प्रभु श्रीराम का जन्म होने के पीछे अनेक उद्देश्य होना !

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‘रामचरितमानसनुसार, ‘हरि का अवतार जिस कारण से होता है, उतना ही एक कारण है’, ऐसा नहीं कह सकते ।’ श्रीहरि के रामावतार में ऐसे ज्ञात एवं अज्ञात अनेक कारण हैं, जो विविध कल्प-युगों में प्रभु श्रीराम का जन्म होने हेतु सुनिश्चित किए जाते हैं ।

 

श्रीरामप्रभु के अज्ञात स्वरूप को शतशः प्रणाम !

‘श्रीरामप्रभु, हम ‘अधोक्षज’, अर्थात इंद्रियों द्वारा होनेवाले ज्ञान के परे होने से एवं विशेष अर्थात ‘अव्यय’ अर्थात अविनाशी होने से हमें आज तक आपका स्वरूप समझ ही नहीं आया । आपके उस स्वरूप को शतशः प्रणाम !’

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामी (साभार – मासिक ‘घनगर्जित’ फरवरी २०१८)

 

सर्वोत्तम आदर्श श्रीराम !

‘श्रीराम समान दूसरा आदर्श पति नहीं, पुत्र नहीं, राजा नहीं, मानव नहीं एवं शत्रु भी नहीं । वैसा आदर्श आजतक हुआ नहीं और आगे होगा भी नहीं ।’

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (साभार – ‘मासिक घनगर्जित’, फरवरी २०१७)

 

१. जय एवं विजय को शाप के
कारण मिले तामसिक शरीर के, अर्थात
रावण एवं कुंभकर्ण के संहार के लिए श्रीरामचंद्र का जन्म होना

श्रीहरि के जय एवं विजय के दो प्रिय द्वारपालों को हम सभी जानते हैं । उन दो बंधुओं को ब्राह्मण के (सनकादि) शाप के कारण असुरों का तामसिक शरीर मिला । एक जन्म में वे पृथ्वीपर जाकर देवताओं को जीतनेवाले रावण एवं कुंभकर्ण नामक अत्यंत बलवान महावीर राक्षस हुए, जो सभी को ज्ञात है । उनके संहार के लिए श्रीरामचंद्र का जन्म हुआ ।

 

२. श्रीराम ने जालंधर नामक दैत्य को युद्ध में मारकर उसे परमपद देना

एक कल्प में पराक्रमी जालंधर नामक दैत्य ने सर्व देवताओं को युद्ध में पराजित कर दिया । देवताओं को दुःखी देखकर भगवान शिव ने जालंधर से घनघोर युद्ध किया; परंतु वह महाबली दैत्य मारा नहीं जा रहा था । इसका कारण यह था कि उस दैत्यराज की पत्नी वृंदा बडी पतिव्रता थी, इसलिए त्रिपुरासुर जैसे अजेय शत्रु का विनाश करनेवाले भगवान शिव भी उस जालंधर दैत्य पर विजय नहीं प्राप्त कर सके । तब प्रभु श्रीहरि विष्णु ने उस पतिव्रता वृंदा का व्रत भंग किया और देवताओं की सहायता की । जब वृंदा को इसका पता चला तो उसने क्रोध में आकर भगवान श्रीहरि को शाप दिया । लीलासागर कृपालु श्रीहरि ने उसके शाप को स्वीकारा । वही जालंधर उस कल्प में रावण हुआ, जिसे श्रीराम ने युद्ध में मारकर परमपद प्रदान किया ।

 

३. एक कल्प में देवर्षि नारद के शाप को
श्रीहरि ने स्वीकार कर श्रीराम के रूप में मनुजावतार लेना

नारद के अभिमान एवं मोह से जुडा यह प्रसंग अत्यंत रोचक है । इसमें साक्षीदार शिव के दो गणों को भी शाप मिलता है और श्रीहरि विष्णु को भी ब्रह्मर्षि नारद शाप देते हैं ।

लक्ष्मीनिवास श्रीहरि विवाह कर अपनी वधु ले गए । असफल राजा निराश होकर लौट गए । मोह के कारण नारदमुनि कि बुद्धि भ्रष्ट हो गई, इसलिए राजकुमारी प्राप्त न होने से वे अत्यंत व्याकुल हो गए थे । ऐसे में भगवान शिव के गणों ने हंसते हुए कहा, ‘हे मुनिवर !  एक बार जाकर अपना मुख तो दर्पण में देखो’, इतना कहने के पश्चात वे दोनों भयभीत होकर वहां से भाग निकले । नारदमुनि ने पानी में झुककर अपना मुख देखा । अपना रूप देखकर उन्हें बहुत क्रोध आया । उन्होंने भगवान शिव के उन गणों को अत्यंत कठोर शाप दिया, ‘‘तुम दोनों कपटी-पापी असुर हो जाओगे, तुमने मेरा उपहास किया, अब उसका फल चखो । इसके पश्चात तुम कभी किसी मुनि का उपहास नहीं करोगे ।’’

आगे उन शिवगणों ने देवर्षि नारद से शाप से मुक्ति के लिए प्रार्थना की, तब नारद को उन पर दया आ गई । वे बोले, ‘‘तुम दोनोें राक्षस (रावण एवं कुंभकर्ण) बनोगे । तुम्हें महान ऐश्वर्य, तेज एवं बल की प्राप्ति होगी । तुम बाहुबल से जब संपूर्ण जग जीत लोगे, तब  भगवान श्रीविष्णु मनुष्य के शरीर (श्रीरामावतार) धारण करेंगे और श्रीहरि के हाथों तुम्हारी मृत्यु होगी । जिससे तुम मुक्त होगे और पुन: पृथ्वी पर जन्म नहीं लोगे ।’’

आगे नारदमुनि श्रीहरि से कहते हैं, ‘जिस शरीर को धारण कर आपने मुझे धोखा दिया, मेरा शाप है कि आप भी वही शरीर धारण करोगे । तुमने मेरा शरीर वानर का बना दिया, इसलिए वानर ही आपकी सहायता करेंगे । मैं जिस स्त्री की कामना कर रहा था, मेरा उससे वियोग करवाकर आपने मेरा अहित किया है । इसलिए आप भी अपनी पत्नी के वियोग में दुःखी होंगे ।’ इसप्रकार एक कल्प के त्रेतायुग की श्रीरामकथा उसके अनुरूप ही है । उस कल्प में देवर्षि नारद का शाप श्रीराम जन्म होने के लिए कारणीभूत था ।

 

४. राजा प्रतापभानु के मुनियों को
कष्ट देने से उन्हें राक्षस होने का शाप मिलना एवं
उस राक्षस के अत्याचारों से मुक्ति देने हेतु श्रीरामावतार होना

श्रीराम के अवतार लेने का एक अन्य कारण बताते हुए महर्षि याज्ञवल्क्य एवं भारद्वाज मुनि चक्रवर्ती राजा प्रतापभानु की कथा सुनाते हैं ।राजा प्रतापभानु ने ऋषि-मुनियों को प्रताडित किया, इसीलिए ब्राह्मणों ने राजा को शाप देते हुए कहा था, ‘‘अरे मूर्ख राजा ! तू परिवार सहित राक्षस हो जाएगा ।’’ वही राजा प्रतापभानु अपने परिवार सहित रावण नामक राक्षस बन गया । उसके १० मस्तक एवं २० हाथ थे । वह प्रचंड शूरवीर था । राजा को छोटे भाई का नाम अरिमर्दन था, जो बलशाली कुंभकर्ण हुआ । ऱाजा का धर्मरुची नामक  मंत्री था, जो रावण का सौतेला छोटा भाई विभीषण था, जो कि विष्णुभक्त एवं ज्ञान-विज्ञान का भंडार था । राजा के पुत्र एवं सेवक सर्व बडे भयानक राक्षस हुए । उनके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए उस कल्प में श्रीरामावतार हुआ ।

 

५. भगवान विष्णु द्वारा संताप में भृगुपत्नी का
शिरच्छेद तथा भृगु द्वारा उन्हें मनुष्यलोक में जन्म लेने का शाप

वाल्मीकि-रामायण के उत्तरकांड के ९१ वें सर्ग की कथा में आया है, ‘प्राचीन काल की बात है । एक बार देवासुर-संग्राम में देवताओं से  पीडित दैत्यों ने महर्षि भृगु की पत्नी से आश्रय मांगा । भृगुपत्नी ने उन्हें आश्रय दिया और वे दैत्य उनके आश्रम में निर्भयता से रहने लगे । ‘भृगुपत्नी ने दैत्योेें को आश्रय दिया है ’, यह देख कुपित होकर देवेश्वर भगवान विष्णु ने तीक्ष्ण धारदार सुदर्शनचक्र से भृगुपत्नी का सिर धड से अलग कर दिया । अपनी पत्नी का वध हुआ देख भार्गववंश के प्रवर्तक भृगु ने कुपित होकर शत्रुकुलनाशन भगवान श्रीहरि विष्णु को शाप दिया, ‘‘हे जनार्दन ! मेरी पत्नी वध करने की दोषी नहीं थी; परंतु आपने क्रोध के आवेश में उसका वध किया है । इसलिए आपको मनुष्यलोक में जन्म लेना होगा और वहां अनेक वर्ष अपनी पत्नी के वियोग का दुःख सहन करना होगा ।’’ यह शाप देने के उपरांत भृगु ऋषि को बहुत पश्चाताप हुआ ।

 

६. तपस्वी दंपति मनु-शतरूपा द्वारा
श्रीहरि से उनके समान पुत्रप्राप्ति का वरदान मांगा जाना
एवं स्वयं  श्रीहरि का रामावतार में उनकी कोख से जन्म लेना

एक अन्य कल्प में श्रीहरि के मनुजावतार का वर्णन करते हुए भगवान शिव गिरिराजकुमारी (पार्वती) से कहते हैं, ‘हे गिरिराजकुमारी (पार्वती), अब भगवान के अवतार का दूसरा कारण सुनो । मैं उसकी विचित्र कथा विस्तार से सुनाता हूं, जिस कारण अजन्मा, निर्गुण एवं रूपविरहित (अव्यक्त सच्चिदानंदघन) ब्रह्म अयोध्यापुरी के राजा हुए ।

आगे वे पार्वती को स्वयंभू मनु ए‌वं उनकी पत्नी शतरूपा के अनुपम तपश्चर्या की प्रशंसा करते हैं । तपस्वी दंपति मनु-शतरूपा द्वारा श्रीहरि से वरदान मांगे जाने का वर्णन करते हैं, जिसकारण उस कल्प में श्रीहरि का रामावतार होता है । वैसे श्रीहरि तपस्वी दंपति से कहते हैं, ‘‘हे राजन ! निःसंकोच होकर मुझसे वरदान मांगें । मैं सब कुछ दे सकता हूं ।’’ यह सुनकर राजा मनु हाथ जोडकर श्रीहरि विष्णु से बोले, ‘‘हे दानवीर शिरोमणी ! हे कृपानिधान ! हे नाथ ! मैं अपने मन का खरा भाव बताता हूं । मुझे आपके समान पुत्र चाहिए । भला, प्रभु से मैं क्यों कुछ छिपाऊं ?’’ राजा-रानी की ऐसी अद्भुत भक्ति देखकर करुणानिधान भगवान बोले, ‘‘ऐसा ही हो । तथास्तु ! हे राजन, मैं अपने समान दूसरा कहां ढूंढूंगा ? इसलिए मैं स्वयं ही तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूंगा ।’’ अब तुम मेरी आज्ञा मानकर देवराज इंद्र की राजधानी अमरावती में जाकर वास करो ।  हे तात (पिता) ! वहां भोगों का उपभोग करने के कुछ समय पश्चात तुम अवध के (अयोध्या के) राजा बनोगे । तब मैं तुम्हारा पुत्र बनूंगा ।’’

भगवान के अवतार लेने के पीछे अनंत उद्देश्य छिपे होते हैं । जिसका वर्णन ‘नेति-नेत’ अर्थात जिसका अंत नहीं !

– डॉ. रमेश मंगलजी वाजपेयी
(साभार : मासिक ‘कल्याण’, अप्रैल २०२१)

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