५० प्रतिशत से अधिक मात्रा में बनी रहती है । इस कारण कमल एवं आंवला ३ दिनतक शुद्ध रह सकते हैं; तदुपरांत उनकी प्राणवायु ५० प्रतिशत एवं धनंजयवायु ३० प्रतिशत घट जाती है । इस कारण वे सूखने लगते हैं । फिर भी कमल एवं आंवले में देवता के तत्त्व एवं सत्त्व-तरंगें १० प्रतिशत शेष रहती ही हैं । इस कारण ३ दिन के उपरांत भी उनका लाभ हो सकता है । सूख जाने के उपरांत पानी में उनका विसर्जन करने से देवता का शेष तत्त्व एवं सत्त्व-तरंगें पानी में घुलकर सर्व जीवों तक पहुंचकर उन्हें लाभान्वित कर सकते हैं ।’ – ईश्वर (कु. मधुरा भोसले के माध्यम से, ५.१.२००५, रात्रि ९.११)

 

५. पूजा में पत्तों की अपेक्षा पुष्पों का अधिक महत्त्व क्यों है ?

पत्तों की अपेक्षा पुष्प सगुण तत्त्व ग्रहण करने में अधिक संवेदनशील होते हैं; क्योंकि पुष्प में रंगकणों के साथ ही गंधकणों की मात्रा अधिक होने के कारण वह अपनी गंध से देवताओं का सगुण तत्त्व पत्तों की अपेक्षाकृत अल्पावधि में आकृष्ट कर सकता है ।

 

६. पूजाविधि में अक्षत का महत्त्व क्या है ?

‘अक्षत में ब्रह्मांड के पांच देवताओं (श्रीगणेश, श्री दुर्गादेवी, शिव, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण)के तत्त्वों की तरंगों को आकृष्ट करने तथा उन्हें जागृत कर कार्यरत करने की क्षमता होती है । अक्षत में पृथ्वी एवं आप तत्त्वों की सहायता से देवता तरंगों को प्रक्षेपित करने की क्षमता होती है । अतः पूजाविधि के प्रत्येक घटकपर तथा देवता की मूर्तिपर पंचोपचार या षोडशोपचार के उपरांत, अक्षत छिडककर सब में विद्यमान देवत्व को जागृत कर, कार्य के लिए उनका आवाहन करते हैं । पंचोपचार-पूजा में कोई घटक अनुपलब्ध हो, तो अक्षत का उपयोग किया जाता है । इसलिए अक्षत सर्व देवताओं के तत्त्वों को समा लेनेवाला अर्थात् पूजाविधि में महत्त्वपूर्ण सर्वसमावेशक माध्यम है ।’

देवता को अक्षत चढानेपर देवता की शक्ति से अक्षत में अच्छी शक्ति, कंपन निर्मित होते हैं । समान कंपन संख्या वाले दो तानपुरों के दो तारों में से एक को छेडनेपर (नाद उत्पन्न करनेपर) दूसरी तार से भी समान नाद उत्पन्न होने लगता है । उसी प्रकार देवता की शक्ति के स्पंदन अक्षत में (चावल में) निर्मित हुए होें, तो घर के चावल के भंडार में भी वैसे ही स्पंदन उत्पन्न हो जाते हैं । शक्ति से आवेशित चावल को वर्षभर प्रसाद के रूप में ग्रहण कर सकते हैं ।

 

७. अक्षत में चावल अखंड क्यों होने चाहिए ?

‘कोई भी वस्तु खंडित हो अथवा कटी हुई हो, तो उसमें ब्रह्मांड की कष्टदायक तरंगें आकर्षित करने की क्षमता बढ जाती है और वह रज-तम कणों से आवेशित हो जाती है । उससे प्रक्षेपित तरंगों के कारण जीव को अनिष्ट शक्तियों की पीडा की अथवा जीव के शरीर में किसी अनिष्ट शक्ति के संचार की आशंका रहती है । इस कारण हिंदु धर्म में किसी भी वस्तु के ‘अखंड’ होने को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है । किसी भी वस्तु को भंग करना तामसिक वृत्ति का दर्शक है । धार्मिक विधियों में ऐसे कृत्य का निषेध किया गया है । अक्षत के लिए अखंड चावल न लेकर, चावल की कनी (टुकडा चावल) ली जाए, तो उसमें ब्रह्मांड के उच्च देवताओं का तत्त्व आकृष्ट करने की मात्रा अपनेआप ही अल्प हो जाती है । इससे पूजक को देवता के उच्च तत्त्व का लाभ मिलने की मात्रा भी घट जाती है एवं स्वाभाविक ही पूजकपर देवता की कृपादृष्टि भी अल्प होती है । यही कारण है कि, पूजामें खंडित लयदर्शक चावल का प्रयोग न कर, अक्षत का (अखंडित चावल का) प्रयोग अधिक उचित होता है ।

संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ ‘पूजासामग्री का महत्त्व’

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