अखंड ज्योतिस्वरूप कांगडा, हिमाचल प्रदेश की श्री ज्वालादेवी !

हिमाचल प्रदेश का श्री ज्वालादेवी मंदिर, देश के महत्त्वपूर्ण धार्मिक स्थलों तथा ५१ शक्तिपीठों में एक है ! यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के कांगडा जनपद में है । राज दक्ष के हाथों अपने पति शिव का अनादर न सह पाने के कारण सती ने यज्ञ में अपनी आहुति दी थी । उससे शिव को बहुत शोक हुआ तथा वे सती के शव को अपनी पीठ पर लेकर तांडव करने लगे । तब, विष्णु ने सुदर्शनचक्र से उस शव के ५१ टुकडे किए । ये टुकडे जहां-जहां गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ बने । इस स्थान पर देवी सती की जीभ गिरी थी ।

वैज्ञानिकों को निरुत्तर करनेवाली ९ ज्वालाएं तथा गोरख डिब्बी कुंड !

यहां प्राकृतिक रूप से ९ ज्वालाएं निंरतर जलती रहती हैं । ९ ज्वालाओं में प्रमुख ज्वाला महाकाली की है । अन्य ८ ज्वालाएं अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विन्ध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अंबिका तथा अंजना इन देवियों की हैं । इस मंदिर में देवी की प्रतिमा नहीं है । हिमाचल प्रदेश का वातावरण ठंडा है; फिर भी यहां की ये ज्वालाएं कभी शांत नहीं होतीं । वैज्ञानिक अभी तक इसका रहस्य नहीं जान पाए हैं ।

यहां का दूसरा आश्चर्य, इस मंदिर के निकट स्थित ‘गोरख डिब्बी’ कुंड है । उसकी ओर देखने पर कुंड का पानी उबलता दिखाई देता है; किंतु छूने पर ठंडा लगता है ।

अकबर का अहंकार हरनेवाली ज्वालादेवी !

भारत में जब मुगल राजा अकबर का राज्य था, उस समय की यह घटना है । नदौन गांव के माता का भक्त १००० यात्रियों के साथ श्री ज्वालादेवी के दर्शन करने निकला था । उस समय अकबर की सेना ने उन्हें रोका तथा पकडकर दरबार में राजा के सामने खडा किया । अकबर ने यात्रियों से पूछ कि तुमलोग कहां जा रहे थे । तब, भक्तों ने ज्वालादेवी की प्रशंसा की और उनके विषय में राजा को बताया । यह सुनने के पश्चात् राजा ने भक्त के पास खडे एक घोडे की गर्दन धड से अलग करने का आदेश किया और कहा, ‘यदि तुम्हारी देवी में इतनी शक्ति है, तो वह इस घोडे का सिर पुनः धड से जोड दे ।’ भक्तों की देवी पर अपार श्रद्धा होने के कारण उन्होंने देवी से प्रार्थना की । तब, सिर धड से जुड गया और घोडा जीवित हो उठा ।

इस घटना के पश्चात, अकबर उस स्थान पर गया । उसने प्राकृतिक रूप से जलती हुई ज्वाला देखी, तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ । उसने उन ज्वालाओं को बुझाने के लिए उनपर पानी डलवाया और लोहे की मोटी-मोटी चादरों से ढंकवा दिया; फिर भी ये नहीं बुझीं ! पश्चात, अकबर ने यमुना नदी का एक प्रवाह मंदिर की ओर मोडवा दिया; जिससे ये ज्वालाएं बुझ जाएं, पर ऐसा नहीं हुआ । तब, अकबर को अपनी चूक समझ में आई और उसने मंदिर पर सोने का छत्र बैठवाया । देवी को छत्र प्रदान करते समय राजा के मन में अहंकार था कि ‘मैं सोने का छत्र दे रहा हूं ।’ इसलिए, वह टूटकर नीचे गिर गया तथा देवी ने अपनी शक्ति से उस सोने के छत्र का रूपांतर कुछ अलग ही धातु में कर दिया । उस छत्र में तांबा, पीतल, लोहा, इनमें से एक भी धातु नहीं है । आजतक किसी को पता नहीं चल पाया कि इसमें कौन-सी धातु है !’

सनातन की सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ ४ वर्ष से भी अधिक समय से पूरे भारत में भ्रमण कर, प्राचीन मंदिरों, भवनों, दुर्गों तथा महत्त्वपूर्ण वस्तुओं के छायाचित्र इकट्ठा कर रही हैं; इसलिए, हम घरबैठे उनका दर्शन कर पर रहे हैं । इस उपकार के लिए हम परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी तथा सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करेंगे !

ज्वाला के रूप में देवी । (अब हमलोग, इन ज्वालाओं से प्रक्षेपित होनेवाला तेज-तत्त्वरूपी चैतन्य ग्रहण करने के लिए देवी से प्रार्थना करेेंगे ।)
श्री ज्वालादेवी का मंदिर
(संदर्भ : आज तक संकेतस्थल तथा jawalaji.in संकेतस्थल )

 

कुछ देवियों की उपासना की विशेषताएं इस प्रकार हैं ….

१. कुमारी

इसकी पूजा में फुलं फुलों की माला, घास, पत्ते, पेडों की छिलके, कापूस का धागा, भंडारा (हल्दी), शेंदूर, कुमकुम इत्यादि को महत्त्व है । छोटी बालिकाओं को जो वस्तु पंसद है, वहीं वस्तु देवी को अर्पण करते हैं ।

२. रेणुका, अंबामाता तथा तुळजाभवानी

विवाह के समान किसी विधी के पश्चात् जिनकी यह कुलदेवता हैं, उनके घर में ‘गोंधळ’ करते हैं । कुछ लोगों के घर में विवाहादि कार्य निर्विघ्नता से संपन्न हो; इसलिए सत्यनारायण की पूजा करते हैं अथवा कोकणस्थ ब्राह्मणों में देवी का बोडण भरते हैं, उसी के समान यह प्रकार है ।

३. अंबाजी

गुजरात की अंंबाजी के (अंबामाता के) मंदिर में दिए के लिए तेल का उपयोग नहीं करते । वहां घी का नंदादीप (अखंड) प्रज्वलित किया जाता है ।

४. त्रिपुरसुंदरी

‘यह एक तांत्रिक देवता है । इसके नाम पर एक पंथ प्रचलित है । इस पंथ के मतानुसार इस पंथ की दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात् ही इसकी उपासना कर सकते हैं ।

५. त्रिपुरभैरवी

एक तांत्रिक देवता । ऐसा कहा जाता है कि, ‘धर्म, अर्थ एवं काम इन पुरुषार्थियों की प्राप्त करवानेवाली यह देवता है ।’ यह शिवलिंग भेद कर बाहर आई है । कालिकापुराण में इसका विवरण किया गया है । सर्व रूपों में भैरवी यह त्रिपुरा का प्रभावी रूप माना जाता है । इसकी पूजा बाएं हाथ से की जाती है । इसे लाल रंग की (रक्तवर्ण) मदिरा, लाल फुलं, लाल वस्त्रं तथा शेंदूर ये वस्तु प्रिय हैं ।’

६. महिषासुरमर्दिनी

देवी की शक्ति सहन करने की क्षमता न होने के कारण प्रथम शांतादुर्गा को आवाहन करते हैं, पश्चात् दुर्गा को तत्पश्चात् महिषासुरमर्दिनी को आवाहन करते हैं । उससे देवी की शक्ति सहन करने की शक्ति स्तर-स्तर पर वृद्धिंगत हो जानेके पश्चात् ही महिषासुरमर्दिनी की शक्ति सहन कर सकते हैं ।

७. काली

‘बंगाल में काली की उपासना प्राचीन काल से प्रचलित है । पूर्णानंद का ‘श्यामारहस्य’ तथा कृष्णानंद का ‘तंत्रसार’ ये दो ग्रंथ सुप्रसिद्ध हैं । इस पूजा में सुरा (मद्य) अत्यावश्यक वस्तु मानी जाती है । मंत्र से शुद्ध कर उसका सेवन किया जाता है । कालिकोपनिषद में यह उल्लेख है कि, कालीपूजा के लिए उपयोग किए जानेवाले कालीयंत्र त्रिकोण, पंचकोण अथवा नवकोन में होने चाहिए । कुछ समय वे पंद्रह कोनों के भी करते हैं । कालीपूजा कार्तिक कृष्णपक्ष में, विशेष रूप से रात्रि के समय फलप्रद बताई गई है । इस पूजा में कालीस्तोत्र, कवच, शतनाम तथा सहस्त्रनाम का पाठ अंतर्भूत है ।’

८. चामुंडा

आठ गुप्ततर योगिनी मुख्य देवता के नियंत्रण के नीचे चक्र में विश्व का संचलन, वस्तुओं का उत्सर्जन, परिणाम इत्यादि कार्य करते हैं । ‘संधीपूजा’ नाम की एक विशेष पूजा अष्टमी तथा नवमी इन तिथिओं के संधीकाल में की जाती है । यह पूजा दुर्गा की चामुंडा इस रूप की होती है । उस रात्रि गायनवादन तथा खेल के योग से जागर करते हैं ।

९. दुर्गा

श्री दुर्गामहायंत्र श्री भगवतीदेवी का (दुर्गा का) आसन है । नवरात्रि में दुर्गा के नौ रूपों की उपासना की जाती है ।

१०. उत्तानपादा

यह मातृत्व, सर्जन तथा विश्वनिर्मिती इन त्रिगुणों से युक्त है । छिन्नमस्ता अथवा लज्जागौरी इस देवी की प्रतिमा भूमि की ओर पीठ कर, पूरा शरीर ऊपर की ओर कर पैर अपने पेट के पास पूजक की ओर रख कर पूजा करने की प्रथा प्राचीन समय से चली आ रही है । शिवपिंडी के नीचे जलहरी की रचना रहती है, वही अवस्था में उसका पूजन किया जाता है । उसे जलधाराओं का अभिषेक किया जाता है । अभिषेक का पानी बहने के लिए एक मार्ग भी रखा जाता है । शिवपिंडी के इस मार्ग को ‘महाशिव की महाभगा का महामार्ग’ कहा जाता है ।

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘शक्ति भाग २’)

 

अन्य योगमार्गों की तुलना

विश्वव्यापी करनेवाला ज्ञानमार्ग तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म करनेवाला शक्तिमार्ग :  ‘ज्ञानमार्ग का उपयोग करने से विश्वव्यापी हो सकते हैं तथा इसका अनुभव कर सकते हैं कि, सत्स्वरूप किस प्रकार जल में, काष्ठ में, पाषाण में, प्रत्येक वस्तु में सत्त्वरूप से खेल रहा है ? शक्तिमार्ग से न्यूनतम होते हुए अणु के समान होना सहज होता है तथा अति नम्रता पूर्वक हरि को जीतना सहज होता है । (अनंत का ज्ञान है, यह पहचान कर ज्ञानमार्गी यदि व्यापक हुआ तथा शक्तिमार्गी शक्ति का प्रकटीकरण करने की अपेक्षा अधिक नम्र हुआ, तो उसकी उसी मार्ग से प्रगति होती है । )

नम्र झाला भूतां । तेणे कोंडिलें अनंता । – संत तुकाराम महाराज’

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘शक्ति भाग २’)

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