परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का परिचय

परात्पर गुरुपद पर विराजमान होते हुए भी परात्पर गुरु डॉक्टरजी का स्वयं के अहं-निर्मूलन की ओर ध्यान, देवता तथा ईश्‍वर की भांति निरंतर कार्यरत रहने की तथा उनके गुणों को आत्मसात करने की लगन, इन गुणों के कारण वे एक आदर्श ज्ञानोत्तर कर्मयोगी हैं ।

परात्पर गुरु डॉक्टर जी की संक्षिप्त जानकारी तथा उनके द्वारा स्थापित या उनकी प्रेरणा से स्थापित संस्था, संगठन आदि के कार्य की जानकारी दी है । एक व्यक्ति अल्पावधि में केवल राष्ट्र और धर्म संबंधी ही नहीं, अपितु सूक्ष्म-जगत के संबंध में भी इतना सर्वव्यापी कार्य करे, यह असंभव ही है । इससे परात्पर गुरु डॉक्टरजी की असामान्यता व आध्यात्मिक क्षेत्र में उनका सर्वमान्य अधिकार भी ध्यान में आएगा । इस जानकारी से पाठकों में अध्यात्म समझने की जिज्ञासा निर्माण होगी और वे साधना करने हेतु प्रवृत्त होंगे ।

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परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का जन्म एवं परिवार

परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी का जन्म ६ मई १९४२ (ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष सप्तमी, कलियुग वर्ष ५०४४) को श्री. बाळाजी वासुदेव आठवलेजी (वर्ष १९०५ से वर्ष १९९५) और श्रीमती नलिनी बाळाजी आठवलेजी (वर्ष १९१६ से वर्ष २००३) के परिवार में हुआ । उन्हें ७ वीं कक्षा में माध्यमिक छात्रवृत्ति परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर निरंतर ४ वर्षों तक प्रतिमाह छः रुपए छात्रवृत्ति मिली । ग्यारहवीं तक की शिक्षा के समय उन्होंने चित्रकला तथा राष्ट्रभाषा हिन्दी की कोविद पदवी परीक्षा उत्तीर्ण कीं । शालांत माध्यमिक परीक्षा में भी उनका नाम गुणवत्ता सूची में था । वर्ष १९६४ में उन्होंने एम.बी.बी.एस. चिकित्सकीय पदवी प्राप्त की । मुंबर्इ के चिकित्सालय में ५ वर्ष नौकरी की । वर्ष १९७१ से वर्ष १९७८ तक इंग्लैंड में सम्मोहन-उपचारपद्धति पर सफल शोधकार्य किया । तदुपरांत सम्मोहन-उपचार विशेषज्ञ के रूप में वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विख्यात हुए । वर्ष १९७८ में मुंबई लौटने पर उन्होंने मुंबई में मानसिक विकारों पर सम्मोहन-उपचार विशेषज्ञ के रूप में स्वतंत्र व्यवसाय आरंभ किया । वर्ष १९७८ से १९८३ के कालखंड में उन्होंने ५०० से अधिक डॉक्टरों का सम्मोहन शास्त्र और सम्मोहन-उपचार के सिद्धांतों एवं प्रयोगों संबंधी अमूल्य मार्गदर्शन किया ।

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परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की विशेषताएं

१५ वर्ष सम्मोहन-उपचारों पर शोध करने के उपरांत उनके ध्यान में आया कि कुछ रोगी औषधोपचार से ठीक न होकर, तीर्थक्षेत्र अथवा संतों के पास जाने पर या धार्मिक विधि करने पर ठीक होते । इससे उन्हें ज्ञात हुआ कि अध्यात्मशास्त्र उच्च स्तर का शास्त्र है । उन्होंने जिज्ञासु वृत्ति से अध्यात्मशास्त्र का अध्ययन किया, संतों के पास जाकर अपना शंका-समाधान किया तथा साधना की । इ.स. १९८७ में इंदौर के संत प.पू. भक्तराज महाराजजी द्वारा उन्हें गुरुमंत्र दिया गया । अब वे परात्पर गुरु के सर्वोच्चपद पर विराजमान हैं । यह उच्च स्थिति प्राप्त करने पर भी वे सदैव शिष्यभाव में रहते हैं । गुरु के बताए अनुसार सेवा कर आज्ञापालन करते हैं । ‘उनकी अलौकिकता का शब्दों में वर्णन करना असंभव है’, ऐसा महर्षि बताते हैं एवं साधकों ने प्रत्यक्ष में यह अनुभव भी किया है । उनके शरीर में पिछले कुछ वर्षों से कर्इ परिवर्तन (उदा. बाल सुनहरे होना, त्वचा पीली होना, नख पारदर्शक होना) दिखार्इ दे रहे हैं । अपना धन धर्मकार्य हेतु देकर त्याग करना, किसी भी प्रकार के आडंबर के बिना प्रत्येक बात सादगी से तथा साधना स्वरूप करना, मान-सम्मान की अपेक्षा न रखना, कर्तापन ईश्वर को देकर निष्काम भाव से कार्य करना, ये उनकी कुछ गुण विशेषताएं हैं ।

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‘ईश्वरप्राप्ति हेतु कला’
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा दिखाया गया साधनामार्ग

संगीत

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शनानुसार श्रीमती अंजली गाडगीळ (वर्तमान में सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ) ने संगीत के माध्यम से साधना आरंभ की । उन्होंने श्रीमती गाडगीळ को कुछ प्रश्न पूछकर उनका उत्तर ढूंढने को कहा । श्रीमती गाडगीळ ने कर्इ पुस्तकों में ढूंढा; परंतु ऐसा संदर्भ कहीं नहीं मिला । तब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने उन्हें ईश्‍वर को ही पूछकर आगे बढने को कहा । इसलिए किसी भी ग्रंथ में नहीं मिलेगा ऐसा गायन, वादन एवं नृत्य संबंधी आध्यात्मिक स्तर पर ज्ञान उन्हें मिलने लगा । संगीत के किसी भी राग को गाते समय अध्यात्मिक दृष्टिकोण रखने पर क्या अनुभव होता है अथवा स्वर्गलोक का संगीत कैसा है, इस विषय का अभ्यास आरंभिक काल में उन्होंने किया । इसी प्रकार का संशोधन वर्तमान में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शनानुसार कुछ साधिकाएं कर रही हैं । प्राचीन काल में संगीत का उपयोग कर गायक नादब्रह्म की अनुभूति लेते थे, आयुर्वेद में बताए अनुसार संगीत के उपयोग से रोग ठीक करते थे, उसी प्रकार संगीत का उपयोग साधना के रूप में करने से उस गायन में कैसे सामर्थ्य आता है तथा आपातकाल की दृष्टि से ‘संगीत-उपचार पद्धति’ का अभ्यास करना आरंभ किया है ।

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नृत्यकला

नृत्य करने का मूल उद्देश्य साध्य करने के लिए ‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए नृत्यकला’ यह दृष्टिकोण सबके सामने प्रस्तुत करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ! हमारी संस्कृति में नृत्यकला का प्रादुर्भाव मंदिरों में ही हुआ है । इसका विकास एक उपासना माध्यम के रूप में हुआ । बाह्यतः मनोरंजक लगनेवाले इस नृत्य की ओर भी परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने साधकों को साधना के अंग के रूप में देखना सिखाया । उन्होंने, ‘नृत्य से ईश्‍वरप्राप्ति’ का ध्येय देकर, उससे होनेवाली अनुभूतियां और होनेवाले शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभों का अध्ययन करने के लिए हमें प्रोत्साहित किया । आज नृत्य, गायन जैसी सात्त्विक कलाएं समाज में विकृत हो गई हैं । इसलिए, इस विषय में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में सनातन के साधक जो अमूल्य शोध कर रहे हैं, वे पूरे विश्व के लिए मार्गदर्शक हैं । नृत्य के विविध अंगों से ईश्‍वर की ओर बढने हेतु प्रयास करवाना, नृत्य का अभ्यास करते समय उससे संबंधित विविध प्रश्नों के उत्तर भीतर से प्राप्त होना, नृत्य से एकरूप होनेपर ही उसकी अनुभूति होना संभव है, स्वभावदोष और अहंकार नष्ट होने पर ही ईश्वरीय नृत्य संभव है, इत्यादि परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने सिखाया ।

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मूर्तिकला

सनातनके साधक-मूर्तिकारों ने सनातन संस्था के प्रेरणास्रोत परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी के मार्गदर्शन में अध्यात्मशास्त्रानुसार श्री गणेशमूर्ति बनार्इ है । उन्होंने ‘ईश्वरप्राप्ति के लिए कला’ यह दृष्टिकोण रखकर, ‘सेवा’ समझकर, भावपूर्णरूप से मूर्ति बनार्इ है; इसलिए वह मूर्ति सात्त्विक बनी है । सात्त्विक श्री गणेशमूर्ति घर में रखी तो लाभदायक होती है । स्पंदनशास्त्रानुसार प्रत्येक आकृति से प्रक्षेपित स्पंदन उसमें स्थित सत्त्व, रज आैर तम इन त्रिगुणोंपर निर्भर होती है, अतः वे भिन्न स्वरूप की होती हैं । आकृति बदलने पर उसमें स्थित त्रिगुणोंका प्रमाण भी बदलता है । देवता की मूर्ति के संदर्भ में भी यह नियम लागू होता है । श्री गणपति के हाथोंकी लंबार्इ, मोटार्इ तथा आकार में अथवा मुकुट की नक्काशी में यदि थोडा भी परिवर्तन होता है तो संपूर्ण स्पंदनाें में परिवर्तन होता है । इसलिए मूर्ति का प्रत्येक अंग तैयार करते समय उससे प्रक्षेपित सूक्ष्म स्पंदनों को उचित ढंग से योग्य प्रकार से परखने पर, जो मूल तत्त्व से मेल खाए, एेसे स्पंदन प्रक्षेपित करनेवाला अंग तैयार करना पडता है । सनातन के साधक-मूर्तिकारों ने परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी के मार्गदर्शनानुसार इस प्रकार से सूक्ष्म अध्ययन कर सात्त्विक मूर्ति बनार्इ है ।

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चित्रकला

कला ईश्वरप्राप्ति करने का एक माध्यम है । संसार के लिए कला की भाषा में अध्यात्म प्रतिपादित करने का अनमोल कार्य पिछले ३० वर्ष से परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी ने किया । कलाविश्व की अनेक कलाआें में से ‘चित्रकला’ की कला में उन्होंने किए शोध तथा मार्गदर्शन इतना विपुल है कि इससे हमें अध्यात्म के एक अनंत शास्त्र होने की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने साधक-कलाकारों द्वारा बनाए नौ देवताआें के चित्रों में संबंधित देवता का तत्त्व, साथ ही शक्ति, भाव, चैतन्य, आनंद एवं शांति अधिकाधिक आए, इसलिए प्रत्येक चरण पर मार्गदर्शन किया । ‘अपनी कला ईश्वर के लिए अर्पित कर रहे हैं’, ऐसा अहंकार न रखते हुए ‘मुझे ईश्वर के निकट जाना है और यह सेवा ईश्वर के पास ले जानेवाला साधन है’, यह परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने साधकों के मन पर अंकित किया है । ‘कला के माध्यम से साधना कैसी करनी है ?’, यह भी उन्होंने सिखाया । कलाकृति आकर्षक दिखने की अपेक्षा वह सात्त्विक बनाने को महत्त्व देना, दो कलाकृतियों में सात्त्विक कौनसी है यह प्रयोग करवाकर ढूंढना, सेवा करते समय अध्ययन और समय में तालमेल रखना, एेसी कर्इ बातें परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने साधकों को सिखार्इ है ।

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सूक्ष्म-चित्रकला

सूक्ष्म-चित्रकला के माध्यम से अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जानेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवले ! सूक्ष्म-चित्रकला किलिर्र्यन छायाचित्र की तुलना में १ लाख गुना सूक्ष्म है । सूक्ष्म-चित्र, अर्थात आंखों से न दिखनेवाली अदृश्य गतिविधियों के बनाए गए चित्र और सूक्ष्म परीक्षण, अर्थात पंचज्ञानेंद्रियां, मन एवं बुद्धि का उपयोग किए बिना सूक्ष्म पंचज्ञानेंद्रियां, सूक्ष्म कर्मेंद्रियां, सूक्ष्म मन एवं सूक्ष्म बुद्धि की सहायता से अथवा इनकी सहायता के बिना जीवात्मा अथवा शिवात्मा द्वारा निर्मित चित्र । साधारणतः सूक्ष्म-चित्र सूक्ष्म परीक्षणों द्वारा ही बनाए जाते हैं । सूक्ष्म-चित्र स्पंदन, तरंगें, वलय, किरण, प्रकाश इत्यादि अनेक रूपों में दिखाई देते हैं । जैसे साधक की साधना बढती है, वैसे उसे इन सूक्ष्म गतिविधियों का ज्ञान होने लगता है । सूक्ष्म चित्रों के कारण मनुष्य एक दिन सूक्ष्मातिसूक्ष्म ईश्वर का शोध लेने का विचार और उस दृष्टि से प्रयत्न आरंभ करेगा । तत्पश्‍चात ही मनुष्य वास्तविक रूप में आनंद की ओर अग्रसर होने लगेगा । सूक्ष्म-चित्र में दिखनेवाली स्पंदनों का अर्थ एवं कार्य, सूक्ष्म-प्रक्रिया बताते समय सूक्ष्म-चित्र के तरंगों को समझना, किसी वस्तु का सूक्ष्म-चित्र सहस्रों कि.मी. दूरी से या काल के परे बनाना परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने सिखाया ।

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फूलों की विविधतापूर्ण रचना

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन के कारण साधकों पर जीवन का प्रत्येक कृत्य कलात्मक रूप से तथा ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ करने का संस्कार अंकित हो गया है । सनातन के साधक श्री. प्रशांत चंदरगी देवतापूजन के लिए फूल लाने की सेवा करते हैं । वह फूलों की डलिया में अनेक प्रकार से फूलों की सुंदर रचना करते हैं । फुलों की कलात्मकता से रचना करना, ६४ कलाआें में से एक कला मानी जाती है ।

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परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की सीख

ध्वनिचित्रीकरण

पहले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी स्वयं अध्यात्मशास्त्र सिखाते थे । तब उन कार्यक्रमों के ध्वनिमुद्रण या ध्वनिचित्रीकरण के लिए आवश्यक सामग्री नहीं थी । किराए पर सामग्री लाकर बनाई जानेवाली उन कैसेट्स के निर्माणकार्य में अब वृद्धि हुई है । सर्व सुविधाआें एवं अत्याधुनिक तकनीक से युक्त भव्य कलामंदिर (स्टुडियो) इसका सूचक है । २ स्टुडियो, प्रगत प्रकाशयोजना, २ उत्पाद नियंत्रण कक्ष, श्रव्य रिकॉर्डिंग के पृथक कक्ष और दृश्यश्रव्य-चक्रिकाआें से संबंधित सेवाआें के लिए ८ कक्ष समाविष्ट हैं । इस स्टुडियो का निर्माण करते समय देश-विदेश के विशेषज्ञों का परामर्श लिया गया था । इसके फलस्वरूप अब तक मराठी में ३६, हिन्दी में ३८० से अधिक, तथा तेलुगु और कन्नड भाषा में हिन्दुआें के त्यौहारों की जानकारी देनेवाले धर्मसत्संगों की दृश्यश्रव्य-चक्रिकाएं बनाई हैं । ४ भाषाअों में धर्मसत्संगों का १४ चैनलों पर प्रसारण किया जा रहा है । धर्म, अध्यात्म, मंदिर, संत-सम्मान, साधना संबंधी मार्गदर्शन, आध्यात्मिक उपचार, धार्मिक विधि आदि विषयों पर चक्रिकाएं उपलब्ध हैं । इस सबकी प्रेरणा निःसंदेह परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का मार्गदर्शन एवं हिन्दू धर्म संबंधी ज्ञान को शीघ्रातिशीघ्र जिज्ञासुआें तक पहुंचाने की उनकी लगन है !

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स्वयं के आचरण से अन्यों को सिखाना

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी प्रीति के अथाह सागर हैं । वे साधकोंका मन जानकर उन्हें आनंद देते हैं । जाति-वर्ण की समस्या हल कर चिंतामुक्त करना, श्रीकृष्ण समान चार्तुवर्ण व्यवस्था बताकर साधना करवा लेना, इससे साधक जीवन में आनंद का अनुभव करते हैं । जातिभेद का विषैला कलंक पोंछकर उन्होंने साधनारूपी अमृत प्रदान किया है । उनकी सीख के कारण सनातन संस्था में साधक एवं संत जातिभेद की सीमा लांघकर एक ही आध्यात्मिक स्तर पर आनंद की अनुभूति लेते हैं । सभी साधकों की उन्नति हो, इसलिए वे अपार परिश्रम करते हैं । कैसे बोलना चाहिए, मिल-जुलकर रहना, विविध प्रकार की सेवाएं करना, यह वे स्वयं कृति कर सिखाते हैं । साधकों को सर्व सेवाएं सीखकर सक्षम होना चाहिए और उनमें कोई न्यूनता न रहे; इसलिए वे अथक परिश्रम करते हैं । यथार्थ जीवन कैसे जीना चाहिए ? राष्ट्र की उन्नति किसमें है ? स्वभावदोष-निर्मूलन और गुणसंवर्धन किस प्रकार करें ?, यह वे सिखा रहे हैं । भारत की विशेषता है, गुरुपरंपरा । यही परंपरा प.पू. डॉक्टरजी ने आरंभ की है । हमें आगे ले जाने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किए हैं और कर रहे हैं  । ऐसे महान गुरुदेव के प्रति कितनी भी कृतज्ञता व्यक्त की जाए, वह अपर्याप्त ही होगी !

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तेजस्वी विचार

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साधक तथा हिन्दुत्वनिष्ठों की प्रगति

सनातन के मार्गदर्शनानुसार साधना कर साधकों की हुर्इ प्रगति

हिन्दू धर्म में किसी भी योगमार्ग से साधना करने पर आध्यात्मिक उन्नति हो सकती है । पर यह उन्नति शीघ्र गति से हो, इसके लिए सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने ‘गुरुकृपायोग’ अनुसार साधना बताई । इस साधना के कारण आज तक ७० साधक संतपद पर विराजमान हुए हैं और १ सहस्र से अधिक साधकों ने ६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कर संतत्व की दिशा में यात्रा आरंभ की है । इस प्रकार इतनी बडी संख्या में साधकों का आध्यात्मिक उन्नति करना, अति दुर्लभ उदाहरण है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा बताए अनुसार आज देश-विदेश के लाखों साधक साधना कर रहे हैं । सामान्य मनुष्य का आध्यात्मिक स्तर २० प्रतिशत होता है । इस स्तर का व्यक्ति केवल अपने सुख-दु:ख का विचार करता है । समाज से उसका कोई लेना-देना नहीं रहता । ‘आध्यात्मिक स्तर ३० प्रतिशत होता है, तब वह ईश्वर का अस्तित्व कुछ मात्रा में स्वीकारने लगता है, तथा साधना और सेवा करने लगता है । ६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त करना, असामान्य घटना ही है; क्योंकि इससे ब्रह्मांड का एक जीव जन्म-मृत्यु के फेरों से मुक्त होता है ।’ धन्य हैं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी और धन्य है उनके द्वारा बताया गया गुरुकृपायोग साधना का मार्ग !

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हिन्दुत्वनिष्ठों द्वारा साध्य की गर्इ आध्यात्मिक प्रगति

विश्वकल्याण हेतु कार्यरत सत्त्वगुणी लोगों का (राज्यकर्ता एवं प्रजा का) राष्ट्र, एेसी ‘हिन्दू राष्ट्र’ की आध्यात्मिक व्याख्या करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी स्वयं भी हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने के लिए आवश्यक सत्त्वगुणी लोगों की निर्मिति हेतु प्रयत्नशील है । वर्ष २०११ में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने देशभक्त तथा हिन्दुत्वनिष्ठों का संगठन कर हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने का कार्य प्रारंभ किया । इसके लिए संपूर्ण भारत से राष्ट्रप्रेमी एवं हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन एकत्रित करनेवाला व्यासपीठ होना चाहिए, यह विचार सर्वप्रथम प्रस्तुत किया । इस विचारधारा से प्रेरणा लेकर सनातन संस्था तथा हिन्दू जनजागृति समिति ने संयुक्तरूप से वर्ष २०१२ से प्रतिवर्ष गोवा में अखिल भारतीय हिन्दू अधिवेशन, एवं अन्यत्र राज्यस्तरीय आैर जनपद स्तरीय हिन्दू अधिवेशन आयोजित करना आरंभ किया । इन कार्यक्रमों में सहभागी होनेवाले कुछ हिन्दुत्वनिष्ठों ने अपने राष्ट्र आैर धर्म के प्रति तीव्र लगन के कारण जन्म-मृत्यु के फेरे से मुक्त होकर महर्लोक में स्थान प्राप्त किया है । मोक्षप्राप्ति अर्थात र्इश्वरप्राप्ति का ध्येय रखकर, धर्माचरण आैर साधना करते रहे तो जीव जन्म-मृत्यु के फेरे से मुक्त होता है ।

सनातन के साधक बने संत

अध्यात्म में ‘‘जितने व्यक्ति उतनी प्रकृतियां और उतने साधनामार्ग’’, यह एक सिद्धांत है । इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग जैसे विविध योगमार्ग बताए । ‘‘गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममङ्गलम् ।’’, अर्थात ‘शिष्य का परममंगल (मोक्षप्राप्ति) केवल गुरुकृपा से हो सकता है ।’ गुरुकृपा प्राप्त करना, आध्यात्मिक प्रगति की गुरुकुंजी है । इसके अनुसार सनातन संस्था प्रत्येक साधक को उसकी प्रकृति के अनुसार भिन्न साधना बताती है । सनातन के मार्गदर्शन की विशेषता है – व्यष्टि आैर समष्टि साधना । अर्थात राष्ट्र और धर्म के उत्कर्ष का भी विचार करना । इस व्यापक विचार के कारण और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना (सनातन धर्मराज्य की स्थापना) का ध्येय होने के कारण ईश्वर के कृपाशीर्वाद गुरुकृपा से मिलते हैं आैर साधकों की शीघ्र उन्नति होती है । इसी कारण अब तक १ सहस्र से अधिक साधकों का स्तर ६१ प्रतिशत से अधिक हुआ है और ७० साधक संत बने हैं । आगामी कुछ वर्षों में यह संख्या अनेक गुना बढेगी, यह निश्चित है ! हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए समाज का सत्त्वगुण बढना आवश्यक है । साधकों की आध्यात्मिक उन्नति के कारण समाज की सात्त्विकता बढेगी और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का मार्ग सुगम होगा ।

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विविध संतों द्वारा किया गया परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का सम्मान !

संतों का कार्य आध्यात्मिक (पारलौकिक) स्तर का होता है, इसलिए उन्हें लौकिक सम्मान एवं पुरस्कारों का विशेष महत्त्व नहीं लगता । कदाचित मनोलय और अहंलय होने से वे सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करानेवाले सम्मान एवं पुरस्कारों के परे जा चुके होते हैं । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का भी ऐसा ही है । ऐसा होते हुए भी, संत ही संतों को पहचान सकते हैं और वे ही अन्य संतों के कार्य का महत्त्व समझ सकते हैं । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के आध्यात्मिक कार्य का महत्त्व ज्ञात होने पर अनेक संतों ने उन्हें सम्मानित एवं पुरस्कार देकर गौरवान्वित किया है । अध्यात्म संबंधी महनीय कार्य करने के लिए सावंतवाडी (महाराष्ट्र) के अध्यात्म के महान अभ्यासक प.पू. भाऊसाहेब मसूरकरजी ने तथा कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के प.पू. तोडकर महाराजजी ने उन्हें सम्मानित किया ! ठाणे के जासूसी नजरें प्रकाशन संस्थान द्वारा परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को भारत गौरव रत्न पुरस्कार, सोलापुर (महाराष्ट्र) के शनैश्वर देवस्थान द्वारा शनैश्वर कृतज्ञता धर्म पुरस्कार, मुंबई के योगतज्ञ दादाजी वैशंपायन सत्कर्म सेवा सोसाइटी द्वारा योगतज्ञ दादाजी वैशंपायन गुणगौरव पुरस्कार देकर गौरान्वित किया है ।

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