भगवान शिव

भगवान शिव त्रिदेवों में से एक है । शिव शब्द ‘वश्’ शब्द के अक्षरोंके क्रम बदलने से बना है । ‘वश्’ यानी प्रकाशित होना, अर्थात शिव वह है जो प्रकाशित है । शिव स्वयंसिद्ध एवं स्वयंप्रकाशी हैं । वे स्वयं प्रकाशित रहकर संपूर्ण विश्व को भी प्रकाशित करते हैं । शिव अर्थात मंगलमय एवं कल्याणस्वरूप तत्त्व । शिव अर्थात ईश्वर अथवा ब्रह्म एवं परमशिव अर्थात परमेश्वर अथवा परब्रह्म । संपूर्ण विश्व में भग‍वान शिव का विविध नामों से पूजन किया जाता है । शिवजी में पवित्रता, ज्ञान एवं साधना, ये तीनों गुण परिपूर्णतः विद्यमान हैं । इसलिए उन्हें ‘देवोंके देव’, अर्थात ‘महादेव’ कहते हैं । भगवान शिव सहजता से प्रसन्न होनेवाले देवता हैं, इसलिए उन्हें आशुतोष भी कहते हैं । भगवान शिव मृत्यु के देवता हैं, अतः उन्हें मृत्युंजय कहते हैं । शिवजी भक्तोंके अज्ञानको, अर्थात सत्त्व, रज एवं तम गुणोंको एक साथ नष्ट कर उन्हें त्रिगुणातीत करते हैं । माता पार्वती, कार्तिकेय, गणपति, शिवगण, शिवदूत एवं उनका वाहन नंदी, यह भगवान शिव का परिवार है । भग‍‍‍वान शिव एवं माता पार्वती को जगत् पिता एवं जगत् जननी माना जाता है । वे लय की देवता है ।

ॐ नमः शिवाय जप का महत्त्व

‘नमः शिवाय ।’ यह शिवजी का पंचाक्षरी नामजप है । इस मंत्र का प्रत्येक अक्षर शिव की विशेषताओंका निदर्शक है । जहां गुण हैं वहां सगुण साकार रूप है । ‘नमः शिवाय ।’ इस पंचाक्षरी नामजप को निर्गुण ब्रह्म का निदर्शक ‘ॐ’कार जोडकर ‘ॐ नमः शिवाय’ यह षडाक्षरी मंत्र बनाया है ।

शिव उपासना के विषय में क्या आप ये जानते है ?

शिवालय में पूजा के लिए कहां बैठें ?

सामान्यतः शिव मंदिर में पूजा एवं साधना करनेवाले श्रद्धालु शिवजी की तरंगों को सीधे अपने शरीर पर नहीं लेते । क्योंकि उन तरंगों को सहने की हमारी क्षमता नहीं होती और इससे हमें कष्ट हो सकता है । विष्णुरूप के मंदिरों में देवता की मूर्ति के सामने की ओर कछुआ होता है । उसके एवं देवता की मूर्ति के मध्य में कोई नहीं बैठता । उसी प्रकार शिवजी के मंदिर में अरघा के स्रोत के ठीक सामने न बैठकर आकृति में दिखाए अनुसार एक ओर बैठते हैं । क्योंकि शिवजी की तरंगें सामने की ओर से न निकलकर, अरघा के स्रोत से बाहर निकलती हैं । १ से ७ – यहां बैठकर साधक पूजा कर सकते हैं । ८ – यहां कोई न बैठें ।

पिंडी को स्नान कराना

शिवजी की पिंडी को ठंडे जल, दूध एवं पंचामृत से स्नान कराते हैं । चौदहवीं शताब्दि से पूर्व शिवजी की पिंडी को केवल जलसे स्नान करवाया जाता था; दूध एवं पंचामृतसे नहीं । दूध एवं घी ‘स्थिति’ के प्रतीक हैं, इसलिए ‘लय’ के देवता शिवजी की पूजा में उनका उपयोग नहीं किया जाता था । चौदहवीं शताब्दि में दूध को शक्ति का प्रतीक मानकर प्रचलित पंचामृतस्नान, दुग्धस्नान इत्यादि अपनाए गए । किसी भी देवता पूजन में मूर्ति को स्नान कराने के उपरांत हलदी-कुमकुम चढाया जाता है । परंतु शिवजी की पिंडी की पूजा में हलदी एवं कुमकुम निषिद्ध माना गया है ।

शिवपिंडी पर हलदी-कुमकुम की अपेक्षा भस्म क्यों लगाएं ?

हल्दी मिट्टी में उगती है । यह उत्पत्ति का प्रतीक है । कुमकुम भी हल्दी से ही तैयार होता है, इसलिए वह भी उत्पत्ति का ही प्रतीक है । भगवान शिव ‘लय’के देवता हैं, इसीलिए ‘उत्पत्ति’के प्रतीक हल्दी-कुमकुम का प्रयोग शिवपूजन में नहीं किया जाता । शिवपिंडी पर भस्म लगाते हैं, क्योंकि वह लय का प्रतीक है । पिंडी के दर्शनीय भाग से भस्म की तीन समांतर धारियां बनाते हैं । उनपर मध्य में एक वृत्त बनाते हैं, जिसे शिवाक्ष कहते हैं ।

शिवजी काे प्रिय है बिल्वपत्र

अथर्ववेद, ऐतरेय एवं शतपथ ब्राह्मण, इन ग्रंथोंमें बिल्ववृक्षका उल्लेख आता है । यह एक पवित्र यज्ञीय वृक्ष है । ऐसे पवित्र वृक्षका पत्ता सामान्यतः त्रिदलीय होता है । यह त्रिदल बिल्वपत्र त्रिकाल, त्रिशक्ति तथा ओंकारकी तीन मात्रा इनके निदर्शक हैं । बिल्वपत्र में देवतातत्त्व अत्यधिक मात्रा में विद्यमान होता है । वह कई दिनों तक बना रहता है ।

 शिवपिंडी पर बिल्वपत्र चढाने की पद्धति तथा बिल्वपत्र तोडने के नियम

बिल्व वृक्ष में देवता निवास करते हैं । इस कारण उसके प्रति अतीव कृतज्ञत-भाव रखकर उसे प्रार्थना कर बिल्वपत्र तोडना आरंभ करें । शिवपिंडी को बिल्वपत्र औंधे रख एवं उसके डंठल को अपनी ओर कर चढाएं । औंधे चढाने से उससे निर्गुण स्तर के स्पंदन अधिक प्रक्षेपित होते हैं । इससे श्रद्धालु को अधिक लाभ मिलता है । सोमवार, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा अमावस्या पर एवं संक्रांति काल में बिल्वपत्र तोडना निषिद्ध माना गया है । बिल्वपत्र शिवजी को बहुत प्रिय है, अतः निषिद्ध समय में पहले दिन का रखा बिल्वपत्र उन्हें चढा सकते हैं ।

शिवजी को श्वेत रंग के पुष्प ही चढाएं

उनमें रजनीगंधा, जाही, जुही एवं बेला के पुष्प अवश्य हों । ये पुष्प दस अथवा दस की गुनामें हों । तथा इन पुष्पोंको चढाते समय उनका डंठल शिवजी की ओर रखकर चढाएं । पुष्पोंमें धतूरा, श्वेत कमल, श्वेत कनेर, आदी पुष्पों का चयन भी कर सकते हैं ।

 शिव पूजा का महत्त्वपूर्ण घटक : श्वेत अक्षत

श्वेत अक्षत वैराग्य के, अर्थात निष्काम साधना के द्योतक हैं । श्वेत अक्षत की ओर निर्गुण से संबंधित मूल उच्च देवताओं की तरंगें आकृष्ट होती हैं । शिवजी एक उच्च देवता हैं तथा वे अधिकाधिक निर्गुण से संबंधित है । इसलिए श्वेत अक्षत पिंडी के पूजन में प्रयुक्त होने से शिवतत्त्व का अधिक लाभ मिलता है ।

शिवपिंडी की परिक्रमा कैसे करें ?

शिवजी की परिक्रमा चंद्रकला के समान अर्थात सोमसूत्री होती है । सूत्र का अर्थ है, नाला । अरघा से उत्तर दिशा की ओर, अर्थात सोम की दिशा की ओर, जो सूत्र जाता है, उसे सोमसूत्र या जलप्रणालिका कहते हैं । परिक्रमा बाई ओर से आरंभ कर जलप्रणालिका के दूसरे छोर तक जाते हैं । उसे न लांघते हुए मुडकर पुनः जलप्रणालिका तक आते हैं । ऐसा करने से एक परिक्रमा पूर्ण होती है । यह नियम केवल मानवस्थापित अथवा मानवनिर्मित शिवलिंग के लिए ही लागू होता है; स्वयंभू लिंग या चल अर्थात पूजाघर में स्थापित लिंग के लिए नहीं ।

 शिवपिंडी की परिक्रमा करते समय अरघा के स्त्रोत को क्यों नही लांघते ?

अरघा के जलप्रणालिका से शक्तिस्रोत प्रक्षेपित होता है । उसे लांघते समय पैर फैलने से वीर्यनिर्मिति एवं पांच अंतस्थ वायुओंपर विपरीत परिणाम होता है । इससे देवदत्त एवं धनंजय इन वायु के प्रवाह में रुकावट निर्माण हो जाती है । तथा इस स्रोत से शिव की तमप्रधान लयकारी सगुण तरंगें पृथ्वी तथा तेज तत्त्वोंके प्राबल्य के साथ प्रक्षेपित होती रहती है । इसलिए ऐसे शिवलिंग की अर्ध गोलाकृति पद्धतिसे परिक्रमा करते हैं ।

शिवपूजन में भस्म धारण का महत्व

शिवपूजन से पूर्व शिव-भक्त को अपनी पूजा पूर्वसिद्धता करना आवश्यक है । यज्ञ में अर्पित समिधा एवं घी की आहुति के जलने के उपरांत शेष बची पवित्र रक्षा को भस्म कहते हैं । भस्म को विभूति एवं राख भी कहा जाता है । जैसे देवी को कुमकुमार्चन, श्री गणेशजी को दूर्वार्चन करते हैं, उसी प्रकार शिवजी को भस्मार्चन करते है । भस्मार्चन अर्थात शिवजी का नामजप करते हुए या शिवजी का एक-एक नाम उच्चारण करते हुए शिवपिंडी पर भस्म अर्पण करना । भस्मार्चन के उपरांत शिवतत्त्व से भारित भस्म उपयोग में लाते हैं । शिवपूजन में भस्मधारण का महत्त्व है । भस्मधारण किए बिना शिवपूजा आरंभ नही करते ।

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 शृंगदर्शन : नंदी के सींगों के बीच से शिवपिंडी के दर्शन करना

श्री गुरुचरित्रमें बताए अनुसार शृंगदर्शन करते समय, नंदीके पिछले पैरोंके निकट बैठकर अथवा खडे रहकर बाएं हाथको नंदीके वृषणपर रखें । उसके उपरांत दाहिने हाथकी तर्जनी अर्थात अंगूठेके निकटकी उंगली एवं अंगूठा नंदीके दो सींगोंपर रखें । दोनों सींग एवं उसपर रखी दो उंगलियोंके बीचके रिक्त स्थानसे शिवलिंगको निहारें । नंदीके वृषणको हाथ लगानेका अर्थ है, कामवासनापर नियंत्रण रखना । ‘सींग’ अहंकार, पौरुष एवं क्रोधका प्रतीक है । सींगोंको हाथ लगाना अर्थात अहंकार, पौरुष एवं क्रोधपर नियंत्रण रखना ।

शृंगदर्शन से होनेवाले लाभ

यह समझ लेने से हमारी इस कृति से श्रद्धा अधिक बढेगी । नंदी शिवजी के सामने लीन भाव से बैठे रहते है । वह शिवजी के परम भक्त है । उनसे हमें लीनता से ईश्वर के चरणों में रहने की सीख मिलती है । शिवजी के मंदिर में प्रवेश करने पर प्रथम नंदी के दर्शन करने से हम में भी लीनता निर्माण होती है । इसी लीनता के साथ शृंगदर्शन करने पर हमें विविध लाभ होते हैं ।

५ अ. शिवपिंडी से प्रक्षेपित तेज को सहन कर पाना

सामान्य व्यक्ति शिवपिंडी से प्रक्षेपित तेज को सहन नहीं कर सकता । शृंगदर्शन करते समय नंदी के सींगों से प्रक्षेपित शिव-तत्त्व की सगुण मारक तरंगों के कारण जीव के शरीर के रज-तम कणों का विघटन होता है । तथा जीव की सात्त्विकता बढती है । इससे शिवपिंडी से निकलनेवाली शक्तिशाली तरंगों को सहन कर पाना जीव के लिए संभव होता है ।

५ आ. शिवपिंडी से शक्ति का प्रवाह अधिक कार्यरत होना

दाहिने हाथ की तर्जनी एवं अंगूठे को नंदी के सींगों पर रखने की मुद्रा के कारण श्रद्धालुओं को आध्यात्मिक स्तर पर अधिक लाभ होता है । इस मुद्रा के कारण नली के समान कार्य होता है । नली से वायु प्रक्षेपित करने पर उसका वेग एवं तीव्रता बढ जाती है, इसके विपरीत पंखेकी वायु सर्वत्र फैलती है । इस मुद्रा के कारण शिवपिंडी से प्रक्षेपित शक्ति का प्रवाह अधिक मात्रा में कार्य करता है ।

५ इ. शक्ति के स्पंदन संपूर्ण शरीर में फैलना

शृंगदर्शन के लिए की गई इस प्रकार की मुद्रा से शक्ति के स्पंदन जीव के संपूर्ण शरीर में फैलते हैं । इन स्पंदनोंके कारण जीव की सात्त्विकता बढती है, जिससे वह शिवजी का तत्त्व अधिक मात्रा में ग्रहण कर सकता है ।

शिवपिंडी की विशेषताएं एवं कार्य

भग-प्रतीक ‘अरघा’ एवं लिंग-प्रतीक ‘लिंग’ इनके संयोजन से पिंडी निर्माण हुई है । भूमि अर्थात सृजन एवं शिव अर्थात पवित्रता । शक्ति बिना शिव कुछ भी नहीं कर सकते; इसलिए शिव के साथ शक्ति का पूजन किया जाता है । पिंडीरूप शिवलिंग शक्ति का प्रतीक है ।

अरघा की पूजा अर्थात मातृदेवी की पूजा । अरघाके आंतरिक खांचे महत्त्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि उनके कारण पिंडी में निर्माण होनेवाली सात्त्विक शक्ति अधिकतर पिंडी में एवं गर्भगृह में अर्थात मंदिर के आंतरिक भाग में गतिशील रहती है । विनाशकारी तमप्रधान शक्ति अरघा के स्रोत से बाहर निकलती है ।

शिवपिंडी की विशेषताएं

शिवतत्त्व, शिवमें विद्यमान त्रिगुण अर्थात सत्त्व, रज एवं तम तथा सू्क्ष्म-तरंगें आकृष्ट कर उन्हें प्रक्षेपित करनेका सामर्थ्य शिवपिंडीमें होता है ।

शिवपिंडीद्वारा ४० प्रतिशत तारक शक्ति तथा ६० प्रतिशत मारक शक्ति निरंतर प्रक्षेपित होती रहती है । आवश्यकतानुसार इसकी मात्रामें परिवर्तन होता है ।

ज्योतिर्लिंग स्वयंभू होनेके कारण उससे सघन मात्रामें शिवतत्त्वका तेज एवं शक्ति प्रक्षेपित होती रहती है ।

भूमिपर होनेवाली शिवपिंडीमें निर्गुण तत्त्व ५ प्रतिशत एवं शिवकी १० प्रतिशत मारक शक्ति तथा तेज प्रक्षेपित होता है । सर्वसामान्य व्यक्ति इसे सहपानेमें असमर्थ होनेके कारण कुछ स्थानोंपर शिवपिंडी भूतलके नीचे होती है ।

शिवपिंडीसे निरंतर तेज एवं शक्तिका प्रक्षेपण होता रहता है । इससे शिवपिंडीके निकट तापमानमें वृद्धि होती है तथा वहांपर उष्णताका अनुभव होता है । इसलिए शिवपिंडीपर जलधाराका प्रवाह बनाए रखना चाहिए । इससे तापमान नियंत्रित रहता है ।

शिवपिंडी का कार्य

ज्ञान, भक्ति एवं वैराग्य तरंगें प्रक्षेपित करना

शिवपिंडीद्वारा सत्त्वप्रधान ज्ञानतरंगें, रजोप्रधान भक्तितरंगें एवं तमप्रधान वैराग्यतरंगें प्रक्षेपित होती रहती हैं । महाशिवरात्रिके दिन इस प्रक्षेपणमें ३० प्रतिशत वृद्धि होती है ।

चैतन्य, आनंद एवं शांतिकी सूक्ष्म-तरंगें प्रक्षेपित करना

शिवपिंडीद्वारा चैतन्य, आनंद एवं शांतिकी सूक्ष्म-तरंगें प्रक्षेपित होती रहती हैं । महाशिवरात्रिके दिन इस प्रक्षेपणमें २५ प्रतिशत वृद्धि होती है । इससे शिवपिंडीके दर्शन करनेवाले श्रद्धालुओंके सूक्ष्म-देह शुद्ध होते हैं एवं आवश्यकतानुसार सूर्य नाडी अथवा सुषुम्ना नाडी जागृत होती है । साथही उनके देहोंकी सत्त्वगुण एवं चैतन्य ग्रहण करनेकी क्षमता बढती है । शिवपिंडीमें विद्यमान शिवके निर्गुण तत्त्वके कारण एवं प्रक्षेपित होनेवाली शांतिकी तरंगोंके कारण शिवपिंडीके निकट शीतलता अनुभव होती है एवं मन शांत होता है ।

मारक एवं तारक शक्ति प्रक्षेपित करना

शिवपिंडीमें शिवका निर्गुण एवं निर्गुण-सगुण तत्त्व, तथा तारक तथा मारक तत्त्वोंका संगम होता है । इससे दर्शनार्थीको आवश्यक तत्त्वका लाभ होता है । शिवपिंडीद्वारा मारक शक्ति प्रक्षेपित होते समय वहांके तापमानमें वृद्धि होती है । वहां आनंद अनुभव होता है । तथा तारक शक्ति प्रक्षेपित होते हुए वहांका वातावरण शीतल हो जाता है । साथही आनंद एवं शांति की अनुभूति होती है ।

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